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________________ च्यवन (गर्भ) कल्याणक तीर्थंकरों का जीव जब देवलोक अथवा नरक का पूर्णरूप से त्याग कर पृथ्वी पर माता की कुक्षि में अवतरित होता है, उसे 'च्यवन' कहते हैं। स्थानांग टीका में 'च्यवन' की व्याख्या करते हुए लिखा है- 'चयणेत्ति च्युति च्यवनम्।' अर्थात् किसी गति से च्युत होना च्यवन है। तीर्थंकर के च्यवन से तात्पर्य है प्रभु का अन्तिम सांसारिक माता के गर्भ में अंतिम अवतरण, अन्तिम गति में अन्तिम सम्बन्धों का प्रतिरूप । इससे न केवल मानव जाति को एक तीर्थकर्ता मिलेगा बल्कि एक भव्यात्मा सूक्ष्म निगोद से बाहर आने की तैयारी करेगी । तीर्थंकर के च्यवन पर क्षण-भर के लिए तीनों - अधो- मध्य - ऊर्ध्वलोक में आनन्द का संचार होता है एवं सर्वत्र एक दिव्य प्रकाश फैल जाता है। इसी अवसर पर तीर्थंकर की माता चौदह महास्वप्नों के दर्शन करती है। तीर्थंकर की माता स्वप्न-दर्शन किस अवस्था में किस प्रकार कब करती है इसका उत्तर देते हुए श्री शास्त्रकार महर्षि लिखते हैं कि व्यक्ति की तीन अवस्थाएँ होती हैं- सुप्त (सोया हुआ) जागृत (जगा हुआ) एवं सुप्तजागृत (अर्धनिद्रित ) । स्वप्नों के दर्शन सुप्त जागृत अथवा अर्धनिद्रित अवस्था में ही होते हैं। स्वप्नदर्शन के पाँच भेद कहे गये हैं 1. 2. 3. 4. 5. याथातथ्य स्वप्न दर्शन स्वप्न में जिस वस्तु स्वरूप का दर्शन हुआ, जागने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभाशुभ फल की पूर्ण प्राप्ति होना । प्रतान स्वप्नदर्शन यथार्थ अयथार्थ फल देने वाले विस्तार वाले स्वप्न देखना । चिन्ता स्वप्न दर्शन - जागृत अवस्था में जिस वस्तु की चिन्ता हो रही हो उसी को स्वप्न में देखना । स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जगने पर उससे विपरीत वस्तु की स्वप्न विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना । विपरीत स्वप्न दर्शन प्राप्ति होना । अव्यक्त स्वप्न दर्शन जिस प्रकार अन्धा मार्गदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है। अतः जो कुछ बोलें- बुद्धि से परख कर बोलें। व्यवहार-भाष्य-पीठिका (76) -
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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