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________________ 7. 8. 10. 11. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 35 सूर्य - तत्पश्चात् तीर्थंकर की माता लोकनयनसमान, सहस्राधिक किरणों के धारक, शीत का नाश करने वाले, अन्धकार को दूर भगाने वाले लाल तेजस्वी सूर्य को स्वप्न में निहारती है । वह सूर्य अत्यन्त तेज से युक्त देदीप्यमान- प्रकाशमान प्रकट होता है । इस महास्वप्न का फल यह है कि तीर्थंकर पुत्र जगत् में अज्ञान रूपी अंधकार का नाश कर ज्ञान का उद्योत करेंगे, मिथ्यात्व रूपी संशयों को दूर करेंगे तथा प्रभामंडल से अलंकृत होंगे अर्थात् तेजस्वी कान्तिमय व्यक्तित्व के धारक होंगे। ध्वजा - सुवर्ण के दंड पर रही हुई, श्रीवार, मोरपंख से युक्त तथा पंचवर्णी वस्त्र की बनी हुई ध्वजा, जो सभी के देखने योग्य, सुन्दर है, ऐसी ध्वजा तीर्थंकर की माता स्वप्न में देखती है। स्वप्नपाठकों के अनुसार ध्वजा के दर्शन का फल होता है कि पुत्र सम्पूर्ण कुल में उत्तम होगा, समवसरण में धर्मध्वजा से विराजमान होगा तथा जगत् को चारों दिशाओं में धर्मध्वजा से सुशोभित करेगा । एवं 'शिवसौख्यसाची' के समान सुख एवं कल्याण बाँटेगा । पूर्णकलश - निर्मल जल से भरा हुआ, उत्तम कमलों से घिरा हुआ 6 ऋतुओं के फलफूलों से भरा हुआ, देदीप्यमान, जाज्वल्यमान नयनाभिराम पूर्णकलश रत्नजड़ित होता है। तीर्थंकर की माता के मुख में यह रौप्यमय पूर्णकुम्भ स्वप्न में प्रवेश करता है। इस स्वप्न का फल यह है कि आगामी पुत्र - रत्न अनेक निधियों को सम्प्राप्त कर कुल एवं धर्म में स्वर्ण कलश के रूप में विद्यमान होगा। तथा अनन्तानन्त सद्गुणों का स्रोत होगा व धर्मरूपी विशाल प्रासाद पर कलश चढ़ाएगा। पद्मसरोवर - सूर्यविकासी, चन्द्रविकासी इत्यादि उगते हुए 100 पंखुड़ी वाले कमलों से सुशोभित एवं उनके ऊपर नभ में उड़ते हुए उत्तम पक्षियों से शोभायमान पद्मसरोवर को तीर्थंकर की माता अपने स्वप्न में स्पष्ट रूप से देखती और निहारती है। फलस्वरूप पुत्र जगत् का ताप दूर करने वाला होगा, अनेक लक्षणों से सुशोभित होगा एवं लोगों के दिलों को आकर्षित करने वाला प्रभावोत्पादक चुम्बकीय व्यक्तित्व होगा । क्षीरसमुद्र - तीर्थंकर की माता तत्पश्चात्, क्षीरसमुद्र को स्वप्नरूप देखती है। चौदह लाख, छप्पन हजार नदियों का जहाँ संगम होता हो, जिसकी लहरें चंचल स्वभाव से जल को बढ़ा रही हों, वह क्षीर (लवण) समुद्र की आभा चन्द्र एवं सूर्य को भी निस्तेज कर देती है। परस्त्री का सहवास, द्यूत-क्रीड़ा, मद्य, शिकार, वचन परुषता, कठोर दण्ड तथा अर्थ-दूषण (चोरी आदि) ये सात कुव्यसन हैं। बृहत्कल्पभाष्य (940)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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