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तीर्थंकर : एक अनुशीलन 0 60 से जीवन व्यतीत करते हैं। वैराग्य पाकर कठोर तपस्या एवं अतिदुष्कर साधना करते हैं एवं द्रव्यतीर्थंकर से भाव-तीर्थंकर बनते हैं।
इस प्रकार जातिवाद का समर्थन किए बिना जैनधर्म तीर्थंकरों का जन्म क्षत्रिय कुल में मानता है, जो युक्तिसंगत एवं तार्किक-तर्कपूर्ण है, एवं जिज्ञासा को शांत करने में सक्षम है।
प्रथम तीर्थंकर युगादिदेव श्री ऋषभदेव परमात्मा इस युग के प्रथम राजा थे। उन्होंने मानवजाति को जीने का ढंग सिखाया। उन्होंने पुरुषों की 72 कलाओं का प्रतिपादन किया -
1. लेहं – लेख लिखने की कला। 2. गणियं – गणित। 3. रूवं - रूप सजाने की कला। 4. नटं – नाट्य करने की कला। 5. गीयं – गीत गाने की कला। 6. वाइयं - वाद्य बजाने की कला। 7. सरगयं - स्वर जाने की कला। 8. पुक्खरयं - ढोल आदि वाद्य बजाने की कला। 9. समतालं – ताल देना। 10. जूयं - जूआ खेलने की कला। 11. जणवायं - वार्तालाप की कला। 12. पोक्खच्चं – नगर के संरक्षण की कला। 13. अट्ठावयं - पासा खेलने की कला। 14. दगमट्टियं – पानी और मिट्टी के संमिश्रण से वस्तु बनाने की कला। 15. अन्नविहिं – अन्न उत्पन्न करने की कला। 16. पाणविहिं – पानी उत्पन्न करना और उसे शुद्ध करने की कला। 17. वत्थविहिं - वस्त्र बनाने की कला। 18. सयणविहिं - शय्या निर्माण करने की कला। .. 19. अज्जं - संस्कृत भाषा में कविता निर्माण की कला। 20. पहेलियं – प्रहेलिका निर्माण की कला। 21. मागहियं – छन्द विशेष बनाने की कला। 22. गाहं – प्राकृत भाषा में गाथा निर्माण की कला। 23. सिलोग - श्लोक बनाने की कला। 24. गंध - जुत्तं सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला। 25. मधुसित्थं - मधुरादि छह रस बनाने की कला।