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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 54 बाल्यकाल में वर्द्धमान ने वीरता पूर्वक अपनी शक्तियों का उपयोग-प्रदर्शन किया, तब संबंधियों तथा देवतागण द्वारा महावीर ऐसा नाम दिया गया जो आज भी अधिक प्रसिद्ध है। वर्तमान शासन भगवान महावीर स्वामी का है। इनके कई नाम प्रसिद्ध हैं, यथा- श्रमण, विदेह (विदेह कुल की माता होने के कारण), ज्ञातपुत्र (ज्ञातृकुल पितृ वंश में जन्म के कारण), वैशालिक (क्योंकि माता विशाला नगरी की थी), सन्मति, महतिवीर, काश्यप, देवार्य इत्यादि। किन्तु नामकरण के समय 'वर्द्धमान' नाम दिया, जो बाद में महावीर के रूप में परिवर्तित हो गया। अन्य सभी पश्चाद्वर्ती नाम विशेषण के रूप में प्रयुक्त होने के कारण नाम ही बन गए। __ आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर - महापद्म : अभी अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ आरा चल रहा है। पाँचवाँ तथा छठा आरा व्यतीत होने के बाद उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होगा। भरत क्षेत्र में अग्रिम तीर्थंकर उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में उत्पन्न होंगे। प्रथम तीर्थंकर महावीर स्वामी के भक्त श्रावक श्रेणिक राजा की भव्यात्मा होगी। स्थानांग सूत्र आदि ग्रन्थों में आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री महापद्म (पद्मनाभ) स्वामी का चित्रण-वर्णन इस प्रकार किया है- “यह श्रेणिक राजा मरकर इस रत्नप्रभा नरक में नारकी रूप उत्पन्न होगा और अतितीव्र असह्य वेदना भोगेगा। उस नरक से निकलकर आगामी उत्सर्पिणी में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में पुण्ड्जनपद के शतद्वार नगर में सन्मति कुलकर की भार्या-भद्रा की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। नौ मास और साढ़े सात अहोरात्र बीतने पर सुकुमार हाथ पैर, प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर और उत्तम लक्षण युक्त रूपवान पुत्र पैदा होगा। जिस रात्रि में यह पुत्र रूप में पैदा होगा, उस रात्रि शतद्वारनगरी के अंदर और बाहर भारान तथा कुंभाग्र पद्म एवं रत्नों की वर्षा होगी। बड़े-बड़े पद्मों की वृष्टि होने पर बारहवें दिन पुत्र को ‘महापद्म' नाम देंगे। आठ वर्ष का होने पर माता-पिता महापद्म का राज्याभिषेक महोत्सव करेंगे। तत्पश्चात् पूर्णभद्र एवं महाभद्र नामक 2 देव महर्धिक प्रभु के राज्य की सेना का संचालन करेंगे। अतः महापद्म का दूसरा नाम 'देवसेन' रखा जाएगा। कुछ समय बाद, उसे श्वेत हस्तिरत्न (विमल हाथी) प्राप्त होगा। जिस पर आरूढ़ होने के कारण उनको 'विमल वाहन' के नाम से भी पुकारा जाएगा। तीस वर्ष गृहस्थावस्था में रहने के बाद, माता-पिता का स्वर्गवास होने पर गुरुजनों की आज्ञा लेकर शरद् ऋतु में स्वयं बोध प्राप्त करेगा व प्रव्रज्या ग्रहण करेगा। बुध्दिमान साधक को अपनी साधना में प्रमाद से दूर रहना चाहिए। ___ - आचाराङ्ग (1/2/4/85)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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