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________________ 3. 4. 5. 6. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 34 इस स्वप्न का अर्थ यह है कि आगामी पुत्र समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा तथा बोधरूप अनाज का बीज बोएगा । धर्मधुरीण पुत्र उस क्षेत्र में धर्मचक्र का संचालन करेगा। केसरी सिंह तदनन्तर तीर्थंकर की माता निर्मल स्कंध वाले दर्शनीय केसरीसिंह को मुख में प्रवेश करते हुए पाती है, जिसकी तालु लाल रंग की होती है, काया सौम्य होती है एवं जो गर्जना मुद्रा में स्थिर है। इसके फलानुसार माता को अनंत बलयुक्त निर्भय पुत्र प्राप्ति होगी जो काम द्वेष आदि विकार रूप उन्मत्त हाथियों से नष्ट होते हुए भव्यजीव वन का संरक्षण करेगा तथा आठ कर्म व 8 मदरूप श्वापदों का नाश करेगा। सभी उसकी आज्ञा का पालन करेंगे, वह ऐसी भव्यात्मा होगी। लक्ष्मीदेवी चौथे स्वप्न में माता अत्यन्त सुन्दर, ऐश्वर्यधारिका लक्ष्मी देवी को मुख में प्रवेश करते हुए पाती है। हिमालय के पद्मद्रह में विराजित भवनपति निकाय की लक्ष्मी देवी सर्वांग विभूषित एवं अलंकार - आभरण - आभूषणों से युक्त होती है। श्वेत हाथी जिसे शीतल जल से स्नान कराते हैं, ऐसी लक्ष्मी देवी को तीर्थंकर की माता देखती है। इसका फल कहते हुए स्वप्नपाठक बताते हैं कि पुत्र तीनों लोकों की लक्ष्मी का भोक्ता बा वार्षिक दान देकर तीर्थंकर पद के अपार ऐश्वर्य का भोग करते हुए केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त करेगा। वह जीव सभी प्राणियों का प्रिय पात्र बनेगा । पुष्पमाला - कल्पवृक्षों के सरस सुन्दर, छह ऋतुओं के पंचवर्णी मनोहर, नयनरम्य पुष्पों से निर्मित पुष्पमाला को तीर्थंकर की माता च्यवन के समय स्वप्न में निहारती है। पुष्प की भाँति पुत्र भी सुगंधित शरीर वाला होगा एवं सदा श्रेष्ठता का वरण करेगा। फलानुसार वह जीव मस्तक पर धारण करने योग्य त्रिलोकपूज्य होगा तथा प्रमुख दो धर्म -2 व साधु धर्म की प्ररूपणा करेगा एवं सत्पुरुषों में पूज्यता को प्राप्त होगा । चन्द्रमा शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का चन्द्र अपूर्व नयनाभिराम कान्तिमय होता है। गाय के दूध की झाग सरीखा वह चन्द्र अपनी श्वेत आभा सब पर निस्तेज करता है। तीर्थंकर की माता ऐसे ही शीतल एवं शान्त चन्द्र के स्वप्न में दर्शन करती है। -श्रावक धर्म इस स्वप्न का अर्थ यह होता है कि भावी पुत्र सौम्यदर्शन वाला, शीतल परिणाम वाला होगा जो शान्तिदायी क्षमाधर्म का उपदेष्टा बनेगा। साथ ही वह भव्य जीव-रूप चन्द्रविकासी कमलों का अपने प्रकाश (बोध) से विकास करने वाला होगा। वैयावृत्य से आत्मा तीर्थंकर पद को प्राप्त करता है। - उत्तराध्ययन (29/44)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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