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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 237 तीर्थंकर | धातकीखंड-पूर्व ऐरावत क्षेत्र धातकी खंड-पश्चिम ऐरावत क्षेत्र क्रमांक (19) अतीत चौबीसी (22) अतीत चौबीसी श्री पुरुरव सर्वज्ञाय नमः 4. श्री अश्ववृंद सर्वज्ञाय नमः श्री अवबोध अर्हते नमः 6. श्री कुटलिक अर्हते नमः श्री अवबोध नाथाय नमः 6. श्री कुटलिक नाथाय नमः श्री अवबोध सर्वज्ञाय नमः 6. श्री कुटलिक सर्वज्ञाय नमः श्री विक्रमसेन नाथाय नमः 7. श्री वर्द्धमान नाथाय नमः (20) वर्तमान चौबीसी (23) वर्तमान चौबीसी श्री शांतिकनाथ सर्वज्ञाय नमः 21. श्री नंदिकेश सर्वज्ञाय नमः श्री हरनाथ अर्हते नमः 19. श्री धर्मचंद्र अर्हते नमः श्री हरनाथ नाथाय नमः 19. श्री धर्मचंद्र नाथाय नमः श्री हरनाथ सर्वज्ञाय नमः 19. श्री धर्मचंद्र सर्वज्ञाय नमः श्री नंदिकेश नाथाय नमः 18. श्री धर्मदेव नाथाय नमः (21) अनागत चौबीसी (24) अनागत चौबीसी श्री महामृगेन्द्र सर्वज्ञाय नमः 4. श्री कलापक सर्वज्ञाय नमः श्री अशोचित अर्हते नमः 6. श्री प्रियसोम अर्हते नमः श्री अशोचित नाथाय नमः 6. श्री प्रियसोम नाथाय नमः श्री अशोचित सर्वज्ञाय नमः 6. श्री प्रियसोम सर्वज्ञाय नमः श्री द्विमृगेन्द्र नाथाय नमः 7. श्री वारुणजिन नाथाय नमः सुव्रत सेठ की तपश्चर्या उत्कृष्ट थी। अनेक बार उसके घर चोरी की कोशिश, आग लगाने की कोशिश की गई किन्तु सेठ मौन एकादशी के दिवस कायोत्सर्ग में दृढ रहे व उनके तप से प्रभावित हो शासनदेव ने उनकी रक्षा की। एक बार चार ज्ञान के धारक आचार्य गुणसुंदर वहाँ पधारे। उनकी आत्मविषयक हृदयस्पर्शी देशना सुन भवभीरु सेठ सुव्रत ने दीक्षा स्वीकार की। एक बार सुव्रत मुनि मौन एकादशी के दिन मौनव्रत करके कायोत्सर्ग में खड़े थे। किसी मिथ्यादृष्टि व्यंतर देव ने किसी अन्य साधु के शरीर में प्रवेश कर सुव्रत मुनि को विचलित करना चाहा किन्तु मुनि दृढ़-अचल रहे। शुक्लध्यान ध्याते हुए क्षपक श्रेणी पर चढ़कर कर्मों का क्षय करते हुए वे केवलज्ञान व तदनन्तर मोक्ष को प्राप्त हुए। इस तरह अन्य भव्य जीव भी यह तपाराधन कर सांसारिक व आत्मीय ऋद्धि को प्राप्त करते हैं। इस संबंध में श्री नेमीश्वर भगवान के श्रीमुख से श्रवणकर श्रीकृष्ण वासुदेव भी धर्म के विषय में उद्यमवन्त हुए, जिसके कारण तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन किया। यह सब भगवान महावीर ने प्रधान गणधर श्री गौतम स्वामी जी से कहा।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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