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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 105
यथा1. आचारांग
7. उपासकदशांग 2. सूत्रकृतांग
8. अंतकृतदशांग 3. स्थानांग
9. अनुत्तरोपपातिक 4. समवायांग
10. प्रश्न व्याकरण 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) 11. विपाक श्रुत 6. ज्ञाताधर्मकथांग
12. दृष्टिवाद
(हेतुवाद-भूतवाद, धर्मवाद इत्यादि) दृष्टिवाद समस्त ज्ञान का स्थान है किन्तु सभी सामान्य बुद्धि बाले इसे पढ़-समझ नहीं सकते। इसी हेतु से गणधर अन्य 11 अंगों की भी रचना अर्धमागधी भाषा में ही करते हैं। अन्य मत से द्वादशांगी की रचना ही होती है एवं 14 पूर्व दृष्टिवाद में समा ही जाते हैं।
गणधर स्वयं 4 ज्ञान एवं 14 पूर्वो के धारक होते हैं। श्रुत निधि उन्हीं से चलती आई है क्योंकि तीर्थंकर कभी अपनी ही वाणी का संकलन नहीं करते। ये काम उनके प्रधान शिष्य (गणधर) ही करते हैं। गणधरों की देशना
दिवस के प्रथम एवं तृतीय प्रहर में तीर्थंकर भगवन्त देशना देते हैं। गणधर भगवन्त दिन के द्वितीय पहर में धर्मोपदेश देते हैं। कई व्यक्ति यह प्रश्न करते हैं कि तीर्थ की रचना तीर्थंकर करते हैं जिनकी दिव्य वाणी होती है, फिर गणधर जी धर्मदेशना क्यों देते हैं ? इसके उत्तर में निवेदन है कि निम्नलिखित कारणों से गणधर देशना देते हैं1. . एक शिष्य होने के नाते, तीर्थंकर परमात्मा को विश्राम देना एवं शिष्यों की योग्यता को
और अधिक निखारना। 2. श्रोताओं को विश्वास दिलाना कि वे भी तीर्थंकर सदृश उपदेश देते हैं एवं गुरु-शिष्य-वचनों
में परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है ताकि आगामी काल में कोई विरोध न हो। 3. तीर्थंकरों द्वारा कथित त्रिपदी को ज्ञान रूप में गूंथी हुई अपने गण व श्रोताओं को वाचना
देना।
जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग और मरण दु:ख हैं। अहो ! संसार दुःखरूप ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं।
- उत्तराध्ययन (18/16)