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________________ 5. 6. 7. 8. 9. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 887 स्थविर पद वयः स्थविर, दीक्षा पर्याय स्थविर, श्रुत स्थविर इत्यादि भेद वाले ज्ञानी जो गीतार्थ हैं एवं संयम मार्ग में अविचलित (स्थिर) रहकर जिनशासन की अपूर्व प्रभाव कर रहे हैं और क्षमा, मृदुता सरलता आदि यतिधर्मों का पालन कर रहे हैं, ऐसे संयम स्थविरों की सेवा-भक्ति से, आशातना के परिहार से, गुणोत्कीर्तन से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन निश्चित होता है। - बहुश्रुत पद ( उपाध्याय पद ) ग्यारह अंग, बारह उपांग, चरण सित्तरी, करण सित्तरी के ज्ञाता अथवा 14 पूर्व, 11 अंग के ज्ञाता ऐसे पच्चीस गुणयुक्त प्रभूतश्रुतज्ञानधारी उपाध्य वन्दनीय-पूजनीय होते हैं। वाचक, पाठक, उपाध्याय, बहुश्रुत ये पर्यायवाची हैं। अन्य योग्य पात्रों को श्रुतज्ञान का अभ्यास करवाने वाले उपाध्यायों - बहुश्रुतों के सम्मान - सत्कार से वन्दन विनयादि भक्ति से न केवल तीर्थंकर नामकर्म बँधता है, अपितु ज्ञानावरणीय कर्म का भी क्षय होता है। - तपस्वी मुनि पद (साधु पद) जो मुनिवर पंच महाव्रत आदि 27 गुणों के धारक हैं, क्षुधा आदि 22 परिषहों को सहन करने वाले हैं, स्व-पर हितकर्ता हैं, धर्मोपदेशक हैं वे अवनि के अणगार हैं, जिनशासन के शणगार हैं । बाह्य आभ्यंतर तपस्या करने वाले साधुसाध्वियों की संयम यात्रा में सहायता करके, स्तुति बहुमान करके तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया जा सकता है। - - ज्ञान पद सम्यग्ज्ञान वही है जो पतित व्यक्ति का उद्धार करे एवं उसे उत्थान मार्ग की ओर सम्प्रेरित करे। आत्मा का स्वभाव ही जानना है। स्वाध्याय, वाचना, पृच्छना, धर्मकथा आदि क्रियाएँ निरन्तर ज्ञानोपयोग एवं सतत श्रुताराधना को प्रेरित कर दीपक की भाँति अंधकार-मय अज्ञान को हटाकर प्रकाशमय ज्ञान की ज्योति प्रकट करती है । सद्ज्ञान से ही कर्तव्य अकर्त्तव्य की बुद्धि आती है। सतत ज्ञानाराधना ज्ञानोपासना से आत्मा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करते-करते तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करती है। 1 दर्शन पद सुदेव, सुगुरु, सुधर्म पर अटूट अगाध श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन कहलाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष के निकट लेकर जाता है। दर्शन का अभाव मिथ्यात्व को आमंत्रण देता है, जो जन्म देता है संशय, शंका, कुतर्क को एवं मोक्ष से दूर लेकर जाता है। परमात्मा पर, परमात्मा की वाणी (आगम) पर नि:शंकित, पूर्ण श्रद्धा रखना व अन्य जागृत करना एवं निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। अज्ञानी कितना ही प्रयत्न करे, किन्तु पाप कर्मों से पाप कर्मों को कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता। सूत्रकृताङ्ग (1/12/15)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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