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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 87 तीर्थंकर जैसी पुण्यात्मा को सामान्यतया उपसर्ग नहीं होते। किन्तु पार्श्वनाथ जी एवं महावीर स्वामी जी को कदाचित् उपसर्ग हुए क्योंकि यह उनके पूर्वसंचित कर्मों का प्रभाव था जो उन्होंने छद्मस्थावस्था में भोगे। तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर को हुए उपसर्ग का वर्णन करते हैं। एक बार प्रभु पार्श्व सूर्यास्त होने के समय एक कुएँ के सन्निकट वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर खडे हो गए। वहाँ मेघमाली नामक देव आया। विभंग (अवधि) ज्ञान द्वारा उसने अपने साथ हुए कमठ रूप में श्री पार्श्व द्वारा हुए अपमान को याद किया। अपने पूर्वभव का स्मरण कर क्रोध तथा अहंकार से बेभान बना हुआ वह भगवान को ध्यान से विचलित करने के लिए सिंह, हाथी, सर्प, बिच्छू प्रभृति विविध रूप बनाकर नाना प्रकार के कष्ट देने लगा। घनघोर यातनाएँ, उपद्रव देने लगा। जब प्रभु अपने अडिग ध्यान से तनिक भी विचलित नहीं हुए, तब मेघमाली गंभीर गर्जना करते हुए अपार जलवृष्टि करने लगा। नासाग्र तक पानी आ जाने पर भी भगवान का ध्यान भंग नहीं हुआ। तभी धरणेन्द्र नामक सम्यग्दृष्टि देव वहाँ आया और सप्त फनों का छत्र बनाकर उपसर्ग का निवारण किया। भयभीत होकर मेघमाली देव नतमस्तक हो क्षमा-याचना करने लगा। आचार्य हेमचन्द्र सूरि जी ने प्रभु की इस वीतरागी वीतद्वेषी अवस्था का वर्णन करते हुए लिखा है कमठे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति। प्रभोस्तुल्य: मनोवृत्ति, पार्श्वनाथ श्रियेस्तु वः॥ भक्ति भावना से गद्गद हो धरणेन्द्र ने प्रभु की स्तुति की लेकिन ध्यानमग्न समदर्शी पार्श्व न तो स्तुति करने वाले धरणेन्द्र पर तुष्ट हुए और न ही उपसर्गदाता मेघमाली पर रुष्ट हुए। तीर्थंकर महावीर पर तो छद्मस्थावस्था में सर्वाधिक उपसर्ग हुए। अनार्य देशों में विहार करने के दौरान लोगों ने उन्हें अनेकानेक उपसर्ग दिए। आश्चर्य की बात है कि भगवान महावीर का पहला उपसर्ग भी कमरिग्राम में एक ग्वाले से प्रारंभ हुआ था और अन्तिम उपसर्ग भी ग्वाले द्वारा ही दिया गया। यहाँ पर प्रभु वीर को हुए प्रमुख 3 उपसर्गों का संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। कटपूतना देवी का उपसर्ग भगवान महावीर कमरिग्राम सन्निवेश से विहार कर शालिशीर्ष के रमणीय उद्यान में पधारे। माघ मास की सनसनाती वायु प्रवहमान थी। साधारण मनुष्य घरों में गर्म वस्त्र ओढ़कर भी काँप रहे थे। किन्तु उस ठंडी रात में भी प्रभु वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। उस समय कटपूतना नामक व्यन्तरी देवी वहाँ आई। त्रिपृष्ठ के भव में प्रभु वीर का उससे वैर था। प्रभु को ध्यानावस्था में भयंकर कष्टों के पश्चात् मनुष्य-जन्म मिल गया तो भी तप, क्षमा और अहिंस्रता के संस्कार चित्त में स्थिर करने वाले धर्म-वचों का सुनना महादुर्लभ है। - उत्तराध्ययन (3/8)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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