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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 988 114
___ इन अठारह दोषों में समस्त दोषों का समावेश हो जाता है। अतः तीर्थंकर भगवंत समस्त क्रियाओं के समस्त दोषों से मुक्त होते हैं। अत: उन पर किसी प्रकार का आक्षेप लगाना मिथ्यात्व है। प्रभु तो सर्वथा निर्दोष होते हैं। तीर्थंकर के 34 अतिशय
यद्यपि वीतरागता और सर्वज्ञता में सभी केवलज्ञानी समान होते हैं किन्तु तीर्थंकर की प्रभावोत्पादक अन्य भी विशेषताएँ अतिशय रूप में होती हैं। अतिशय यानी श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव, चमत्कार इत्यादि। अभिधान चिन्तामणि स्वोपज्ञ टीकानुसार “जगतोऽप्यतिशेरते तीर्थंकरा एभिरित्यतिशया:" यानी जगत् के समस्त जीवों से उत्कृष्ट अतिशय है। तीर्थंकर परमात्मा के अनन्त अतिशय हैं। तो क्या उनके सिर्फ 34 अतिशय ही होते हैं? इसके उत्तर में वीतराग स्तव की अवचूर्णि में लिखा है-“न, अनन्तातिशयत्वाद्, तस्य चतुस्त्रिंशत संख्यानं बालावबोधाय' अर्थात् अतिशय तो अनंत हैं। अतिशयों की संख्या 34 मात्र बालबुद्धि जीवों को समणा सकें, इस हेतु से रखी है।
समवायांग सूत्र में 'चौंतीस बुद्धाइसेसा' कहकर बुद्धों अर्थात् तीर्थंकरों के 34 अतिशय बताए हैं। वे अतिशय इस प्रकार हैं1. सर्व केश, रोम तथा रमश्रु, नख का अवस्थित व मर्यादित रहना। 2. शरीर का रोगरहित, स्वस्थ तथा निर्मल होना, रज, मैल आदि अशुभ लेप न लगना। 3. गाय के दूध के समान शारीरिक रक्त-माँस का उज्ज्वल धवल होना।
श्वासोच्छ्वास का पद्म व नील कमल की तरह एवं उत्पलकुष्ट (गंध द्रव्य विशेष) के समान सुगन्धित होना। आहार और नीहार (शौच क्रिया) प्रच्छन्न अर्थात् चर्मचक्षुओं से अदृश्य होना (अवधिज्ञानी देख सकता है)।
आकाशगत प्रभु के आगे गरणाट शब्द करता हुआ धर्मचक्र चलना। 7. आकाशगत मस्तक के ऊपर मोतीयुक्त तीन छत्र होना। 8. दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) एवं उज्ज्वल केशयुक्त - रत्न जड़ित डंडी वाले चंवर (चामर)
का होना। 9. आकाश के समान स्वच्छ एवं सपादपीठ रत्नजड़ित स्फटिक सिंहासन प्रभु के लिए होना।
विश्व में आत्माएँ काल-क्रम के अनुसार शुब्द होते-होते मनुष्यत्व को प्राप्त होती हैं।
- उत्तराध्ययन (3/7)