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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 149 तीर्थंकर किस भूमि में पैदा होते हैं, संघयन उत्कृष्ट जघन्य संख्या इत्यादि का चिंतन किया है। तीसरी गाथा में 5 सुप्रसिद्ध तीर्थों के मूलनायकों को वंदन किया है- ऋषभदेव (शत्रुजय गिरि), नेमिनाथ (उज्जयंतगिरि), महावीर स्वामी (सत्यपुर सांचोर), मुनिसुव्रत जी (भृगुकच्छ भरूच), पार्श्वनाथ जी (मथुरा)। चौथी व पाँचवीं गाथा में क्रमश: शाश्वत चैत्यों व बिम्बों की संख्या गिन उन्हें वंदन किया गया है। यह अपभ्रंश प्राकृत में निबद्ध है। बृहद्गच्छीय श्री मानतुंगाचार्य जी ने 24 पद्यों द्वारा तीर्थंकर पार्श्वनाथ के अमिट प्रभाव व उनकी महिमा का उल्लेख करते हुए नमिऊण स्तोत्र (भयहर स्तोत्र) की रचना की। प्रथम पद्य में स्तोत्ररचना का संकल्प करते हुए बाद की गाथाओं में महाभयावह अष्ट भयों का निरूपण किया है एवं पार्श्वनाथ जी को ऐसे भयों का विनाशक कहा है। अन्तिम गाथा में लिखा है पासह समरण जो कुणइ, संतुढे हिययेण। अट्टत्तरसयवाहिभय नासइ तस्स दूरेण ॥ अर्थात् - जो व्यक्ति स्थिर चित्त से श्री पार्श्वनाथ जी का स्मरण करता है। उसके 108 व्याधियों के भय दूर से ही नष्ट हो जाते हैं। जयतिहुअण स्तोत्र में 30 पद्यों द्वारा तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की स्तुति की गई है। लोकोक्ति अनुसार नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि जी द्वारा यह स्तोत्र रचने पर स्तंभन पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रकट हुई जिससे वे रोगमुक्त हुए थे। स्तुतिकर्ता ने प्रभु की भक्ति में लीन होकर बहुत ही सुंदर शब्दों से स्तुति की है। उन्हें 'प्रत्युपकार-निरीह', 'शत्रुमित्र समचित्त वृत्ति', परोपकार करुणैकपरायण' इत्यादि विशेषणों से विभूषित किया है। इसमें अपभ्रंश भाषा भी ध्वनित होती है। तिजयपहुत स्तोत्र के द्वारा आचार्य मानदेव सूरि जी ने भूत, वर्तमान तथा भविष्य के सब तीर्थंकरों का स्मरण किया है। मान्यतानुसार जिनशासन में आए व्यन्तर उपसर्ग के निवारणार्थ इस स्तोत्र की रचना की गई। इसकी काव्य शैली व शब्द संरचना अत्यन्त सुगठित है। तीर्थंकरों के लिए जिनाणं, 'जिनन्द', 'जिनवर', 'जिनगण' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। अजितशान्ति स्तव भी जैन वाङ्मय की प्राचीन कृति मानी जाती है। कथानुसार नन्दिषेण मुनि एक बार शजय गिरिराज तीर्थ पर गए। वहाँ पर श्री अजितनाथ जी एवं श्री शान्तिनाथ जी के मन्दिर आमने सामने थे। आशातना से बचने हेतु मुनिश्री ने दोनों तीर्थंकरों की संयुक्त स्तवना की, जिससे दोनों मन्दिर देवीय प्रभाव से एक साथ हो गए। 5. क्षमा मांगनी चाहिए, क्षमा देनी चाहिए। जो क्षमा-याचना करके कषार्यों का उपशमन कर लेता है, वही आराधक है। - कल्पसूत्र (3/59)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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