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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 8 15 ही कहता है जितना वह देख सकता है। किन्तु जैन भूगोल के अन्य क्षेत्रों तक पहुँचना परम दुष्कर है। अत: विज्ञान विशेष नहीं, अधूरा एवं भ्रामक ज्ञान है। वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखने पर लोकों की रचना के रूप में भूगोल का कथन व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति व अवनति का प्रदर्शन करता है। जैन भूगोल के अनुसार इस लोक में अनंत द्वीप हैं किन्तु मनुष्यों का जन्म-मरण केवल ढाई द्वीपों में होता है- जंबूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप, अर्ध-पुष्कर द्वीप। प्रत्येक द्वीप में कई क्षेत्र हैंभरत क्षेत्र, उत्तर कुरु, देवकुरु, ऐरावत क्षेत्र, हरिवर्ष, रम्यक्वर्ष, महाविदेह क्षेत्र इत्यादि। इन क्षेत्रों में कई क्षेत्र कर्मभूमि के अन्तर्गत आते हैं व अनेक अकर्मभूमियों के। . यह प्राकृतिक नियम है कि तीर्थंकरों का समागम केवल कर्मभूमियों में होता है। अढाई द्वीप में कर्मभूमियों की संख्या 15 है, जहाँ तीर्थंकरों की विद्यमानता होती है। निम्न कोष्ठक से 15 कर्मभूमियों का ज्ञान होता है। क्षेत्र जम्बूद्वीप धातकीखण्ड | अर्ध-पुष्करद्वीप | कुल भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्र महाविदेह क्षेत्र कुल कुल 15 कर्मभूमियाँ एवं 30 अकर्मभूमियाँ हैं। हम अभी जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में निवास करते हैं, जो जंबूद्वीप का 190 वाँ भाग है एवं जहाँ ऋषभ, अजित आदि तीर्थंकर उत्पन्न हुए। ऐसी ही 14 दुनियाएँ और हैं, जहाँ तीर्थंकर हुए हैं, या होंगे। क्षेत्रों के नाम शाश्वत हैं व अन्य द्वीप में इसी नाम के क्षेत्र हैं। महाविदेह क्षेत्र का विवरण करते हुए शास्त्रकार भगवन्त लिखते हैं कि एक महाविदेह में भद्रशाल वन में सीता-सीतोदा नदी एवं वक्षारगिरि पर्वत के कारण 32 क्षेत्र हैं, जिन्हें 'विजय' कहते हैं। पाँच महाविदेह के 32 x 5 = 160 क्षेत्र हैं। इस संख्या में 5 ऐरावत क्षेत्र एवं 5 भरत क्षेत्र जोड़ने से कुल संख्या 170 हुई। अतः अढ़ाई द्वीप की पंद्रह कर्मभूमियों के एक सौ सत्तर क्षेत्रों में ही तीर्थंकर परमात्माओं का जन्म, विचरण, समागम होता है, अन्य क्षेत्रों में नहीं। तीर्थंकरों की आत्माएँ इन्हीं क्षेत्रों में जन्म लेती हैं, ऐसा अटल नियम है। जिसे जितना लाभ प्राप्त हुआ है, उसी में संतुष्ट रहने वाला और दूसरों के लाभ की इच्छा नहीं रखने वाला, व्यक्ति सूखपूर्वक सोता है। - स्थानांग (4/3)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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