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________________ तीर्थंकर : एक अनुशीलन 47 249 अभिषेक हो जाने के बाद ईशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र से कहता है कि क्षण भर के लिए प्रभु जी को मुझे दो। उस समय ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर सौधर्मेन्द्र चार धवल बैलों (चतुर्वृषभ) का रूप बनाकर 8 सींगों से क्षीरसमुद्र के जल की धारा से 250 वाँ अभिषेक करता है। ऋद्धियाँ होते हुए भी सौधर्मेन्द्र स्वयं को तीर्थंकर के आगे पशु तुल्य बताता है। फिर गंधकाषाय्य वस्त्र से भगवान के अंग पौंछ कर फूल चंदन से विलेपन कर, अक्षत, दीप, धूप, जल, नैवेद्य से विविध प्रकारी पूजा की जाती है। यह करके तीर्थंकर के सम्मुख श्रीवत्स, मत्स्य युगल, दर्पण, कुंभ, स्वस्तिक, नन्दावर्त, भद्रासन और संपुट ये अष्टमंगल रौप्य के अक्षत से आलेखित करते हैं। फिर आरती, गीतगान और नृत्य कर के बाजे बजाते हैं। ढोल, मृदंग, संतूर, गोलथम, तुमक, शुषिर इत्यादि वाद्य बजाते हुए जय-जयकार करते हुए 108 काव्यों की रचना कर भावपूजा करते हैं। इसके बाद शिशु को ले जाकर वापिस माता के पास रख देते हैं । प्रतिबिम्ब हटाकर माता को अवस्वापिनी निद्रा से दूर करते हैं। ताकि माता को दिक्कुमारिकाओं तथा इन्द्रों की स्मृति न रहे । तत्पश्चात् 32 करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वर्षा कर पाँच इन्द्राणियों को धाय-माताओं के रूप में स्थापित करते हैं। हर्ष के अतिरेक में वे सभी इन्द्र नंदीश्वर द्वीप में जाकर अट्ठाई महोत्सव कर अपने- अपने स्थान पर चले जाते हैं। सौधर्मेन्द्र भक्तिवश प्रभु के अंगूठे में अमृत का संचार करता है। पिता द्वारा राज्य - जन्मोत्सव तीर्थंकर के पिता तीर्थंकर के जन्म की सूचना सुनते ही अत्यंत सुख एवं हर्ष से प्रमु प्रफुल्लित होते हैं । उस समय उनके आसपास जितने भी दास, दासियाँ, सैनिक, राज्य कर्मचारी होते हैं, वे पुत्रजन्म की खुशी में बहुत सारी स्वर्णमुद्राएँ पाते हैं। राजा की आज्ञा से पूरे शहर, नगर में उत्सव की तैयारियाँ की जाती हैं। राजा हर्ष से सर्वप्रथम जो आदेश देता है, उनमें से कुछ प्रमुख आज्ञाएँ इस प्रकार होती है । 1. राज्य के बन्दियों की सजा माफ की जाती है एवं उन्हें कारागार से मुक्त किया जाता है । राज्याधीन सभी नगरों की प्रत्येक गली में से कचरा काँटा इत्यादि निकालकर उन्हें साफस्वच्छ करवाया जाता है। राजमार्ग के सभी रास्तों पर पुष्प सजाकर वे सुगंधित जल से पवित्र व सुगंधित बनाए जाते हैं। 2. 3. विनय जिनशासन का मूलाधार है, विनयसम्पन्न व्यक्ति ही संयमी हो सकता है। जो विनय से हीन है, उसका क्या धर्म और क्या तप? विशेषावश्यक भाष्य (3468)
SR No.002463
Book TitleTirthankar Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
PublisherPurnapragnashreeji, Himanshu Jain
Publication Year2016
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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