Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Shailesh Dahyabhai Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 श्रीपाल चरित्र ___ श्री नंदीश्वरव्रत (महात्म्य) ___ स्व० कवि परिमल्लकृत पद्य ग्रन्थ परसे अनुवादक : स्व. धर्मरत्न पं. दीपचन्द्रजी वर्णी (नरसिंहपुर) प्रकाशक : शैलेशभाई डासामाई कापड़िया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, गांधोचौक, सूरत-३ नवमो आवृत्ति ] वीर सं. २५२१ । प्रति १५०० "जनविजय" प्रिन्टींग प्रेस. सूरसमें शैलेश डाहामाई कापड़ियाने मुद्रित किया । मूल्य २०-७० :::::: : ::: Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषय सूची * १. मंगलाचरण स्तुति २. वर्तमान चौयोस जिन स्तुति ३. ग्रन्थ रचनाका कारण । ४, अंगदेश चंपापुरका नर्गन ५. श्रीपालके गर्भका वर्णन ६. श्रीपालके जन्मका वर्णन ७. श्रीपालका राजतिलक और राजा अरिदमनका स्वर्गवास . राजा श्रीपालको कुष्ट व्याधिका होना ... ९. काका वोरदमनको राज्यपाट देकर श्रीपालका वनवास जाना १०. मैनासन्दरोका वर्णन ११. श्रीपालका मैनासुन्दरोसे विवाह १२. भोपालका कुष्ट रोग दूर होना १३. नोपालको माताका श्रोपालसे मिलना १४. उज्जैनीसे श्रीपालका गमन १५. श्रीपालको जलतारिणी व शत्रुनिवारणी विद्याकी प्राप्ति १६. धवलसेठका वर्णन १७. श्रोपाल द्वारा धवलसेठको चोरोंसे छुडाना १८. श्रीपालको डाकुओंकी भेंट १९: श्रीपालको रयनमंजूषाको प्राप्ति -२० रामकनाकेता विदा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ १३७ २१. अवलस द्वारा श्रीपासपा सब पता २२. धवलसेठका रयनमंजूषाको बहकाना २३. रयनमंजूषापर कुदृष्टि करनेसे धवलसेठको देवसे दण्ड २४. श्रीपालका गुणमालासे विवाह १२४ २५. कुकुमद्वीपमें धवलसेठ, श्रीपालको देखकर उसका घबराना १२९ २६. भांडोंका कपजाल २७. श्रीपालको भूलीकी तैयारी १३४ २८. रपनमंजूषाका श्रीपालको शूलीसे छुडाना २९. श्रीपालका चित्ररेखासे विवाह १४१ ३७. श्रीपालका पराक्रम और अनेक राजपुत्रियों से विवाद १४२ ३१. श्रीपालका उज्जन नगरीमें प्रयाण १४५ ३२. श्रीपालका बोके बाद कुटुम्व-मिलाप ३३. श्रीपालका राजा पहुपालसे मिलाप १५३ ३४. श्रीपालका चंपापुर गमन ३३. श्रीपालका काका वीरदमनसे युद्ध १६१ ३६. राजा श्रीपालका सुखपूर्वक राज्य करना ३७. राजा श्रीपाल के पूर्व अवांतर ३८. संसारको असारता जान राजा श्रीपालका दोक्षा लेना १७७ ३१ श्रोपाल मुनिको केवल ज्ञान की प्राप्ति १८२ १५६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रस्तावना * आगरा निवासी श्रीमान् परिमल्लषी नामक विद्वान जन्न माविने 'श्रीपालचरित्र' अर्थात नंदीश्वर व्रत महात्म्य ग्रन्थः विक्रम सं. १६५१में हिन्दी पद्यों में रचा था, उसकी हस्तालखित प्रति लाहोरमें थो, उसे शुद्ध करके बाबू ज्ञानचन्दजी जैन लाहोरने सन् १९०४ में छपवाक र प्रगट किया था, किन्तु वह समाप्त हो गया था और पद्य में होने से सर्वोपयोगी भी नहीं या । इसलिए हमने सभी प्रांसवासी जनोंके हितार्थ इसे राष्ट्रभाषा हिन्दी में सं. १९७० में श्री धर्मरत्न पं. दोपचंदजी वी अधिष्ठाता ऋपब्रहा मत्रिम मथुरासे अनुवाद कराकर प्रकट पिया । वह भूल: पन्ध्र असा हा एक प्रफट किया हैं। १५) रु. है। पूज्य वर्गीजी जैन समाज के आदर्श त्यागी एवं विद्वान थे। आपने अनेक अन्याका समादन व अनुवाद किया था । और इस भोपालचरित्रका वाद पूर्ण संशोधन परिवद्धं न आदि भो सलाधारणके हितार्थ मापने ओनसरी कबसे ही कर दिया था। यह श्रीपालचरित्र अर्थात् अष्टाह्निका व्रत महात्म्य जैन समाजमें कितना प्रिय है, यह इसीसे प्रगट है कि इसकी आरबी आवृति प्रकट की थी वह भी पुरी हो जाने से यह नवमी बार प्रमटकर रहें हैं इस आवृत्तिने यथोचित संशोधन व परिवर्द्धन हुआ है और प्रासंगिक चित्र भी दिए गये है। इन चित्रोंसे इस ग्रंथकी शोभा अधिक बढ़ गई है। आशा है इस नंदीश्वरवत महात्म्यको समझगी और उसे पालन करके पुण्योपार्जन करेगी। सूरत शैलेश डाह्याभाई कापड़िया.. वीर सं. २५२१ फागण घरत-३. सुदी १५ ता. १७-३-९५ , Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र श्री नन्दीश्वर व्रत महास्य मङ्गलाचरण वीतराम सर्वज्ञ जिन, हित उपदेश क देव । शिवमग दर्शक आप्त नित, नमू कहें पद सेव ॥शा विषयारम्भ परिग्रह बिन, गुरु नमों निर्गन्ध । कायर जनको जिन कियो ,सरल मोक्षको पंथ ।।२।। ॐकार वाणी नमू', द्वादशांग उर धार । श्री श्रीपाल चरित्रकी, करू दनिका सार ।।३।। पञ्चपरमेष्ठी-स्तुति कर्म घातिया नाशकर, छहो चतुरुक अनन्त । नमं सकल परमात्मा, बोतराग अर्हन्त ||४|| नित्य निरंजन सिद्ध शिव, मूर्ति रहित साकार । अमल निकल परमात्मा, नमू' त्रियोग सम्हार ||५॥ दीक्षा शिक्षा देत जो, सकल संघके ईश । ऐसे सूय मुनीन्द्रको, वन्दू कर धर शीश ॥६॥ द्वादशांग श्रुत निपुण जे, पढ़ें पदावे धीर । ऐसे श्री उवझाय मुनि, वेग हरो भवपीर ।। विषयारम्भ निवारके, मोह कषाय विडार । तजे ग्रंथ चौबीस जिन, साधु नमू सुखका ॥ पंच परम पद मैं नमू, आठों अंग नेवाय । जा प्रसाद मंगल लहूं, कोटि विघ्न क्षय जाय ।।९।। