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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 86 तीर्थंकर इन सभी परिषहों को शांत चित्त से सहन करते हैं। उन्हें प्रमुख रूप से 11 परिषह सहने पड़ते हैं। श्री उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थ सूत्र के नवम अध्याय में लिखा है एकादश परिषहाः संभवन्ति जिने वेदनीयाश्रयाः। तद्यथा-क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकचर्या शय्यावरोगतृणमल परिषहाः॥ अर्थात् वेदनीय कर्म के आश्रय से तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानक में रहे हुए भी तीर्थंकर तथा छद्मस्थावस्था में प्रमुख 11 परिषह संभव हैं। यथा क्षुधा परिषह, पिपासा परिषह, शीत परिषह, उष्ण परिषह, दंशमशक परिषह, चर्या परिषह, शय्या परिषह, वध परिषह, रोग परिषह, तृण स्पर्श परिषह तथा मल (जल्ल) परिषह। दीक्षा के समय जो गोशीर्ष चन्दन का लेप प्रभु को किया जाता है उस चन्दन की. सुगंध दीक्षा पश्चात् चार महीने से भी अधिक रहती है। इस दिव्य सुगंध के कारण कई कीट, मच्छर आदि सूक्ष्म प्राणी उनके देह की ओर आकर्षित होते हैं। यह भी दंशमशक परिषह का ही प्रभाव है। किन्तु तीर्थंकर समभाव पूर्वक सभी कष्टों को सहन करते हैं। उपसर्ग-विजेता तीर्थंकर परिषह तो विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार स्वयं ही आ जाते हैं। उपसर्ग वे हैं जो पास में आकर किसी कारणवश पीड़ित करते हैं। उपसरंतीति उवसग्गा। उपसर्ग कारण हैं और परिषय कार्य। उपसर्ग चार प्रकार के होते हैं1. देव सम्बन्धी 2. मनुष्य सम्बन्धी . उपहास से . हास्यवश . प्रद्वेष से प्रद्वेषवश • परीक्षा से . परीक्षावश . विमात्रा से (उपर्युक्त 3 की । • मैथुन सेवन की भावना वश विविध मात्राओं से) (कुशील प्रतिसंवेदना) 3. तिर्यञ्च सम्बन्धी +. आत्मसंवेदनीय . भय के कारण • घट्टन आँखों में धूल पड़ना . द्वेष भावना के कारण • प्रपतन-गिरकर चोट खाना . आहार के कारण • स्तंभन-हाथ-पैर सुन्न होना . स्वस्थान की रक्षा के कारण • श्लेषण-वात पित्त कफ होना जो किये हुए कपटाचरण के प्रति पश्चाताप करके सरल हृदयी बन जाता है, वह धर्म का आराधक है। - स्थानांग (8)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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