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तीर्थंकर : एक अनुशीलन @ 51 तीर्थकर अभिनन्दन - अभिणंदई अभिक्खं सवको अभिणंदनो तेण॥ तीर्थंकर प्रभु के गर्भ में आने के पश्चात् इन्द्रादिक देव (शक्रेन्द्र इत्यादि) माता सिद्धार्था को बारम्बार अभिनन्दन देते थे। अतः उनका नाम ‘अभिनन्दन' रखा गया। तीर्थंकर सुमति - जणणी सव्वत्थ विणिच्छएसु सुमइत्ति तेण सुमइ॥ एक बालक को दो माताएँ अपना बालक कहने लगीं। इसका निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। प्रभु के गर्भ में आने के बाद प्रभु की माता मंगला ने दोनों माताओं के षण्मासिक कलह का कुशलता से उपशमन किया। गर्भ के प्रभाव से माता ने प्रत्येक व्यवहार में सुमति (श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता) का परिचय दिया, अत: बालक का नाम सुमति रखा। तीर्थंकर पद्मप्रभ - पउमसयणंमि जणणीइ डोहलो तेण पउमाभो॥ गर्भ के प्रभाव से माता को पद्मों की शय्या में शयन करने का मन किया अर्थात् दोहद उत्पन्न हुआ। जन्म पश्चात् प्रभु के देह का वर्ण (रंग) भी पद्मों के समान था। अत उन्हें 'पद्मप्रभ' नाम प्रदान किया। तीर्थंकर सुपार्श्व - गब्भगए जं जणणी जाय सुपासा तओ सुपासजिणो॥ पहले माता पृथ्वी के पार्श्व (कंधे/तरफ) विषम असुन्दर थे, किन्तु प्रभु के गर्भस्थ होने से वे पार्श्वभाग सुन्दर हो गए। अतः प्रभु का नाम “सुपार्श्व' रखा। किसी ग्रन्थ में ऐसा भी वैविध्य है कि प्रभु के पिता के कुष्ठरोगमय दोनों स्कंध (पार्श्व) माता का हाथ फेरने मात्र से ठीक हो गए। इसीलिए प्रभु को सुपार्श्व पुकारा। तीर्थंकर चन्द्रप्रभ - जणणी चंदपियणंमि डोहलो तेण चन्दाभो। गर्भ के प्रभाव से प्रभु की माता लक्ष्मणा को चांद पीने का (चंद्रपान करने का) दोहद उत्पन्न हुआ था, जिसे मंत्री ने युक्तिपूर्वक पूर्ण किया। जन्म पश्चात् तीर्थंकर प्रभु की चंद्र जैसी प्रभा (आभा) थी। इन्हीं कारणों से नामकरण के समय उन्हें 'चन्द्रप्रभ' नाम की अभिधा से अभिहित किया गया। तीर्थंकर सुविधि - सव्वविहीसु अ कुसला गब्भगए तेण होइ सुविहि जिणो॥ नौवें तीर्थंकर के गर्भ में आने से उनकी जननी ने सब विधि-विधानों में कुशलता अर्जित की एवं उल्लासपूर्वक विधिवत् धर्माराधना की। अतः शिशु का नाम 'सुविधि' रखा। साथ ही, मचकुंद के पुष्प की तरह प्रभु के दाँतों की पंक्ति होने से प्रभु का दूसरा नाम पुष्पदन्त रखा गया। 'चतुर्विशतिस्तव'
(लोगस्स) में “सुविहिं च पुफ्फदंत' कहकर दोनों नामों का परिज्ञान कराया गया है। 10. तीर्थंकर शीतल - पिउणो दाहोवसमो गब्भगए सीयलो तेणं॥ पिता दृढरथ की पित्त-दाहजन्य
पीडा औषधि से शांत नहीं हुई पर गर्भवती माता नन्दा के स्पर्शमात्र से पित्तदाह का शमन जो मनुष्य सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु का स्वयं भी परिग्रह करता है और दूसरों को भी उन वस्तुओं पर स्वामित्व स्थापित करने की सलाह देता है, वह कभी दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता।
- सूत्रकृताङ्ग (1/1/1/2)