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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88 170 प्रागैतिहासिक काल की अत्यन्त प्राचीन समय की प्रतिमाओं में लांछण (चिह्न) उत्कीर्ण करने की परम्परा नहीं थी । तीर्थंकर प्रतिमाएँ प्राय: समान होती हैं एवं लांछण से ही उनकी पहचान होती है। लोहानीपुर से प्राप्त कुषाणकालीन तथा मथुरा से प्राप्त मौर्यकालीन प्रतिमाओं पर लांछण (चिह्न) प्राप्त नहीं होते। धीरे-धीरे प्रतिमाओं की पहचान हेतु चिह्नों का उत्कीर्तन प्रारम्भ हुआ । पुरातात्त्विक सामग्रीरूपेण प्राप्त जिनप्रतिमाओं पर लांछण (चिह्न) का उत्कीर्णन सिंहासन के ऊपर अथवा धर्मचक्र के समीप होता था। वर्तमान में यह पादपीठ पर होता है अर्थात् चरण चौकी पर । अतः प्रतिमाविज्ञान में लांछण (चिह्न) का विशेष महत्त्व है। तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षिणियों का रहस्य जैन वाङ्मय में यक्ष-यक्षिणी का उल्लेख तीर्थंकर परमात्मा के चरण सेवक के रूप में हुआ है। तीर्थंकर जब केवलज्ञान प्राप्ति के बाद तीर्थ की संरचना करते हैं, तब उनके धर्मोपदेश के पश्चात् समवसरण में ही सौधर्मेन्द्र प्रत्येक तीर्थंकर के सेवक के रूप में यक्ष-यक्षिणी युगल को नियुक्त करता है । वे व्यंतर निकाय अथवा वाणव्यंतर निकाय के देवी-देवता होते हैं। उनके नाम शाश्वत होते हैं किन्तु आत्माएँ बदलती रहती हैं। जैसे- प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति का पद वही रहता है। किन्तु व्यक्ति बदलता रहता है। यथा - पद्मावती नाम की देवी ऋषभदेव जी के समय भी थी और उनके देवलोक से च्युत हो जाने पर किसी अन्य आत्मा ने वह स्थान पाया और पार्श्वनाथ जी की चरण सेविका के रूप में शासनसेवा की। जो कोई व्यक्ति तीर्थंकर की आराधना करते हैं, तब कई बार उनकी उत्कृष्ट आराधना से प्रभावित होकर यक्ष यक्षिणी उन्हें फल देते हैं तथा शासन पर आई विपत्तियों को दूर करने से वे शासन देव अधिष्ठायक देव या देवी भी कहलाते हैं। यक्ष-यक्षिणी देव-देवी दृढ़ सम्यक्त्वी होते हैं। आसन्न भव्यात्माएँ होने से कुछ भवों के उपरान्त ही मोक्ष जाने की योग्यता रखते हैं । पूर्वभव में धर्माराधना के बल से किन्तु जीवन के अंतिम काल शुभाशुभ भाव से मरने पर वे व्यंतर योनि में उत्पन्न होते है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि (नेमिनाथ जी) की शासन रक्षिका देवी अम्बिका के पूर्वभव का वृत्तांत प्राप्त होता है। पूर्वभव में वह अम्बिका नामक धर्मनिष्ठा कन्या थी । उसका विवाह सोमभट्ट ब्राह्मण के साथ हुआ व सिद्ध और बुद्ध नाम दो पुत्र भी हुए। एक बार उसने एक जैन मुनि को भक्तिभाव से सुपात्रदान दिया। यह दृश्य देखते ही उसकी सास ने क्रोधाविष्ट होकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। अम्बिका अपने दोनों बच्चों के साथ नेमिनाथ जी का स्मरण करते रैवतगिरि ( गिरनार ) की ओर चल पड़ी। सोमभट्ट अम्बिका जो यत्नवान् साधक अन्तर्विशुद्धि से युक्त है और आगमविधि के अनुसार आचरण करता है, उसके द्वारा होने वाली हिंसा भी कर्म-निर्जरा का कारण है। ओषनियुक्ति (759) -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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