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________________ ॐ भूमिका जैन धर्म कर्मप्रधान धर्म है। जीव जैसा कर्म करता है, उसके अनुसार ही वह उसका फल प्राप्त करता है। जब तक आत्मा कर्मों से लिप्त है, तब तक वह इस संसार में जन्म मरण करती रहती है। उत्तराध्ययन फरमाया गया है। सूत्र - रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाइमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाइमरणं वयंति ॥ अर्थात् - राग और द्वेष, कर्म के मूल कारण हैं और कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्ममरण का मूल है और जन्म-मरण दुख स्वरूप हैं। आत्मा राग और द्वेष के बंधनों से मुक्त होकर परमात्म पद की ओर अग्रसर होती है, वह शाश्वत सुख सन्निकट जाती है। सिद्धत्व के पथ की ओर जीव प्रथमतः घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञानी- वीतरागी · बनता है एवं तत्पश्चात् सभी कर्मों का क्षय कर सिद्ध बनता है । केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी का वरण करने वाली विभूतियों का द्विविध वर्गीकरण किया जाता है 1. सामान्य केवली : जिनकी आत्मकल्याण की साधना आध्यात्मिकता की परिपूर्णता को प्राप्त करती है, वे सामान्य केवली कहलाते हैं। उन्हें मुण्डकेवली भी कहा जाता है। जैसे- भरत चक्रवर्ती, अर्जुनमाली, गौतम स्वामी आदि । 2. तीर्थंकर केवली : जिनकी साधना स्व (खुद) एवं पर ( अन्य के ) कल्याण को समर्पित होकर अतिशयवंत जीवन से लोकहित के परम उद्देश्य को परिपूर्ण करती है, उन्हें तीर्थंकर केवली कहते हैं। उन्हें अरिहंत भी कहते हैं । जैसे श्री ऋषभदेव जी, सीमंधर स्वामीजी, महावीर स्वामीजी आदि । ज्ञान या कर्मस्थिति की दृष्टि से दोनों समान हैं लेकिन एक ओर जहाँ सामान्य केवली की भावना केवल स्वयं के या कुटुम्बी जनों के या मनुष्यों के कल्याण की होती है, वहीं दूसरी ओर तीर्थंकर परमात्मा की भावना इस लोक की एक-एक आत्मा के, भले ही जीव नरक का हो या निगोद का हो, उत्थान की होती है। इसी उत्तमोत्तम भावना के बल पर ही वे तीर्थंकर नाम कर्म बाँधते हैं जिससे संचित अनंत पुण्य के कारण ही वे संसार के सर्वाधिक अतिशयप्रधान पुरुष होते हैं। अभी उनका मानव रूप में जन्म भी नहीं हुआ होता है कि उनके पुण्य का सुप्रभाव प्रत्यक्ष हो जाता है। ‘परत्थकरणं’ (परार्थकरण) की सर्वोत्कृष्ट भावना के कारण ही उनका पुण्य प्रताप समूचे लोक में उद्दीप्त होता है। उनका च्यवन, उनका जन्म भी पूरे लोक के लिए 'कल्याणक' होता है। विरक्ति भाव से संसार के सभी भोग-विलासों को त्यागकर वे दीक्षा ग्रहण करते हैं एवं गहन आत्मसाधना कर केवलज्ञान - केवलदर्शन रूपी लक्ष्मी का वरण करते हैं। प्राणिमात्र के लिए अपार असीम करुणा की भावना में रत रहकर ही वे साधुसाध्वी-श्रावक-श्राविका रूपी तीर्थ की संस्थापना कर इस संसार रूपी सागर से तिरने का परम एवं चरम मार्ग प्रदर्शित करते हैं। - हमारे पूर्वाचार्यों ने फरमाया है कि हमारे अनंत जन्मों की अनंत माताओं ने हम पर जितनी ममता बरसाई है, उससे भी कई गुणा अधिक हमपर वात्सल्य और करुणा की अमीवर्षा यदि किसी ने की है, तो वे हैं हमारे तीर्थंकर परमात्मा ।
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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