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________________ 2. 3. 4. तीर्थंकर : एक अनुशीलन 123 प्रकार तीर्थंकर परमात्मा संसार रूपी वन में भव्यात्माओं को धर्मरूपी भोजन करवाते हैं, वास्तविक शाश्वत सुख का मार्ग बताकर जन्म-मरणादि के त्रास (भय) से बचाने वाले हैं, स्वस्ति (कल्याण) के शिवपुर तक पहुँचाते हैं और मिथ्यात्व आदि शत्रुओं से संरक्षण करते हैं। इस आशय से तीर्थंकर भगवान उत्तमोत्तम गोप महागोप हैं। महामाहण मा हण अर्थात् मत मारो। किसी भी जीव को प्राणों से रहित न करो, ऐसा उद्घोष तीर्थंकर ही करते हैं। सभी जीवों को प्राण प्रिय हैं, अतः किसी भी जीव की हिंसा मत करो ऐसा उपदेश देने वाले तीर्थंकर परमात्मा महामाहण है। - माह का एक अर्थ साधु भी होता है। तीर्थंकर तो त्रिलोकपूज्य सर्वश्रेष्ठ श्रमण - माहण होते हैं। इस परिप्रेक्ष्य से भी तीर्थंकरों को महा-माहण की उपमा दी गई है। महानिर्यामक - निर्यामक अर्थात् सुकानी (कप्तान) सम्पूर्ण जगत् में महान् कप्तान (सुकानी) महानिर्यामक। जिस प्रकार सामुद्रिक कप्तान समुद्र से जहाज में सफर करने वाले बन्धुओं को सुखपूर्वक इच्छित स्थान पर भी पहुँचाता है, उसी प्रकार परमात्मा स्व-पर कल्याण की भावना भाते हैं। संसार रूपी समुद्र से पार होने के इच्छुक बन्धु जब धर्मरूपी नौका में स्थान ले लेते हैं, तब उन साधकों को विषय-विकार आदि महामच्छों के विघ्नों से बचाकर तीर्थंकर उन्हें निर्विघ्नता पूर्वक मोक्षनगर में पहुँचाने का परम सामर्थ्य रखते हैं। इसीलिए श्रेष्ठ निर्यामक अर्थात् महानिर्यामक की उपमा से उपमित हैं। महासार्थवाह अत्यन्त भयजनक अरण्य से होकर किसी नगर की ओर जाते समय लोगों का पूर्ण संरक्षण सार्थवाह करता है। उसी प्रकार संसार व भवचक्र रूपी वन में राग-द्वेषरूपी लुटेरों के आक्रमण से तीर्थंकर परमात्मा भव्यात्माओं की पूर्ण रक्षा, पूर्ण संरक्षण करते हैं। वे उन्हें भव- बोधि का ज्ञान देते हैं एवं संसारवन पार करने का तितिक्षा मंत्र देते हैं जिसे मानने वाली भव्यात्मा शिवपुरी के रथ पर सवार हो जाती है। अतएव तीर्थंकर को उत्तमोत्तम श्रेष्ठ सार्थवाह महासार्थवाह की उपमा से अभिहित किया है। तीर्थंकर परमात्मा की विशिष्टता का संकेत करते हुए कहा है कि अगणित अनगिनत सूर्यो की रक्ताभ रश्मियों से अधिक सौम्यता जिनके मुखमंडल को देदीप्यमान बनाती है, जिनके नयनों रूपी गंगा के स्रोतों से स्नेह एवं मैत्री का निर्झर प्रवाहित होता है, जिनकी वाणी का प्रत्येक शब्द लौह चुम्बक सदृश बहिरात्म भाव को अन्तरात्म भाव की ओर खींचता है, ऐसे त्रिलोकज्ञ - त्रिकालज्ञ परम मुक्ति के परामर्शदाता के गुणों का लेखन जीवन पर्यन्त अविराम किया जाय तो भी प्रभु गुणरत्न पूर्ण नहीं होंगे। ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं है। - व्यवहार भाष्य (7/217)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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