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योपाल चरित्र । वर्तमान चौबीसी जिन स्तुति नमों में प्रथम ऋषभ चरणा, दूजे अजित अजित रिपु जीते, ध्याऊं अघहरना । तीजे सम्मव भव नाशे, चौथे अभिनन्दन पद सेउ', कर्म नशैं जासे || पंचम सुमति-गुमतिदास, छतु पद्मनाक : किलो गाई मार : सातवें वीसुपार्श्वनाथा आउँ चन्द्रनाथ जिन चरणोंनाऊं निजमाथा नदमें पुष्पदंत-संता दश- शोतलनाथ जिनेश्वर देत शर्मऽनंता । अयारहों में यासस्वामी, वासुपूज्य बारहों ध्याऊं तीनलोकनामी॥ रहों विमल २ जानो, अनंत चतुष्टययुत चौदहोऽनंतनाथमानो। पंद्रहही धर्मशम करता,सोलहों श्रीशांतिनाथप्रभु भवाताप हरता सत्रहवे कुन्थुताथस्वामी,अरहनाथ मरिगणव सुनाशक अठाहरगेनामी उनीसो मालिसल्लचूरे, विशतिव मुनि सुतस्वामीवत अनंत पूरे ॥ मनकोसमें नमिनाथ देवा, बाईसमें थीनेमिनाथ पात इन्द्र करें सेवा। सेईसवे पाळनाथ ध्याऊ,चौबीसवें श्रीवर्धमानको भक्ति हिए भाऊ तीर्थङ्कर चौवोसों नामो, पंचकल्याण धारी सब ही, शिवपुर विसरामी । लिय यह "दीपचन्द" केरी, __ जब लग भोक्ष मिले नहीं, तबल ग ल हूँ भक्ति तेरी।। यह विधिर जिन स्तुति,भक्ति भाव उर माय । कर बचनिका ग्रन्थकी, शारद करो सहाय ।। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ (चरित्र) रचनाका कारण । ।३ ग्रन्थ (चरित्र) रचनाका कारण अनन्त अलोकाकाशके ठीक मध्यभागमें असंख्यात प्रदेशी HE४३ घना नाण, होने पर फैलाकर अपनी कमर पर ।। हाथ रक्खे खड़े हुए मनुष्यके आकारका, पूर्व पश्चिम नीचे सात राजू चौड़ा, फिर क्रमसे घटता हुआ सात राजू, ऊचाई पर केवल एक ही राजू, और यहांसे साढ़े तीन राजू उचाई तक क्रमसे बढता हुआ ५ राजू होकर फिर क्रमसे घटते हुए उपर साढ़े तीन राजू जाकर एक राजू मात्र चौड़ा और उत्तर दक्षिण सर्वत्र सात सात राजू ऊपर से नीचे तक चौड़ा अर्थात नीचेसे उपर तक कुल १४ राजको ऊचाई वाला ३४३ धनराजू प्रमाण असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश है । इसमें इतने ही (जघन्य युक्तासंख्यात प्रदेश प्रमाण प्रदेशों वाले) धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य अखंड सर्वत्र व्याप्त हैं। इसके सिवाय लोकाकाश प्रमाण हो असंस्थात प्रदेशोंवाले, अनन्तानन्त जीव द्रव्य संख्यात असंख्याप्त तथा अनन्त प्रदेशों (परमाणओं) के अनेकों स्वन्धों तथा फरमाण स्वरूपरूपी पुदगल और लोकप्रमाण असंन्यात कालाभोंसे यह लोकाकाश खब ठमाटम भर रहा हैं । इस लोकाकाश के मध्य (उत्तर, दक्षिण दोनों ओर तीन तीन राजू छोडकर ठोक मध्य भागमें) एक राज लाम्ची, एक राज चौड़ी और चौदह राज ऊची त्रस नाडी है, अर्थात बस । दो, तीन. चार और पांच इन्द्रिय बाले ) जीव केवल इतने ही दो बमें रहते हैं । परन्तु स्थाबर (एकेन्द्री) त्रस नाडों के अन्दर और बाहर सर्वत्र पाये जाते हैं । लोकावरश के ऊळ, मध्य और अधोलोक इस प्रकार तीन खंड माने गये है । नीचेसे लेकर उपर सात राजू तक अस नाड (अधोलोक) में कमसे सातवां, छठवां, पाचवां, चौथा, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्रीपाल परित्र । तीसरा, दूसरा और पहला नर्क, तथा अपनवासी और व्यंतर जातिके देवोंका निवास है । इसके उपर इसी पृथ्वी पर सुदर्शन मेरुकी मुल जमीन १००० महायोजनसे लेकर उपर ९९०४० महायोजन प्रमाण ऊंचाईवाला १ राज लम्बा, चौडा तिर्यकलोक (मध्यलोक ) है। वहांपर मनुष्य और तिर्यच तथा व्यंतर और ज्योतिषी देवोंका निवास है। इससे उपर कुछ कम सात राजू तक कल्प (स्वर्ग) वासी देव, इन्द्र तथा कल्पातीतों (अहमिन्द्रों) का निवास है। और अन्त में सबसे उपर लोकशिखर पर तनवातवलय के अन्तिम भागमें ४५ लाख महायोजनामा गोल मनायले के बराबर क्षेत्रमें समस्त कमल कल कोसे रहित तथा अनन्तज्ञान दर्शन, सुख और वीर्यादि अनन्त गुणासे सहित नित्य निरजन अमुर्तीक अखण्ड त्रिलोक-पूज्य अनन्त सिद्ध परमात्मा अपनी२ सुखसत्ता अवगाहना युक्त, शुद्ध स्फटिकमणिके समान निर्मल शिलाके उपर स्वाधार तिष्ठ हैं । उन सिद्ध भगवानको मेरा सदा मन, वचन, कायसे अष्टांग नमस्कार होवे । उपर कहे अनुसार त्रस नाडीके बीचोंबीच ( उपर नीचे सातर राजू छोड़कर) जो एफ राजू प्रमाण चौकोर मध्यलोक है, उसमें जघन्य युक्ता संख्यात ( संख्या प्रमाण ) द्वीप और समुद्र हैं जो एक दूसरेको चूडीकी तरह घेरे हुए दूने २ । विस्तारवाले हैं । अर्थात् सबसे मध्यमें नाभिक समान १ लाख योजन४२००० कोसके व्यासवाला थालोके आकार गोल जम्बूद्वीप है । इसके सब ओर गोल दो-दो लाख योजन व्यासवाला (चौड़ा) लवण समुद्र, उससे सब ओर चार लाख योजन चौड़ा घातकी खण्ड द्वीप, इसकेआस पास आठ-आठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है । इसके आसपास सोलहर योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है। (इस द्वीपमें ठीक बोचमें, कोटकी भीतके समान अत्यन्त ऊँचा मनुष्योंसे अनुल्लम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंप (चरित्र) उनका कारण [५ मातुषोत्तर पर्गत है । इससे यह आधा दीप और धातको खण्ड तथा जम्बूद्वीप मिलकर अढाई द्वीप ४५ लाख महायोजनके घासवाले हैं। इतना ही मनुष्य लोक है । यहीसे संसारी जीव कर्मको · नाश करके मुक्त हो सकते हैं । इसके सिवाय इसी प्रकार दूने २ विस्तारवाले समुद्र उसके आसपास द्वीप, उसके आसपास समुद्र आदि असंख्यात दीप ममुद्र हैं जिनमें सबसे अन्तका द्वीप तथा समुद्र स्वयंभरमण हैं । इस अन्तके आशे ोप और समुद्र में क्रमशः पंचेन्द्रिय थलचर जलचर पशु होते हैं । यह सब तिर्यकलोक है । मलाई द्वीपसे परे मनुष्योंका गमनागमन नहीं है । ऐसे इस मध्यलोक के मध्यवर्ती नाभिके तुल्य इस जम्बूद्वीपमें वीचोबीन सदन मे हामका लावा गीत है, जिसके दक्षिण उत्तर छह कुलाचल पर्वत हैं 1 उनसे इसके सात क्षेत्र हो गये हैं। उन क्षेत्रों में से दक्षिण दिशामें धनुषाकार यह भरतक्षेत्र है । जिसके बीच में कोताहय पर्वत तथा महागंगा और सिन्धु नदो बहनेसे प्राकृतिक छह भाग हो गये है । सो आसपास तशा जपरके मिलकर ५ म्लेच्छ और दक्षिण भागमें १ आर्यखण्ड है । उसके मध्य भागमें मगध देशा है जिनमें एक गरगृही नामकी नगरी है । यह नगरी अत्यन्त शोभायमान और धन जनकर पूर्ण है, जहां बडे २ बिशाल मन्दिर बने हुये हैं । तथा जो वन उपवन, कोट खाई, ताल, भाबड़ो अादिसे अति रमणोक मालूम होती है। यहां महामंडलेश्वर महाराज श्रेणिक राज्य करते थे। यह राजा अत्यन्त नीतिनिपुण, न्यायी, प्रजावत्सल, प्रतापी और धर्मात्मा थे । इनके राज्यमें दोनदुःखी पुरुष दृष्टिगत ही नहीं होते थे। इनको मुख्य पटरानी चेलना बहुत ही Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीग: रित्र । धर्म, परायण और पतिङ्गता थो। और इनके वारिकोण, अभयकुमारादि बहुतसे गुणवान पुत्र थे ।। ___ तात्पर्य यह है कि सब प्रकारसे राजा प्रजा अपने २ संचित पुपका भोर करके भी आगेको पुण्योपार्जन करने में किसो प्रकार कमी नहीं करते थे। अर्थात् दान पूजादि गृहस्थोचित षट्कर्मोमें तथा धर्ममें भो पूर्ण योग देते थे। एक समय नब राषा अंणिक राज्य सभामें सिहासनारूह थे, उसी समय वनपाल (माली) ने पाकर छहों अतुके फल फल राजाको भोट किये और प्रार्थना की कि हे नरेन्द्र ! "विपुलाचल पर्णत' पर चतुविशति तोचकर श्री महाबीस स्वामी समवशरण सहित पधारे हैं । ये सब फल फूल उनके ही प्रभावसे बिना ऋतु आये फले और फले हैं। चारों और कूप तड़ाग और सरोवर भरे हुए दृष्टिगोचर होते हैं । बनके सब जाति विरोधो जीव जैसे-सिंह और बकरी, मूसा और बिलाब आदि परस्पर मैत्री भावसे बैठे हैं। हे स्वामी ! वहां दिन-रातका भी छुच्छ भेद मालूम नहीं पहता है, ऐसी अद्भुत शोभा है, जिसका वर्णन होना कठिन है और वहां सुर नर पशु सभी दर्शन करके आत्मकल्याणका मार्ग ग्रहण कर रहे हैं। ___ यह समाचार सुनकर राजाको अत्यात मानन्द हुआ और उन्होंने तुरन्त अपने शरीर परके वस्त्राभूषण उतारे और वनमालीको दिये, तथा आसनसे उठकर परोक्ष नमस्कार किया. और नगरमें आनन्दभेरी (मुनादी) दिवाई कि सब नरनारी श्री वीर भगवान के दर्शनको पधारें । इस प्रकार राजा स्वयं भी चतुरंग सेना सहित हर्षका मरा चेलनादि रानियों सहित । समवसरणमें अंदनार्थ गये । वहां जाकर प्रथम ही भगवान को । अष्टांग नमस्कार करके स्तुति करने लगा । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ (चरित्र) रचनाका कारण | वीतराग सर्वत्र प्रभु. निजानन्द गुणखान । अनन्त चतुष्टयके धनी, नमू वीर भगवान ॥ जय जय जिनवर तारन तरन, जब जम जन्म बस भा है। जय जय उद्यत जान दिनेश, जय जय मुक्तिवधू परमश ।। जय जय ल्यानास गुण मंड, जय अतिशय चौतीस. प्रचण्ड । तीन लोक को शोमा ताहि, और कोई उपमा नाहि आहि । जय जय केवलमान पयास, जय जय निशिन भव' बात 1: जय सम दोष रहित जिनदेव, सुरनर अमुर करें नुमा मेव । यह विधि जिनवर थुति करेय, बार तीन प्रदक्षिणा देव ।। विन श्रेणिक बारम्बार, भवदधिमे प्रभु को में पार ॥ तत्पश्चात् चतुविधि संघकी यथायोग्य विनय कर मनुष्योंको सभामें जाकर बैठ गया और प्रभु की वाणी से दो प्रकार सागार और अनगार धर्मका स्वरूप सुनकर पूछने लगा कि है प्रभु ! सिद्धचक्र बेतको विधि क्या है ? और इसो स्वीकास कर किसने क्या फल पाया है, सो कृपा कर कहिये, जिसे सुनकर मध्यजीव धर्म में प्रवर्ते और दुःखसे छूटकर स्वाधीन सुखका अनुभव करें।' तब गौतम स्वामी ( जो श्री वीर भगवानके उपदेश की सभा (समवशरण) में प्रथम गणधर-- गणेश थे) बोले-है । राजन् ! इसको कथा इस प्रकार है:. सो मन लगाकर मुनो।" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ir श्रीपाल चरिण । अंगदेश चंपापुरीका वर्णन इसी जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्रमें जो यह आर्य खण्ड है इसके मध्य एक अंगदेश नामका देश है और उसमें चंपापुर नामका एक नगर है। इसी नगरके समीपी उद्यानसे श्री वासुपूज्य स्वामी बारहवें तीर्थंकर निर्वाण पधारे है । यह नगरी अत्यन्त रमणीक है । चारों ओर वन उपवनोंसे सुशोभित है । उन बनोंमें अनेक प्रकारके वृक्ष अपनी स्वभाविक हरियालो लिये पवनके झंकोरोंसे हिल रहे हैं। मन्दसुगंध वायु बहा करती है । कहोपर कल्लोले करते हुए नदी नाले बहुते हैं। जिनमें अनेक जातिके जलचर जीव काड़ा कर रहे हैं । कहीं वृक्षोंपर पक्षी अपने अपने घोंसलोंमें बैठ नाना प्रकारकी किल्लोलें कर रहे हैं। वे कभी फड़कते, कभी लटककर