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जिज्ञासा - सिद्धावस्था में तीर्थंकर 'शैलेशी' अवस्था में होते हैं । यहाँ पर 'शैलेशी' का क्या अर्थ है ?
समाधान
शैलेश (शैल + ईश ) यानी पर्वतों का राजा अर्थात् सबसे बड़ा रु पर्वत। इसके भाँति आत्मा की अत्यंत स्थिर अवस्था बनाना शैलेशी अवस्था है। जब तक भी सूक्ष्म मन-वचन-काय योग प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं, तब तक आत्मद्रव्य अस्थिर होता है। निर्वाण होने पर कर्मों से सभी योगों से मुक्त होने पर सभी आत्मप्रदेश हो जाते हैं। यह है शैलेशी अवस्था ।
जिज्ञासा तीर्थंकरों का निर्वाण होने पर चतुर्विध संघ एवं परम्परा का वहन कौन करते हैं ?
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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 88134
समाधान तीर्थंकरों के मोक्षगमन के पश्चात् उनकी परम्परा का वहन उनके प्रधान छद्मस्थ शिष्य करते हैं । केवलज्ञानी शिष्य परम्परा का वहन नहीं कर सकता क्योंकि वह कहेगा, “मैं ऐसा कह रहा हूँ" या "मुझे ज्ञान में ऐसा दिखा है" जबकि छद्मस्थ शिष्य कहेगा कि "हमारे गुरु महावीर ने कहा" या "हमारे शासननायक महावीर ने अपने ज्ञान में ऐसा देखा । " अत तीर्थकर की श्रुतपरम्परा को अविच्छिन्न रूप छद्मस्थ शिष्य ही दे सकते हैं। इसी कारण तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के बाद इन्द्रभूति गौतम (जो उसी रात केवलज्ञानी बने) को उनका पट्टधर नहीं बनाया एवं सुधर्मा स्वामी को ही संघनायक बनाया क्योंकि वे अन्तिम छद्मस्थ गणधर थे ।
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समाधान
जिज्ञासा क्या तीर्थंकर मनोयोग व काययोग का पूर्ण निरोध करते हैं ? सर्वज्ञ होने से वे सर्ववस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण करते हैं अतः चिन्तन व विचार की आवश्यकता नहीं होती तथा मन का उपयोग भी नहीं करते, किन्तु कभी अनुत्तरविमानवासी देव स्वर्ग में स्थित रहकर ही तत्त्व चिंतन की जिज्ञासा होने से प्रभु से प्रश्न पूछते हैं, उस समय उन्हें मनोयोग का उपयोग करना पड़ता है। जिस समय काय योग का निरोध किया जाता है, उस समय संपूर्ण शरीर में व्याप्त आत्मप्रदेश देह के तृतीय भाग को छोड़ 2/3 भाग में व्याप्त रहते हैं व शेष आत्मप्रदेशों से रहित हो जाता है व वे 'व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती' नामक चतुर्थ परम शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं।
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