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17. तीर्थंकर की चारों दिशाओं में एक योजन पर्यंत सुगंधित अचित्त जलवृष्टि से भूमि की धूलि का पूर्ण शमन होना ।
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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 115
तीर्थंकर के आगे आकाश में रत्नजड़ित स्तंभ वाले, हजार पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का
चलना ।
भगवान जहाँ जहाँ ठहरें - बैठें, वहाँ पर उसी समय पत्र, पुष्प व पल्लव से सुशोभित छत्र, घंटा, ध्वज व पताका सहित अशोक वृक्ष का प्रकट होना ।
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दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, प्रभु के थोड़ा पीछे की ओर अतिभास्वर ( देदीप्यमान) तेजोमंडल प्रभामंडल का होना ।
प्रभु जहाँ-जहाँ विचरें, वहाँ का भूमि भाग गड्ढे या टीले से रहित समतल एवं रमणीय हो जाना ।
प्रभु के विचरण पर काँटों का अधोमुख अर्थात् उल्टे हो जाना ताकि पैर में न चुभ सकें । तीर्थंकर जहाँ विचरते हैं, वहाँ की ऋतुओं का सुखस्पर्श वाली अर्थात् अनुकूल हो जाना तथा मौसम का सुहावना होना ।
प्रभु के चारों ओर एक - एक योजन ( चार-चार कोस ) तक सुगन्धित वायु का चलना व भूमिक्षेत्र स्वच्छ व शुद्ध होना ।
तीर्थंकर जहाँ विचरते हैं, वहाँ पर पाँच प्रकार के अचित्त पुष्पों की देवकृत जानुप्रमाण वृष्टि होना, जिनका डंठल सदैव नीचे की तरफ तथा मुख ऊपर की ओर होता है ।
अमनोज्ञ
अशुभ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण और गंध का अपकर्ष ( नाश ) ।
मनोज्ञ
शुभ शब्द, स्पर्श, रस, रूप, वर्ण व गंध का उद्भव ( प्रकट) होना ।
देशना देते समय भगवान् का स्वर गंभीर एवं हृदयस्पर्शी होना व एक योजन तक सुनाई
देना ।
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प्रभु का अर्धमागधी भाषा ( आर्ष प्राकृत व मागधी भाषा का सम्मिश्रण) में धर्मप्रवचन होना । अर्द्धमागधी भाषा का आर्य एवं अनार्य के मनुष्य, द्विपद (पक्षी), अपद (सर्प आदि), चतुष्पद (पशु) आदि तिर्यंच को अपनी-अपनी भाषा में कल्याणकारी, हितकारी परिणत होना । पहले से ही जिनके वैर बँधा हुआ है, ऐसे भवनपति, व्यंतर, वैमानिक ज्योतिष आदि देवों का प्रभु के चरणों में आकर वैर भूलना एवं प्रसन्नचित्त हो धर्मश्रवण करना ।
आत्मा ही सुख-दुःख का कर्त्ता और भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई होनेपर वही शत्रु है। उत्तराध्ययन (20/37)