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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 27 सभी कल्याणकों का वर्णन इसी पुस्तक में आगे प्रसंगवश किया गया है। देवतागण भी सभी कल्याणकों को मनाते हैं एवं तत्पश्चात् नन्दीश्वर द्वीप जाकर उत्सव मनाते हैं। सौधर्मेन्द्र प्रत्येक कल्याणक पर तीर्थंकर के पास जाकर शक्रस्तव (नमोत्थुणं) का उच्चारण करता है। स्थानांग सूत्र में लिखा चउहिं ठाणेहिं लोगुज्जोए सिया-तं-जहा अरहंतेहिं जाएमाणेहिं अरिहंतेहिं पव्वयमाणेहि, अरहंताणं नाणुप्पाय महिमासु अरहंताणं परिनिव्वाणमहिमासु। अर्थात् - लोक में उद्योत के चार कारण हैं- अरिहंत परमात्मा का जन्म, अरिहंत प्रभु की दीक्षा, अरिहंत भगवंत का केवलज्ञान एवं अरिहंत परमेश्वर का निर्वाण कल्याणक। यहाँ पर च्यवन कल्याणक को सम्मिलित नहीं किया गया है। यह भी विचारणीय है कि अरिहंत प्रभु के निर्वाण कल्याणक पर सम्पूर्ण लोक में अंधकार भी संभव है। किन्तु प्रत्येक कल्याणक के अवसर पर सभी जीव क्षणमात्र के लिए सुख का अनुभव करते हैं। यहाँ तक की सभी सातों नरकों में भी उद्योत/ प्रकाश होता है, जिसमें सभी नारकी सुख का अनुभव करते हैं। सात नरकों में प्रकाश कैसा होता है ? इसका उत्तर देते हुए ज्ञानी भगवन्त फरमाते हैं कि 1. प्रथम घम्मा (रत्नप्रभा) नरक में तेजस्वी सूर्य जैसा। 2. द्वितीय वंशा (शर्कराप्रभा) नरक में मेघाच्छादित सूर्य जैसा। 3. तृतीय सेला (बालुकाप्रभा) नरक में तेजस्वीचंद्र के समान। 4. चतुर्थ अंजना (पंकप्रभा) नरक में मेघाच्छादित चंद्र के समान। 5. पंचम रिष्टा (धूमप्रभा) नरक में ग्रह के सदृश। 6. षष्ठ मघा (तमःप्रभा) नरक में नक्षत्र के जैसा। 7. सप्तम माघवती (महातमः प्रभा) नरक में तारों के समान होता है। कहा गया है - नारका अपि मोदन्ते, यस्य कल्याणपर्वसु, अर्थात् जहाँ कभी भी सुख और आनन्द की अनुभूति नहीं की जाती, ऐसी नरकों में भी कल्याणकों पर प्रसन्नता की अनुभूति होती है। चूंकि वहाँ तो कभी भी प्रकाश होता ही नहीं है, तो जब कल्याणक पर प्रकाश होता है, वे आश्चर्य और विस्मय से उसे देखकर दुःखों से मुक्ति का अनुभव कर आनन्दित होते हैं। जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं तथा तथ्य का अर्थात् सत्य का विलोपन करते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं ही विश्व-चक्र में भटकते रहते हैं। - सूत्रकृताङ्ग (1/1/2/23)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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