चुह-चुहाते हैं । बन्दर आदि वनचर जोव एक वृक्षसे दूसरे और दूसरेसे तीसरेपर प्रमुदित हुये कूद रहे हैं । घाम औरों ओर लहरा रही है । वन-वेलोंको तो कहना ही क्या है ? जिस प्रकार लज्जावती स्त्रीके चहूँ ओर वस्त्र माच्छादित रहते हैं और उसका बदन (शरीर ) रूप, रंग कोई नहीं देख सकता है, उसी प्रकार उन्होंने वृक्षोंको चारों ओरसे ढांक लिया है । कहीं हाथियोंके समूह अपनी मस्त चालसे विचर रहे हैं, तो कहीं मग बिचारे सिंहादि शिकारी जानवरोंके भय से यहां वहां दौड़ते फिर रहे हैं, कहीं सिंह त्रिवाड़ रहे हैं, कहीं पुष्पवाटिकाओं में नाना प्रकार के फूल जैसे चम्पा, चमेली, जुही, मचकुन्य, मोगरा, मालती, गुलाब आदि खिल रहे हैं । जिनपर सुगन्धके लोभी भौरा गुंजार कर रहे हैं, कहींपर बागोचेमें नाना प्रकार के फल जैसे आम, जाम, सीताफल, रामफल, श्रीफल, केला, दाडिम जामुन आदि लग रहे हैं। जलकु डोंमें मछलियां किल्लोलें कर यहाँ हैं, सरोवर में अनेक भांतिके * ' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगदेश चंपापुरीका वर्णन । [ ९ कमल फूल रहे हैं तथा सारस व हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते हैं, तो कहीं दसोंकी चाल देख बगुला भी उन्हींसे 'मिलना चाहता है, परन्तु कपट भेष होनेके कारण छिप नहीं सकता है । इत्यादि अवर्णनीय शोभा है । उस नगर में बड़े२ उत्तम गगनचुम्बी महल बने हैं, और प्रत्येक महल जिन चैत्यालयोंसे शोभायमान है। चौपड़ के समान बाजार बने हुए हैं जिनमें हीरा, रत्न, माणिक, पन्ना, नीलम पुखराज, आदि अनेक उत्तमोत्तम पदार्थोका वाणिज्य होता है । कहीं कपडेकी गांठें दृष्टिपात हो रही हैं, कहीं विसातखाना चल रहा है, कहीं फलफूल मेवोंका और कहीं अनाजका बेर है | इस प्रकार बाजार भर रहे हैं । इम नगर में बडेर विद्वान पण्डित, कवि आदिका निवास है । कहीं वेदध्वनि होती हैं, कहीं शास्त्र संवाद चल रहा है, कहीं पुराणी पुराणका कथन करते हैं. कहीं विद्यार्थी पाठशाला में अध्ययन करते हैं, मानो यह विद्यापुरी ही है । जहां इति भीति देखने में नहीं लाती है । चारों वर्णके मनुष्य जहां अपने‍ कुलाचारका पालन करते हैं । सभों लोग प्रायः सुखा दृष्टिगत होते हैं, मिझुक सिवाय परम दिगम्बर मुद्रायुक्त अयात्रीक वृत्तिके धारी मुनियोंके अतिरिक्त कोई भी दृष्टिगोचर नहीं होते । जहां सदैव परम दिगम्बर मुनियोंका विहार होता रहता है और श्रावकगण मुनियोंके आने की प्रतिक्षा करते रहते हैं, जो अपने निमित्त तैयार की हुई रसोई में से हो नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान देकर पीछे आप भोजन करते हैं। वे सब द्विजवणं श्रावक दातारके सप्त गुणोंके धारक और श्रावकको क्रियामें अति निपुण हैं । इस प्रकार यह चंपाखुरीकी ऐसी शोभा है मानों स्वर्गपुरी ही उतर आई है । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोपाल चरित्र ) श्रीपाल के गर्भका वर्णन उसी चंपापुर नगर में महाराजा अरिदमन राज्य करते थे, इनके छोटे भाईका गाविसमा इतका राज्य नीतिपूर्वक चारों ओर व्याप रहा था। कहीं भी किसी तरहका कोई संकट दिखाई नहीं देता था। हाथी, घोड़ा, रथ, पालकी प्यादे आदि सेना बहुतायत से थी। बडेर शूरवीर दरबारमें सदा उपस्थित रहते थे। दूर तक सब ओर इनको राज्यनीतिकी प्रशंसा सुनाई देता था। इनकी रानी कुन्दप्रभा कुन्दके पुष्प के समान अत्यन्त रूपवती और गुणवती थी, free सीतासे कम न थी। जिस प्रकार कामको रति, शशिको रोहिणी, विष्णुको लक्ष्मो और रामको सीता प्यारी : थी, उसी प्रकार यह रानी भी अपने पतिकी प्रिया थी 1 पतिके सुखको सुख और उसके दुःखको दुःख समझती थी । ऐसो पतिभक्ता स्त्रियोंको ही संसार में महिमा है, क्योंकि जो ऐसी कोई सच्चरित्रा स्त्री न होती, तो यथार्थ में स्त्री जाति आदर योग्य भी नहीं रहती । रानी जब सुख शय्यापर सोई थी, तब उसने रात्रिके पिछले एक दिन यः पहर में एक स्वप्न देखा । जिसमें स्वर्ण सरीखा बहुत बड़ा । पर्वत और कल्पवृक्ष देखे और इसी समय स्वर्भसे एक देवः चलकर रानीके गर्भ में आया । १०] इतने में प्रात:काल हुआ, और दिनकरके प्रतापले अन्ध-कारका इस प्रकार नाश हो गया, जैसे सम्यकके प्रभावसे मिथ्यात्वका नाश हो जाता है। तब वह कोमलांगी सुशीला | राना व्यासे उठी और अपने शरादिकों नित्य क्रिया से निवृत्त होकर मंद गति से गमन करती हुई स्वपतिके समीप गई, और विनयपूर्वक नमस्कार कर मधुर शब्दों में रात्रिको देखे हुए स्वप्नका सब समाचार सुनाने लगी । