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________________ जैन स्तोत्र साहित्य में 'तीर्थंकर' आराध्य तीर्थंकरों के प्रति भक्ति रस की अमल-धवल मन्दाकिनी ध्वनि प्रवाहित करने के लिए स्तोत्र काव्यों की विशेष परम्परा रही है। स्तोत्र अपने इष्ट देव के प्रति सर्वतोभाव समर्पण तथा आत्मनिवेदन का विशुद्ध स्वरूप है। 'स्तोत्र' शब्द स्तुञ्+क्तिन् से बना है यानी प्रशंसाकारक सूक्त अथवा गुणकीर्तन स्तुति ही स्तोत्र है। स्तोत्र में एक ओर स्तुतिकर्ता स्तोत्र के माध्यम से अपने आराध्य देव के गुण कथन के साथसाथ आत्मोन्नति का भी परम लक्ष्य रखता है व आराध्य जैसा ही बनना चाहता है, वहीं लौकिक दृष्टिकोण से स्तोत्र विघ्न, दुख, दरिद्रता आदि नष्ट करने का भी सामर्थ्य रखने वाले हैं। आचार्य समन्तभद्र सूरि जी ने स्पष्टरूप से यह बात कही है कि हम तीर्थंकर की स्तुति इसलिए नहीं करते कि उसकी स्तुति करने या नहीं करने से वे हित या अहित करेंगे। वासुपूज्य भगवान की स्तुति में वे कहते हैं - न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरेः। तथाऽपि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न:, पुनातु चेते दुरितांजनेभ्यः॥ हे प्रभो ! आपकी प्रशंसा से आप प्रसन्न नहीं होते क्योंकि आप तो वीतरागी हैं। आपकी निन्दा करने पर भी कोई भय नहीं है क्योंकि आप नाराज भी नहीं होते। लेकन फिर भी हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आपके पुण्य गुणों का स्मरण पाप रूपी मलिनता का नाश करके हमारे चित्त को पवित्र कर ही देता है। साहित्य की विविध विधाओं में स्तोत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि जैसी भावाभिव्यक्ति रचना कौशल के माध्यम से स्तोत्र द्वारा की जाती है, वह किसी अन्य में नहीं की जाती है। भक्तिवाद के फल स्वरूप जैन परम्परा में भी तीर्थंकरों को लक्ष्य में रखकर अनेकानेक स्तोत्रों की रचना की गई है। यदि जलस्पर्श से ही सिद्धि प्राप्त होती हो, तो जल में निवास करने वाले अनेक जलचर जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते। - सूत्रकृताङ्ग (17/14)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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