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________________ तीर्थंकर एवं अन्य आत्माओं में अन्तर तीर्थंकरों ने उपदेश दिया है कि निश्चय नय की दृष्टि से सभी प्राणियों की आत्मा समान है। किन्तु आत्म-भाव, बाह्य विभूतियों की अपेक्षा से तीर्थंकर एवं अन्य आत्माओं में किंचित् मौलिक भेद होता है। स्मरण रहे, यह भेद मात्र केवली-अवस्था तक ही सीमित रहता है क्योंकि एक बार जो कोई आत्मा मोक्ष पद को प्राप्त कर जाती है, तब सिद्धशिला में विराजित अनंत आत्माओं में कोई अन्तर द्रष्टव्य नहीं होता। तीर्थंकर एवं कुलकर - जब कल्पवृक्ष नष्ट हो रहे होते हैं एवं युगलिकों में कलह बढ़ जाते हैं, तब वे सर्वसम्मति से कुलों का विभाजन करके 'कुलकर' बनाते हैं जो न्याय (दण्ड) व्यवस्था का कर्ता होता है। कुलकरों की उत्पत्ति सदैव तृतीय आरे में होती है एवं तीर्थंकर (जो तीर्थ के कर्ता होते हैं) की उत्पत्ति तृतीय व चतुर्थ आरे में होती है क्योंकि अन्तिम कुलकर से ही प्रथम तीर्थंकर उत्पन्न होता है। कुलकर कभी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते क्योंकि उनके काल में कोई चतुर्विध संघ नहीं होता। अतः वे विनय भाव के कारण देवलोक में ही जाते हैं। तीर्थंकर-शासन के अभाव में वे उस भव में मोक्षरूपी आलम्बन पर आरोहित नहीं हो पाते। तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती चक्रवर्ती षट्खंड के अधिपति (स्वामी) होते हैं जबकि तीर्थंकर तो संपूर्ण जगत् के स्वामी होते हैं। शांतिनाथ जी, कुंथुनाथ जी एवं अरनाथ जी इस अवसर्पिणी काल के वो तीर्थंकर हैं जो गृहस्थपने में चक्रवर्ती भी थे। चक्रवर्ती नामकर्म से व्यक्ति चक्ररत्न का धारक बन चक्रवर्ती पद पाता है। ऐसा शाश्वत तथ्य है कि तीर्थंकर सदैव मोक्ष जाते हैं। चक्रवर्ती अगर दीक्षा ग्रहण करे तो मोक्ष अथवा देवलोक में जाता है। अन्यथा वो नरकगामी बनता है। चक्रवर्ती राजा जब तीर्थंकर के शासन में दीक्षा लेकर केवलज्ञानी बनते हैं तो वे भी सामान्य केवली कहे जाते हैं। जो कर्त्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना श्रेयस्कर है। मृत्यु अत्यन्त निर्दय है, पता नहीं, यह कब आ जाए। - बृहत्कल्पभाष्य (4674)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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