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल के जम्मका वर्णन | [ १८ राजाने भी रातीको उचित सम्मानपूर्वक अपने निकट अ सिहासन पर स्थान दिया, और स्वप्नका वृतांत सुनकर कहा' हे प्राणवल्लभे । तेरे इस स्वप्नका फल अति उत्तम है अर्थात् आज तेरे गर्भ में महातेजस्वी, घोर, वोर, सकल गुण निधान, चरमशरीरी नररत्न आया है। पर्णत देखा, इसका फल यह है कि ते पत्र बड़ा गंभीर, साहसी, पराक्रमी और बलबान होगा, तथा उसका सुवर्ण सरीखा वर्ण होगा । और कल्पवृक्ष देखा है इससे यह बहुत ही उदारचित्त, दानों, दीन जन प्रतिपालक और धर्मश होगा | तात्पर्य कि तेरे गर्भ से सर्वगुण सम्पन्न मोक्षगामी पुत्ररत्ना होगा। इस प्रकार दम्पत्ति ( राजारानी) स्वप्नका फल जानकर बहुत प्रफुल्लित हुये, सुखपूर्वक कालक्षेप करने लगे । * = := श्रीपाल के जन्मका वर्णन दो यजके चन्द्रके समान गर्भ दिनोंदिन बहने लगा, और बाह्य चिन्ह भी प्रगट होने लगे, जिससे शरीर कुछ पीलासा दिखने लगा, कुछ उन्नतरूप और दुग्धपूरित हो गये, नेत्र हरेर हो गये, और दिनोंदिन रानीको शुभ कामनायें दोहला (इच्छा ).. उत्पन्न होने लगीं। इस प्रकार आनन्दपूर्वक दस मास पूर्ण होनेपर जिस प्रकार पूर्व दिशा में सूर्यका उदय होता है, उसी प्रकार रानी कुन्दप्रभा के गर्भ से शुभ लग्न में पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई । जन्मते ही दुर्जन पुरुषों व शत्रुओके घर उत्पात होने लगे, और स्वजन, सज्जन, पुरुजनो के आनन्दकी सोमा न रही। घरोघर नगर में आनन्द वधाइयां होने लगीं, स्त्रियां मंगलगान करने लगीं, याचकों (भिखारी) को इतना दान दिया गया किर : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ } श्रीपला चरित्र | हाथी, जिससे वे सदैव के लिए अयाचक हो गये। किलोका किसीको घोडे, किसीको पाम, क्षेत्र आदि जागो भी पारितोषक में दो गयीं। नगर में जहां तहां वादियोंको ध्वनि सुनाई देती थी। तात्पर्य कि राजाने पुत्र जन्मका बड़ा हर्ष मनाया, और यह सोचकर कि ये स धर्महोका फल है, जिनेन्द्र - देवकी विधिपूर्वक पूजा भक्ति भी को । - इस प्रकार जब बालक एक मासका हुआ तब राजा - रानो बडे उत्साह समारोहपूर्व 6 बालकको लेकर श्री जिन मंदिरको गये, और प्रथमहो भगवानको अष्टद्रश्यसे पुजा कर, गोछे वहां तिष्ठे हुये श्री गुरुके चरणारविन्दोंमें बालकको रखकर, विनयपूर्वक नमस्कार किया, तब मुनिराजने जिनको "कि शत्रु मित्र समान हैं, उनको धर्मवृद्धि देकर धर्मोपदेश दिया सो दम्पत्तिने ध्यानपूवक सुना, और अपना धन्य भाग्य समझकर मुनिको नमस्कार करके घरको लौट आये । और निमित्तज्ञानाको बुलाकर बालकके ग्रह- लक्षण और नाम आदि पूछा तब निमित्तज्ञारीने जन्म लग्न परसे बिचार कर कहा कि- "हे राजन् ! आपका पुत्र बहुत हो गुणवान, पराक्रमी, कर्मशत्रुओं को जीतने वाला, प्रबल प्रतापो अरबोर, रणधीर और अनेक विद्याओंका स्वामी होगा। इसके जन्म लग्न में यह बहुत अच्छे पडे है । मैं इस बालकके गुणों को वचन द्वारा नहीं कह सकता, इसका नाम श्रीपाल रखना चाहिए । जब राजाने इस प्रकार होनहार बालकके शुभ लक्षण सुने तब भानन्द और भी अधिक बढ़ गया । उन्होंने निमित्तज्ञानोको अतुल संपत्ति वेकर बिदा किया, और बड़े प्यारसे पुत्रका लालन पालन करने लगे । अब दिनोंदिन श्री श्रीपालकुमार 'द्वितया चंद्रमा समान वृद्धिको प्राप्त होने लगे। इनकी - बालक्रीड़ा मनुष्योंके मनको हरनेवालो वो कभी ये बधे I Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपानके जन्मका वर्णन I [ १० होकर पेटके बलसे रेंगते, कभी घुटनोंके बल से चलते, कभी कुदक कुंदक कर पैर उठाते, कभी संकेत करते, और कभी अपनी तोतली बोली बोलते थे। कभी मातासे इस कर दूर हो जाते थे, और कभी दौड़कर लिपट जाते थे । वे नंग के बालकोंमेंमे रुसे मालूम होते, जैसे तारागणों में चन्द्रमा शोभार देता है इस प्रकारकी कोटाको देखकर माता पिताका मन प्रफुल्लित होता था । > 'बालककी सुन तोतरी बाता, होत मुदित मन पितु अरु माता इस तरह जब श्रीपालजी माठ वर्षके हुए, तब इनका मुजीबन्धन तथा उपन संकार किया अर्थात् गरेक पहनाकर पंचाणूव्रत दिये गये, श्रावक के अष्टमूलगुण धारण कराये, सप्त व्यसनका त्याग कराया और यावत् विद्याध्ययनकाल पूर्ण न हो वहां तक के लिए अखण्ड ब्रह्मचर्यवत दिया गया । इस प्रकार यथोक्त मन्त्रों द्वारा विधि पूर्वक पूजन हवनादि करके इनको गृहस्थाचायंके पास पढनेके लिये भेज दिया । सो गुरुने प्रथमही कारसे पाठ आरम्भ कराकर घोडी ही दिनों में श्रीपाल कुमारको तर्क छन्द, व्याकरण, गणित सामुद्रिक, रसायन, गायन, ज्योतिष, धनुषवाण ( शास्त्र विद्या ) पानी में तैरना, वैद्यक, कोकशास्त्र, वाहन नृत्य आदि विद्या और संपूर्ण कलाओं में निपुण कर दिया । तथा आगम और अध्यात्म विद्यायें भी पढ़ाई । इस प्रकार श्रीपालजी समस्त विद्याओं में निपुण होकर गुरुकी आज्ञा ले अपने माता-पिता के समीप आये और उनको विनय पूर्वक नमस्कार किया । माता-पिताने भी पुत्रको विद्यालंकृत जानकर शुभाशीर्वाद दिया। अब घोपालकुमार नित्यप्रति राज्य सभामें जाने और राज्य के कामों पर विचार करने लगे । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल चरित्र । श्रीपालका राजतिलक और राजा अरिदमनका कालवश होना एक समय राजा अरिदमन सभामें बैठे थे कि इतने में '. श्रीपालकमार भो सभामें आये और योग्य विनय कर यथास्थान बैठ गये । उस समय राजाने अपनो वृद्धावस्था और श्रीपाल कुमारको सुयोग्यता देखकर तथा इनके अतुल पराक्रम, न्याय' शीलता और शूरवीरतादि गुणों से प्रसन्न होकर इनको राज' तिलक देने का निश्चय कर लिया । और शुभ मुहतमें सब राजभार इनको सौंपकर आप एकांतवास करने तथा धर्म ध्यानमें कालक्षेप करने लगे । थोड़े ही समय बाद वृद्ध राजा अरिदमन कालवश हये । जिसमे राजा श्रोगल इनके काका दीरदामन, लता मामा कुन्दप्रभादि समस्त स्वजन तथा पुरजन शोकसागर में डूब गये। चारों ओर हाहाकार मच गया, तब, बुद्धिमान राजा श्रीपालने पूरजनोंको अत्यन्त शोकित देख धयं (साहस) धारण कर सबको ससारको दशा और जोव कर्मका संबन्ध इत्याद समझाकर संतोषित किया । उन्होंने कहा कि मृत्यु तो मेरे पिताका हुई है, तुम्हारे पिता तो हम उपस्थित हो हैं, अतएव पिताके राज्यमे जिस प्रकार आप लोग सुख शांत से रहते थे, वैसे हो रहेंगे, मैं शक्तिभर आपको सखी करने का प्रयत्न करूगा और आप भी न्यायपूर्वक मेरी सहायना करगे इत्यादि । इस क अनन्तर बे राज्यका में दन्तचित हुए । चारों दिशाओं में अपने बुद्धिबल तथा परराजमसे अपने न्यानी तथा प्रजावत्सलयनेको कीति विस्तृत कर दी । बड़े राजाओंको अपने आज्ञाकारी बनाये, दुर्जनोंको जोतकर वश किये, प्रजाको चौरादि] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपालको कुष्ट याधिका होना । [१५ दुष्ट जनोंकृत उपद्रवोंसे सुरक्षित किया। इनके राज्य में लुच्चे चोर लबार, चुगलखोर, व्यभिचारी, हिसक आदि जोव क्वचित् भी दृष्टिगोचर, नहीं होते थे । सब लोग अपने२ धर्म कर्मोमें आरुढ़ रहते थे। राजाज्ञा पालन करना उनका मुख्य कर्तव्य था । इस तरह न्याय ना लिपूर्णक इनका राज्य 'बहुत काल तक निष्कंटक चला । =*= भोपालको कुष्ट ब्याधिका होना __ जिस समय श्रीपालजी सुख पूर्वक कालशेष कर रहे थे और प्रजाका न्याय तथा नीतिपूर्वक पालन करते थे, उस समय उनका यह ऐश्वर्य दुष्ट कमसे सहन नहीं हुआ, अर्थात् कामदेव तुल्य राजा श्रीपालके शरीरमें कुष्ट । कोढ़ ) रोग हो गया, सब शरीर गलने लगा, और उसमें से पीर लोहू आदि बहने लगे, जिससे समस्त शरीरमें पीड़ा होने लगी और दुर्गन्ध निकलने लगी। यह दशा केवल राजाको ही नहीं किन्तु राजाके समीपी सात सौ वीरों की भी हुई । दोवान, सेनापति, मत्री. पुरोहित, कोतवाल, फौजदार न्यायाधीश और अंरक्षक सबको एकसी दशा थी 1 प्रजागण इनकी यह दशा देख अत्यंत दुःखी थे, और अपने राजाको भलाई के लिए सदैव श्रोजीमे प्रार्थना करते थे, कि किसी प्रकार ज व ममोपी सुमटोंको म पिले परन्तु कार्य बलवान है, उसपर किसीका दश नहीं चला । एक कविने लाक को कहा है - कर्म बली अति जगतमें, सब ही जीव वश कीन । महाबली पुनि वे पुरुष, करे कर्म जिन छीन । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र। तात्पर्य-इन सबका रोग दिनोंदिन बढ़ने , लगा, और शरीरसे बहुत दुर्गन्ध निकलने लगी। जिस ओरकी पवन होती थी उसा ओरके लोग इनके शरीरका दुर्गन्धिसे व्याकुल हो जाते थे । प्रजामें एक तो राजाके दुःखसे योहा दुःख छा रहा था, वूसरे दुर्गन्धिसे और भी बुरी दशा थी परन्तु प्रजाके लोग राजासे यह बात कहने में संकोच करते थे, इसलिये कितने तो घर छोड़कर बाहर निकल गये, और कितने ही जानेकी तैयारी करने लगे, अर्थात सब नगर धोरे २ उजाइसा प्रतीत होने लगा, तब नगरके बड़े २ समझदार लोग मिलकर राजा श्रीपालजो के काका वीरदमन के पास गये व अपनी सब दुःख कहानी कह सुनाई। वोरदमनने सललो धीरन देकर कहा -- लोग गिनी प्रकार व्याकुल न हों । राजा श्रीपाल बड़े न्यायां और प्रजा. वत्सला हैं । वे आजकल पोड़ाके कारण बाहर नहीं निकलते, इसीलिये उनके कानों तक प्रजाकी दुःख-बार्ता नहीं पहुवी है। इसीसे अब तक आप लोगोंको कष्ट पहना है । अब शान ही यह खबर उनको पहुँचाई जायेगी, और आशा है कि वे तुरन्त ही किसी भी प्रकारसे प्रजाके इस दुःखका प्रतीकार करेंगे। इस प्रकार संतोषित कर वीरदमन ने सबको विदा किया । xy Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालको वनवासको जाता । श्रीपालका वीरदमनको राज्य देकर वनवासको जाना काका विरदमन मनमें विचारने लगे कि अब क्या करना बाहिये ? जो राजा नगर में रहते हैं तो प्रजा भागी जाती है, और जो प्रजाको रखते हैं तो राजाको बाहर जाना पडेगा । यह तो गुड़-लपेटी छुरी गलेसे अटकी है, जो बाहर निकालें तो जीव कटे, और अन्दर निगलें तो पेट फटे | इस प्रकार दुःखित हो रहे थे । और सोचते थे पंख बिना पक्षी जिसो, पानी बिन तालाब | यात बिना तरुवर जिसो, रैयत चिनयों राव || नभ उडयन ज्यों चंद बिन, ज्यों बिन वृक्ष उद्यान । जैसे धन बिन मेह त्यो, प्रजा विना राजान | जैसे ब्राह्मण वेद बिन, वैश्य विश्व चिन जान शस्त्र बिना क्षत्रीय जिसो, विना प्रजा राजान || | १७ तात्पर्य - विना प्रजाके राजा शोभा नहीं देता है । इत्यादि सोच विचारकर वीरदमन श्रीपाल राजाके पास गये और अति हो प्रोति भरे नम्र वचनोंसे प्रजाको सब दुःख कहानी कह सुनाई । तब राजा प्रजाके दुःखको सुनकर और भी व्याकुल हुए और आतुरता से पूछने लगे--- P 'काकाजी ! प्रजाको इस कष्टसे बचानेका कुछ यत्न है, तो निःशंक होकर कहो क्योंकि जिस राजाकी या प्रजा दुःखी रहे, वह राजा अवश्य ही कुगतिका पात्र है। काकाजी ! मैं अपने कारण प्रजाको दुःखी रखता नहीं चाहता | मुझे २ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र । इस बातकी विशेष चिन्ता है, क्योंकि मेरे शरीरसे बहुत ही दुर्गन्ध निकलती है, जिसको