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________________ 3. तीर्थकर : एक अनुशीलन ® 104 धुवेइ वा (ध्रौव्य) - “ध्रुवे स्थैर्ये कर्मणि ध्रुवतीति ध्रौव्य।" द्रव्य व संसार की स्थिति निश्चल है अर्थात् उत्पाद और व्यय स्वभाव की स्थिति में भी पदार्थ का अपने मूल गुण, धर्म और स्वभाव में बने रहना, उस द्रव्य का ध्रौव्य (ध्रुवत्व) स्वभाव कहलाता है। जैसे उपर्युक्त दोनों परिस्थितियों में स्वर्ण द्रव्य की विद्यमानता उस स्वर्ण का ध्रौव्य स्वभाव है। इस त्रिपदी के रूप में वासक्षेप के प्रभाव से समस्त विश्व के त्रिकालवर्ती संपूर्ण ज्ञान की कुंजी प्राप्त कर गणधर भगवन्तों का श्रुतज्ञानावरणीय कर्म उसी समय विशिष्ट क्षयोपशम वाला होता है और वे समग्र श्रुतज्ञानसागर के विशिष्ट वेत्ता बन जाते हैं, सर्वप्रथम वे 14 पूर्वो की रचना करते | 10 R नाम विषय पद संख्या : वस्तु 1. उत्पाद पूर्व सभी द्रव्यों पर्यायों की उत्पाद प्ररूपणा एक करोड़ 2. अग्रायणी पूर्व सभी द्रव्य-पर्याय-जीव के परिमाण छियानवे लाख 14 3. वीर्य प्रवाद पूर्व सभी जीवाजीव के वीर्य का वर्णन सत्तर लाख 4. अस्तिनास्ति प्रवाद धर्मास्तिकाय आदि विद्यमान और आकाश साठ लाख आदि अविद्यमान का वर्णन 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व 5 ज्ञानों का विस्तृत विवेचन 1 कम 1 करोड़ | 12 6. सत्यप्रवाद पूर्व सत्य-संयम-वचन का विस्तृत वर्णन 6 अधिक 1 करोड़ 7. आत्मप्रवाद पूर्व अनेक नय की अपेक्षा आत्मा का प्रतिपादन 26 करोड़ 8. कर्मप्रवाद पूर्व अष्ट-कर्मों का विस्तृत निरूपण 1 करोड़ 80 हजार | 9. प्रत्याख्यान प्रवाद प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन 84 लाख 10. विद्यानुवाद पूर्व अतिशयकारी चमत्कारी विद्या व सिद्धियाँ 1 करोड़ 10 लाख 11. कल्याणवाद पूर्व | शुभ-अशुभ कार्यों का वर्णन 26 करोड़ ___ (अवंध्य पूर्व) 12. प्राणायु प्रवाद । | 10 प्राण और आयु का विस्तारपूर्वक कथन |1 करोड़ 56 लाख | 13 13. क्रिया विशालपूर्व | कायिकी, छंदादि क्रियाओं का निरूपण | 9 करोड़ | 30 14. लोक बिन्दुसार । लोक में शास्त्र बिन्दु रूप श्रेष्ठ ज्ञान 127 करोड़ इनकी रचना अन्य सूत्रों से पूर्व हुई, इसीलिए इन्हें पूर्व कहा जाता है। पूर्वो के अध्यायों को वस्तु कहते हैं। पूर्वो की रचना के बाद गणधर अंग आगम रचते हैं। इनकी संख्या बारह है। देवता भी तीन बातों की इच्छा करते रहते हैं- मनुष्य जीवन, आर्य क्षेत्र में जन्म और श्रेष्ठ कुल की प्राप्ति। - स्थानांग (3/3)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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