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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 106 तीर्थंकर परमात्मा से मोहवश उनके बारे में बताना, उनके दिव्य प्रभाव, अतुल बल, कल्याणकारी उद्देश्य के बारे में बताना। “मेरे गुरु कैसे हैं ! मेरे गुरु कितने गुणविशाल गुणगंभीर हैं!" इस बारे में श्रोताओं को परिचित कराना। इस प्रकार तीर्थंकर के केवलज्ञान कल्याणक के पश्चात् ही तीर्थंकर गणधर एवं अन्य श्रमणश्रमणी समुदाय कर्मनिर्जरा हेतु विचरण करते हैं। तीर्थंकर महावीर की अभाविता परिषद् चारित्र धर्म के अयोग्य परिषद् (सभा) को अभाविता (अभव्या) परिषद् कहते हैं। तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान होने पर वे जो सर्व प्रथम धर्मदेशना देते हैं, उसमें कोई न कोई व्यक्ति चारित्र अवश्य ग्रहण करता है यानी दीक्षा लेते हैं किन्तु भगवान महावीर स्वामी के विषय में ऐसा नहीं हुआ। यह एक शाश्वत नियम है कि जिस स्थान पर केवलज्ञान की उपलब्धि होती है, वहाँ पर तीर्थंकर एक मुहूर्त तक ठहरते हैं और तत्पश्चात् धर्मदेशना भी देते हैं। मुंभक ग्राम के बाहर जब भगवान महावीर स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब वहाँ समवसरण की रचना हुई। अनेक देवीदेवता भगवान का धर्मोपदेश सुनने समवसरण में एकत्र हुए। पर देवता, सर्वविरति के योग्य न होने से प्रभु ने एक क्षण ही उपदेश दिया। वहाँ पर मनुष्य की उपस्थिति नहीं थी, अत: किसी ने भी विरतिरूप चारित्रधर्म स्वीकार नहीं किया। ऐसी बात किसी भी तीर्थंकर भगवान के समय में नहीं हुई थी। अनंत काल में यही एक घटना हुई थी कि तीर्थंकर परमात्मा की वाणी निष्फल-निष्प्रभावी गई। अतः स्थानांग सूत्र, प्रवचन सारोद्धार आवश्यक नियुक्ति में इसे 'आश्चर्य' (अच्छेरा) की संज्ञा से अभिहित किया है। यूँ तो तीर्थंकर रात्रिकाल में विहार नहीं करते। किन्तु तीर्थंकर महावीर ने उस दिन किया। केवलज्ञान कल्याणक के कारण रात्रि में भी उद्योत था तथा अपवाद मार्ग से वे मध्यम पावा के महसेन उद्यान में पहँचे जहाँ अगले दिन तीर्थ की स्थापना हई। तीर्थंकर ने साधु के आचार में रात्रि में विहार का निषेध किया है। तर्क करके स्वयं की तुलना तीर्थंकर से करना मिथ्यात्वसूचक है। यहाँ उल्लेखनीय है कि तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान के बाद भिक्षा (आहार) हेतु घर-घर घूमते नहीं हैं। यह उनका पुण्य होता है। व्यवहार भाष्य में लिखा है कि तीर्थंकरों को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर उनके उपपात में देवेन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा, कोतवाल आदि व्यक्ति प्रश्न पूछने आदि कार्यों संघ भयभीत मनुष्यों के लिए आश्वासन, निश्छल व्यवहार के कारण विश्वासभूत, सर्वत्र समता के कारण शीतगृह समान, अविसमदर्शी होने के कारण माता-पिता तुल्य तथा सबके लिए शरणभूत होता है। - व्यवहारभाष्य (326)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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