SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 86 ज्ञाताधर्मकथांग त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, समवायांग, आवश्यकचूर्णि आदि ग्रन्थों में भी 20 पदों का उल्लेख है, जिनकी आराधना भक्ति से ही आत्मा तीर्थंकर नाम कर्म बाँध सकती है। इन 20 स्थानक की तपस्या द्वारा भी समग्र पदों की आराधना की जाती है। उसका भी महत्त्व है किन्तु उसे अपने आचरण में उतारकर दिव्य करुणा ला पाना, उसका उत्कृष्ट महत्त्व है। इन बीस पदों को बीस-स्थानक भी कहा जाता है। इन 20 पदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है1. अरिहन्त पद - जिन वीतरागी आत्माओं ने चार घनघाति कर्मों का जड़मूल से नाश कर दिया है, जो 34 अतिशयों एवं अष्ट प्रातिहार्य युक्त हैं उन्हें अरिहंत कहा जाता है। वे अखण्ड केवल ज्ञान दर्शन के स्वामी हैं। इसी कारण उन्हें महागोप, महामाहण आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। ऐसे अरिहन्त परमात्मा जो नाम स्थापना द्रव्य एवं भाव निक्षेप में उपास्य हैं, उनकी स्तुति, विनय भक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध होता है। सिद्ध पद - जो आत्माएँ आठ कर्मों का क्षय कर मोक्षधाम में लोकाग्रे सिद्वशिला स्थित हैं एवं अशरीरी अरूपी-अजरामर-निरंजन हैं, वे सिद्ध कही जाती हैं। ऐसी आत्माएँ परम सुखी अवस्था में हैं। वे जन्म-मरण के बंधनों से सर्वथा मुक्त हैं एवं आधि-व्याधि-उपाधि आदि सभी दुःखों से दूर हैं। ऐसे सिद्ध परमात्मा के अवर्णवाद के परिहार से तथा उनके गुणोत्कीर्तन और गुणप्रकाश करने से तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित होता है। प्रवचन भक्ति पद - केवली प्रणीत धर्म में प्रकाशित तत्त्वों का चरम सत्य एवं पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रवचन कहलाता है। प्रभु की तारक देशना 12 अंगों में निहित है। इन जिनागमों के ज्ञाता- श्रीचतुर्विध संघ को भी प्रवचन की संज्ञा प्रदान की गई है। ऐसे ज्ञानमयी प्रवचन की साधना एवं संघमयी प्रवचन की विनयभक्ति करने से तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन होता है। आचार्य पद (गुरु पद) - पाँच समिति तीन गुप्ति इत्यादि 36 गुणयुक्त आचार्य भगवन्त प्रबुद्ध धर्मोपदेशक धर्मतीर्थसंरक्षक एवं श्रीसंघ के नायक होते हैं। 'सूरि तित्थयर समो' कहकर उन्हें तीर्थंकरों के समान बताया है। सद्गुरु ही श्रावक के जीवन को सुधारता है। गुरु की 33 आशातनाओं के परिहार से एवं वन्दनादि-सेवा-भक्ति करने से आत्मा तीर्थंकर नामकर्म का बंध करती है। अज्ञानी साधक उस जन्मान्ध मानव के समान है, जो छिद्रवाली नौका पर आरूढ होकर नदी के तट पर पहुंचना चाहता है, किन्तु किनारा आने से पूर्व ही मध्य-प्रवाह में डूब जाता है। - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/31)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy