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________________ तीर्थंकरों का बाहा रूप तीर्थंकरों की आत्मा के समान ही उनका देह भी उच्चता से परिपूर्ण होता है। तीर्थंकरों के तीर्थंकर नाम कर्म के साथ-साथ सुरभिगन्ध नामकर्म, निर्माण नाम कर्म, शरीर नाम कर्म इत्यादि सभी सत्कर्म उदय में आ जाते हैं। तीर्थंकरों का शरीर सुगठित बलिष्ठ एवं कांतिमान होता है। उनकी मुखाकृति अत्यंत मनमोहक चित्ताकर्षक व तेजपूर्ण होती है। दीप्तियुक्त अर्धचन्द्र के समान ललाट एवं वृषभ के समान मांसल स्कंध होते हैं। तीर्थंकरों को पद्मकमल के समान विकसित चक्षु एवं मत्स्याकार उदर (पेट) प्राप्त होता है। उनके दोनों हाथ घुटनों तक का स्पर्श करते हैं। ऐसा उनका नयनाभिराम रूप होता है। आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि तीर्थंकरों के बाह्य रूप का वर्णन करने की क्षमता केवल गणधर भगवन्त (केवलज्ञान पश्चात, तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य) में होती है क्योंकि तीर्थंकर जगत् के सर्वसुंदर नीरोग काया के धारक होते हैं। तीर्थंकरों के पास उत्तम संहनन/ संघयण (हड्डियों की रचना विशेष) व संस्थान (आकार विशेष) उत्तमोत्तम होते हैं। शास्त्रों में भी लिखा है- “भगवतो अणुत्तरं संघयण भगवतो अणुत्तरं संठाणं" अर्थात् उन्हें वज्रऋषभनाराच नामक संहनन एवं समचतुरस्र नामक संस्थान प्राप्त होता है। इसी कारण तीर्थंकरों के सभी अंगोपांग सौंदर्य से परिपूर्ण होते हैं। आवश्यक नियुक्तिकार ने उपमालंकार से तीर्थंकर प्रभु के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है गणहर आहार अणुत्तरा य जाव वण चक्कि वासु-बला। मंण्डलिया ता हीणा छट्ठाणगया भवे सेसा॥ अर्थात् - 1. जनसाधारण से कई गुणा अधिक राजा का 2. राजा से कई गुणा अधिक मांडलिक राजा का 3. मांडलिक राजा से कई गुणा अधिक बलदेव का कर्तव्य-पथ पर चलने को उद्यत हुए व्यक्ति को फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए। - आचाराङ्गा (1/5/2)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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