________________
तीर्थंकर : एक अनुशीलन 22 जिन प्राकृतिक नियमों की बात की जा रही है, उनका सम्बन्ध काल से है। हरेक उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का होता है। इसीलिए तीर्थंकरों की संख्या 24 होने का ही अवकाश है। यहाँ काल-व्यवहार होने से सभी महानक्षत्र केवल 24 बार ही उच्च स्थानों में होते हैं, अतः 24 तीर्थंकरों का ही जन्म होता है। अतएव तीर्थंकरों की संख्या यहाँ चौबीस ही होती है। श्री कल्पसूत्र किरणावली टीका में लिखा है -
तिहिं उच्चेहिं नरिंदो, पंचहिं तह होई अद्धचक्की आ'
छहिं होइ चक्कवट्टी, सत्तहिं तित्थंकरो होइ ॥ अर्थात् सुखी बनना, नेता बनना, धनी बनना इत्यादि उच्च ग्रहों का फल है। तीन ग्रह उच्च होने पर जीव राजा/शासक बनता है। पाँच ग्रह उच्च होने पर जीव अर्द्धचक्रवर्ती यानी 3 खण्डों का अधिपति बनता है। छह ग्रह उच्च होने पर जीव चक्रवर्ती यानी 6 खण्डों का अधिपति बनता है और सात ग्रह उच्च होने पर जीव तीर्थंकर बनता है। ऐसा विरल संयोग एक काल में मात्र 24 बार ही आता है।
परन्तु अनायास ही यह शंका उत्पन्न हो जाती है कि वर्तमान काल में चतुर्विध संघ (तीर्थ) की सर्वप्रथम स्थापना तो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने ही की है तो केवल उन्हें ही तीर्थंकर कहा जाए किन्तु उनके पश्चाद्वर्ती 23 जिन-आत्माओं को तीर्थंकर क्यों कहें ?
कुछ विद्वद्जन यह भी कहते हैं कि धर्म की व्यवस्था जैसी एक तीर्थंकर करते हैं, वैसी ही दूसरे तीर्थंकर भी करते हैं। अतः एक ऋषभदेव को ही तीर्थंकर मानना चाहिए, अन्य को नहीं।
निश्चित ही यह समस्या तार्किक है, परन्तु ज्ञानीजन इसका भी समाधान देते हैं। यह सर्वविदित है कि तीर्थंकरों द्वारा निरूपित धर्म के मूलतत्त्वों में किञ्चित्मात्र का भी मतभेद मनभेद नहीं रहा है। भगवान महावीर भी बार-बार यही कहते थे कि जिस प्रकार पार्श्व जिन ने कहा है, मैं भी वैसा ही कहता हूँ।
किन्तु प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने समय में देश, काल, जनमानस की ऋजुता, तत्कालीन मानव की बुद्धि, शक्ति, सहिष्णुता आदि को ध्यान में रखकर व साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के अनुरूप एक नवीन आचार संहिता का निर्माण करते हैं। एक तीर्थंकर द्वारा संस्थापित तीर्थ में काल प्रभाव से विविध विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, लम्बे व्यवधान में अथवा अन्य कारणों से श्रुतपरम्परा
धर्म तथा अधर्म से सर्वथा अनजान जो मनुष्य केवल कल्पित तकों के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म-बंधन को तोड़ नहीं सकते, जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है।
- सूत्रकृताश (1/1/2/22)