________________
'तीर्थंकर' शब्द : एक विश्लेषण
तीर्थंकरों की आत्माओं को जैन धर्म में सर्वोपरि सर्वोत्कृष्ट माना गया है। तीर्थंकर भगवन्त को सर्वाधिक आदर एवं श्रद्धा की दृष्टि से निहारा जाता है। जैन परम्परा में तीर्थंकरों के जीवन का परम उद्देश्य है, स्वयं मोक्ष रूपी सत्य का साक्षात्कार करना, उसका वरण करना एवं लोककल्याण के लिए इस सम्यक् मार्ग का प्रवर्तन करना ।
तीर्थंकर जैन धर्मसंघ के पिता हैं। जैन साहित्य में अत्यंत विस्तृत रूप से तीर्थंकरों की महत्ता एवं उनकी गुणविशालता उल्लिखित है । शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) एवं चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स) आदि सूत्रों में तीर्थंकर परमात्मा को चन्द्रमा से अधिक शीतल, सूर्य से अधिक प्रकाशमान, धर्मर्थ के संस्थापक धर्मोपदेशक, धर्म रथ के सारथी इत्यादि विशेषणों से विभूषित करके गुणों पर चिन्तन किया गया है।
-
'तीर्थंकर' शब्द की ऐतिहासिकता
'तीर्थंकर' शब्द जैन वाङ्मय का सर्वप्रमुख पारिभाषिक शब्द है । आगमों व ग्रन्थों में 'तीर्थंकर' शब्द की प्रधानता स्वयमेव दृष्टिगोचर होती है। स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, भगवती सूत्र आदि में 'तित्थयर' (तीर्थंकर) शब्द पाया जाता है। अन्य प्राचीन आगमों में अर्हत्, जिन, अरहंत इत्यादि शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में तीर्थंकर, जिन, अरिहंत आदि शब्द समानार्थी के रूप में प्रयुक्त होते थे । अन्य आगमों एवं परवर्ती साहित्य में तीर्थंकर शब्द का प्रचुर उपयोग हुआ है।
जैन धर्म में यह शब्द कब, किस समय से एवं किस कारण से प्रचलन में आया, यह कहना अत्यधिक कठिन है, क्योंकि वर्तमान कालीन उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री में इसका कोई आदिसूत्र नहीं ढूंढा जा सकता। निःशंकित रूप से तीर्थंकर शब्द प्रागैतिहासिक काल से ही प्रचलित है। वैसे वेदों में तीर्थंकर ऋषभदेव को 'अर्हत्' कहा गया है। अर्थात् तीर्थंकरों के लिए पहले अर्हत्, 'जिन' शब्द का प्रयोग अधिक होता था एवं तीर्थंकर शब्द का प्रचार- प्रसारर - विस्तार शनै: शनै हुआ होगा ।
अरिहन्त (अर्हत् ) मंगल हैं। सिद्ध मंगल हैं। साधु मंगल हैं। केवलि-प्रणीत धर्म मंगल है।
आवश्यक सूत्र (4/1)
-