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जन्म कल्याणक
गर्भ काल (गर्भ समय) की समाप्ति पर तीर्थंकर प्रभु शिशु रूप में जन्म ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर की आत्मा का संसार में यह अन्तिम जन्म होता है। तीर्थंकर का जन्म होते ही तीनों लोकों में क्षण भर के लिए अपूर्व शान्ति छा जाती है एवं सभी जीव परिताप से मुक्ति का अनुभव करते हैं। प्रभु के अतिशय से नारकी जीवों को भी मुहूर्त मात्र साता होती है, तथा स्थावर जीवों का भी विशेष छेदन भेदन नहीं होता, इसलिए सभी जीव सुख एवं कल्याण को प्राप्त होते हैं। संपूर्ण पृथ्वी उल्लासमयी होती है। इसलिए इसे 'जन्म कल्याणक' की संज्ञा दी गई है।
छप्पन दिक्कुमारी कृत जन्मोत्सव
तीर्थंकरों का जन्म होते ही सर्वप्रथम 56 दिक्कुमारियों के आसन चलायमान होते हैं। ये देवियाँ भवनपति निकाय की देवियाँ होती हैं, जो विविध जगहों पर निवास करती हैं। इन देवियों का यही आचार है कि तीर्थंकर का जन्म होने से पूर्व इनका आसन कम्पायमान होने लगता है एवं प्रभु का पहला जन्मोत्सव ये करती हैं। इसके बाद अन्य इन्द्रादिक देव अपना महोत्सव करते हैं ।
भोगवती
1. भोगंकरा
2.
4. भोगमालिनी
5.
7. पुष्पमाला
8.
प्रथम अधोलोक में गजदन्ताकार पर्वत के नीचे निवास करने वाली ये दिशा - कुमारी देवियाँ प्रभु को और प्रभु की माता को नमस्कार करके ईशान कोण में एक सूतिकागृह (जापा - घर) की रचना करती है एवं 'एक योजन प्रमाण पृथ्वी को संवर्तक वायु (गोल पवन) के द्वारा शुद्ध अर्थात् कांटे कंकर रहित तथा सुगंधित बना देती हैं। यह विकुर्वित सूतिकाघर पूर्व दिशाभिमुख होता है।
9. मेघंकरा
12. मेघमालिनी 15. वारिषेणा
सुवत्सा
अनिन्दिता
10. मेघवती
13. तोयधरा
16. बलाहिका
3. भोग 6. वत्समित्रा
11. सुमेघा
14. विचित्रा
आवश्यकता से अधिक और अनुपयोगी वस्तु क्लेशप्रद एवं दोष रूप हो जाती है।
• ओघनियुक्ति (741)