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तीर्थंकर : एक अनुशीलन
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15.
- दान पद/ गोयम पद - सुपात्र को साधुजनोचित प्रासुक अशनादि का दान करना, मरण
शय्या पर लेटे व्यक्ति को अभयदान देना इत्यादि दान परमोत्कृष्ट कल्याणकारी है। क्योंकि दान देने से न केवल दाता को पुण्यबंध होता है बल्कि याचक का भी कल्याण होता है। धर्मदान की महिमा अपरम्पार है। भावपूर्वक दान करने से व्यक्ति सद्कृत्यों का संचय करता है और साथ ही तीर्थंकर नामकर्म बाँधने से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति में सहयोग करता है। किन्हीं व्याख्याओं में पन्द्रहवाँ पद 'गोयम पद' लिखा है जिसका आशय है प्रथम गणधर पद। वे परमात्मा की वाणी से द्वादशांगों की रचना कर ज्ञानदान देते हैं। अत: गणधर की पर्युपासना से भी तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। ज्ञानदान उत्तमोत्तम दान है। अपेक्षा से यदि विचार करें तो सुपात्रदान एक गुण है और ‘गोयम पद' गुणी है। ‘गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए सुपात्र दान एवं गोयम पद दोनों का स्थान यथोचित बराबर है। वैयावृत्य पद (जिन पद) - वैयावृत्य एक निर्जरा प्रधान क्रिया है। इससे पुण्य का बंध भी होता है तथा आत्मा शक्तिमान बनती है। चतुर्विध संघ की सेवा-भक्ति करने से, तेरह प्रकार का वैयावृत्य करने से तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है। किसी शास्त्रकार ने इसे जिन पद भी लिखा है। किन्तु यहाँ अरिहंतादि जिन अर्थ उपयुक्त नहीं है। यहाँ 'जिन' पद का अर्थ राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने हेतु पुरुषार्थ किया जाए तो सुसंगत है, क्योंकि उन्हीं की वैयावृत्य से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती
16.
समाधि पद (संयम पद) - संयम का फल समाधि है जिसमें मन एकाग्र और स्थिर हो जाता है व आत्मा क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो जाती है। सभी प्रकार की आकुलताओं से रहित समभाव में टिककर व 20 असमाधियों से बचकर आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म का बंध
कर सकती है। 18. अभिनवज्ञान पद (अपूर्व श्रुत पद) - बुद्धि के 8 गुणों की प्राप्ति हेतु नवीन अपूर्व
अभिलक्षित ज्ञान के अभ्यास से, नए नए ज्ञान के मनन-वाचन से चिन्तन-लेखन से आत्मोत्थान में सहायता प्राप्त होती है तथा तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। वैसे ज्ञान का स्वरूप
आठवें पद में भी है, किन्तु इसमें नवीन जिज्ञासा रूप ज्ञान की पुष्टि को महत्त्व दिया गया है। इसमें पाँचों ज्ञान के अभ्यास की बात है जबकि अग्रिम पद में श्रुतज्ञान की भक्ति की
मुख्यता है। सामायिक के समय श्रावक श्रमण के तुल्य हो जाता है। इसलिए श्रावक को सामायिक दिन में अनेक बार करनी चाहिए।
___ - विशेषावश्यक भाष्य (2690)