वास्तव में प्रजा नहीं सह सकती, और मुझसे कह भी नहीं सकती, इसलिये शीघ्र ही ऐसा उपाय बताइये ताकि प्रजा मुखी होवे ।' यह सुनकर काका वीरदमन बोले--'हे राजन् ! मझे कहने में यद्यपि संकोच होता है, तथापि प्रजाकी पुकार और आपके आग्रहसे एक उपाय जो मुझे सूझा है सो निवेदन करता हूं, आशा है उसपर पूर्ण विचार कर कार्य करेंगे । श्रीपालके शरीर में जबतक यह व्याधि वेदना है, तबतक नगरके बाह्य उद्यान में निवास करें, और राजभार किसी -योग्य पुरुषो स्वाधीन कर देखें। वोरदमनकी बात सुनकर भोपालजीने निष्कपटभावसे कह दिया कि मुझे यह विचार सब प्रकार स्वीकार है और मैंने भी यही विचार किया है । इरालिये मैं राज्यका भार इतने का तापको ही देता है, क्योंकि इस समय कार्य योग्य आप ही है, अर्थात् जबतक मेरे इस असाता देवनायका उदय है, तब तs मैं अपना राज्य आपके द्वारा ही करूगा, और इसका क्षय अर्थात् साताका उदय होते हो मैं पुनः आकर ज्या समाल जुगा, वहांतक वा ही मान हैं। पलिमें आज भले प्रकार जाका पालन-गण नीजिये, ही प्रकार का कोई मान पाने । पाप और नोविक नानि, जो मे कुदानको रक्षा मी मना : वियोग जनित दुःख , i t i Timi : देल शिक्षा देकर राना मगर (मातमी) बोका साथ लिया होर नगरसे बहुत दूर उचानमें जाकर डेरा किया । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका वनवासको जाना । | १९ जब श्रीपालके वन जानेका खबर प्रजाके लोगोंको मालुम : हुई तो घरोंधर शोक छा गया, वस्तो श्रीरहित शून्यसी दीखने · लगी, सब लोग इस वियोग जनित दुःखसे व्याकुल हो रुदन - करने लगे अस्थायो राजा वीरदमनके भो टपटप आंसू गिरने लगे । माता कुन्दप्रभा तो बाबलीसी हो गई । उनको अपने पति अरिदमनकी मृत्युका शोक तो भूला ही न था कि पुनः · पुत्र वियोगका दुःख आ पड़ा । वे गद्गद् स्वरसे बिलाप करने लगी। विशेष कहांतक कहें. शोकके कारण दिन भी रात्रिस्त मालुम होने लगा । यद्यपि वीरदमन राजाने सबको धैर्य दिया, तथापि राजभक्त प्रजाको संतोष कहां? हाय ! कर्मसे कुछ वश नहीं है । देखो ! कैसी विचित्रता है किपुण्य उदय अरि मित्र है, विष अमृत हू जाय । इष्ट अनिष्ट है परनमें, उदें पाप जब थाय ॥ निदान सब लोग या छ काल बाद शोक छोड़ निज निज कार्य में दत्तचित्त हुये। काका वीर दमन राज्य करने लगे, और राजा श्रीपाल उद्यान में जाकर सानसौ वीरों सहित कर्मका म भोगने लगे । मैनासुन्दरीका वर्णन -- . मी भायख मासयदेशा हाल में उजनी नामको पता नगीहै । कः रा न मा. प्रतापी, शारीर, श्रीर, मटा :: : । क नाका प्रवत् ;) : [ :: | Fi:. ज्या नावे'. मगो को नदी में । का] कोष दिखाई देता था 1 बडे२ उग पाहल वजा RET कंगुरों आदिसे गुसज्जित बने थे 1 नारा विस्तार १२ कोस लम्बा और Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२० । श्रीपाल चरित्र । - =--- - - --- ---- -- - ९.फोस चौड़ा पा । बहुत दूर २ तफ राजाको आज्ञा मानी जाती पी । वहां कोई दुःखी, दरिद्री नहीं देख पड़ते पे । बागबगीचे, कोट, खाई. सरोवर आदिसे मारकी शोमा अवर्णनीय हो रही थी । राजा यहां निपुणसुन्दरी पट्टरानी मादि बहुतसी रानियां थी । पट्टरानो निपुणसुन्दरोके गर्भसे दो कन्याय हुई । एकका नाम सुरसुन्दरी और दूसरी का नाम मैना सुन्दरी था । प्रथम कन्या सुरसुन्दरी केवल संसारी विषयमोगोंकी आकांक्षा करनेवाली और कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रको सेवन करने वाली विवेकहीन किन्तु रूपवती थो, और द्वितीय कन्या मनासुन्दरी जैसी उपवती थी, वैसी हो गुणवत्ता और परम विवेक जनधर्ममें अत्यन्त लवलीन थी। इसका चित्त सरल और दयालु था । वचन मधुर नम्र और सत्यरूप निकलते थे, इसासे यह सबको प्रिय थी । एक दिन राजाने रानोसे सम्मति मिलाकर दोनों पुत्रियोंको पढ़ाने का विचार किया, सो प्रथम हो सुरसुन्दरीको बुलाकर पूछा-हे बाले ! तुम कौनसे गुरुके पास पढना चाहती हो? तब सुरसुन्दरीने कहा, कि शैव गुरुके पास पढूगी । यह सुनकर राजाने तुरन्त ही एक शेवगुरुको बुलाकर उसे सब प्रकार संतोषित कर कन्या सोंप दी तब वह ब्राह्मण (शैवमुरु) राजाको शुभाशीर्वाद देकर मुरसुन्दरीको अनेक प्रकार कला चतुराई और विद्याए सिखाने लगा । फिर राजाने द्वितीय कन्याको बुलाकर पूछा-ऐ बाले ! तम किस गुरुके पास पढ़ना चाहती हो ? तब मैनासुन्दराने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया--हे तात ! मैं जिनचैत्यालयमें श्री जिनमती आयिकाके पास पढ़ना चाहती हूं । यह सुनकर मा रानी अनि प्रसन्न हा, और कन्याको लेकर स्वयं अप्ट Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनासुन्दरीका वणन । [२१ प्रकार द्रव्य संजोकर जिन छत्यालय पधारे 1 वहां जाकर प्रथम ही श्रीजिनेन्द्रको भक्तिभावसे पूजा करके फिर वहाँ पधारे हुए श्रीगुरुको नमस्कार किया । गुरुने धर्मवृद्धि दी। तब राजा और रानीने विनती की-हे स्वामिन् ! इस बालिकाकी इच्छा विद्याभ्यास करनेकी है, इसलिए कृपाकर इसे विद्यादान दीजिये । मनासुन्दरी भी कर जोड़ प्रार्थना की-हे कृपासिन्धु ! धर्मावतार ! मुझे विद्यादान दीजिये । तब श्रीमुनि बोले कि इस बालिकाको आर्थिकाके पास पढ़ानेको बिठावों। तब राजाने गुरुकी आज्ञानुसार पुत्रीको आयिकाजीकी शरण में छोड़ दिया और रानी सहित स्वगृहको प्रयाण किया । आयिकाज ने प्रथम हो उसे कार जो समस्त द्वादशांगका सार है पढ़ाया मंगमलय मंगल करन, उराम शरणाधार । ॐकार संसारमें, पार उतारन हार ॥ ज्ञायक लोकलोकका, द्वादशांगको सार । गर्मित पंचपरमेोष्ठि अरु कर्म भर्म क्षयकार ।। इस प्रकार कार से आरम्भ करके यो परम तपस्विनी "आयिकाजीने थोडे ही दिनों में इस कुमारिकाको शास्त्र, पुराण, संगात, ज्योतिष, वैद्यक, तर्कशास्त्र, सामुद्रिक, छन्द, आगम, आध्यात्मिक, नृत्य, नाटक इत्यादि सर्न विद्या और मुख्य २ भाषाओंका ज्ञान करा दिया । जब वह सम्पूर्ण कलाओं में 'निपुण हो गई, तब श्रीगुरुके निकट निश्रय और व्यवहार धर्म, दो प्रकारका चरित्र, पार च्यान, षोडशकारण, दशलक्षण, जत्दीश्वर- रत्नत्रयादि प्रोंका स्वरूप समझा। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. J श्रीपाल अभिव । इस प्रकार मैनासुन्दरी जब सब विद्या पढ़ चुको, तब अपने माता पितादि गुरुजनोंको यथायोग्य विनय करती हुई फलीन saranी भांति सुखसे कालक्षेप करने लगी और ज्येष्ठ पुत्रो सुरसुन्दरी ( जा शिवगुरुके पास पहनेको गई थी। भी वेद, पुराण, ज्योतिष, वैद्यक आदि संपूर्ण विद्या पढ़ चुकी । तब वह ब्राह्मण पण्डित उसे लेकर राजाके समीप उपस्थित हुआ और आशीर्वाद देकर कन्या राजाको सौंप दी। इसपर राजाने उसे उचित पुरस्कार (इनाम) देकर संतोषित किया । एक दिन राजा सुखासन से मंत्री आदि सहित बैठे कि इतने में बड़ी पुत्र आई । राजा उसे तरुणावस्था प्राप्त ये हुए देखकर पूछने लगे- हे पुत्री ! तेरा लग्न ब्याह ) कहां और किसके साथ होना चाहिए ? तुझे कौन वर पसन्द है ? तब सुरसुन्दरी बोली- पिताजी पुण्यके योगसे ही विद्या, धन, ऐश्वर्य रूप, योजनादि सब मिलता है सो तो सब आपके प्रभावसे प्राप्त है ही, और लग्नादि कार्य गृहस्थोंके मंगल कार्य हैं. इन्हीं मुखको प्राप्ति होती है यह भी ठोक है । अच्छा तो यही है कि कन्याओंके योग्य वर पितादि गुरुज नोंके द्वारा तलाश किया जाय, परन्तु यदि श्रीमान मुझसे ही पूछना चाहते हैं तो मुझे कोशांबी नगरीके राजाका पुत्र हरिवाहन जो सर्व गुण संपन्न, रूपवान तथा वन है, पसंद है उसीके साथ मेरा लग्न होना चाहिये। तब राजाने यह बात. स्वीकार को, और बड़े आनन्द व उत्साहसे सुरसुन्दरीका लग्न ( पाह) शुभ मुहर्त में उसके हरिके साथ कर दिया। इसी प्रकार किसी एक दिन छोटी पुत्री मैनासुन्दरी जब. चैत्यालयसे आदीश्वरस्वामीको पूजा कर गंधोदक लिये हुए। पिता के पास आई तो राजाने उसे प्रेम से आओ बेटो ! आवो !! कहकर बैठनेका संकेत किया । पुत्रीने विनय सहित भेंट स्वरूप : 1 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनासुन्दरीका वर्णन | [ २३ राजाके संमुख गंधोदक रख दिया और स्वयोग्य स्थान पर बैठ गई । राजाने पूल- उषा लाई हो बेटी ! पुत्रीने उतर दिया-पिताजी ! यह गंधोदक (जिन भगवानके म्हनकर जल है। इसको शरीर पर लगानेसे अनेकों व्याधियां जैसे कोढ । कुष्ट), दाद, गजकणं खाज ( खुजली) आदि रोग दूर हो जाते हैं । कैसा ही दुर्गन्धित शरीर हो परन्तु थोडे हो समय में इस गंधोदकसे अति सुगंधित स्वर्ण सरीखा निर्मल हो जाता है इस गंध-दकको सुरनर विद्याधर मस्तकपर चढ़ाते हैं और अपने आपको इसकी प्राप्ति होनेपर कृत कृत समझते हैं। देखिये ! जब तीर्थंकर देवका जन्म होता है, तब इन्द्र प्रभुको सुमेरु पर्वत पर ले जाकर एक हजार आठ कलशोंसे अभिषेक करता है । इस अभिषेक का जल इतना बहुत होता है कि उस अलके प्रवाहसे नदी बह जाती है । परन्तु वहां पर परमभक्त सुरनर विद्याधरोंके द्वारा मस्तक में लगाते हुवे वह जल बिलकुल शेष नहीं रहता है । कहाँतक कहें ? इसकी महिमा अपार है । इससे सब इच्छित फलकी प्राप्ति हो सकती हैं। इसलिए आप भी इसे वन्दन कीजिये अर्थात् मस्तकपर लगाइये । यह सुनकर राजाने सहर्ष गंधोदक मस्तकपर चढाया, और पुत्रीको भक्तियुक्त देखकर प्रसन्न हो प्रेमपूर्वक मस्तक चूम मधुर वचनों से उसको परीक्षा करने लगा-पुत्री ! दुष्य क्या वस्तु है.. और वह कैसे प्राप्त होता है ? मेनासुन्दरी कहने लगी- हे तात! सुनोवीतराग सर्वज्ञ अरु, हित उपदेशी देव । धर्म दवामय जानिये, गुरु निप्रन्थकी सेव || Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] श्रीपाल चरित्र । पुण्य उदधि यह जानिये, अहो तात गुण लीन । स्वर्ग मोक्ष दातार ये, प्रगट रत्न हैं तीन ।। अर्थात्-अहंत देव, दयामयी धर्म और निर्ग्रन्थ गुरुको सेवासे ही पुण्यबंध होता है । और तो क्या, इनकी सेवा अनुक्रमसे मोक्षको देनेवालो होती है । राजा पुत्रीके द्वार अपने प्रमनका उत्तर पाकर और भी प्रसन्न हुए, और बिना विचारे पुत्रीसे कहने लगे-हे पुत्री! तू अपने मनके अनुसार जो रूपवान व पराक्रमी वर तुझे पसन्द हो, सो मुझसे कह ! मैं सुरसुन्दरीके समान्द तेरा लग्न तेरी पसन्दमोसे कर दूंगा । यह पिताका वचन मैनासुन्दरीके हृदय में वज्रवत् प्रतीत इंशा । वह चुप ही रही, कुछ भी उत्तर मुहसे नहीं निकला । .. मन सोचने लगी ताने ऐसे वचन क्यों कहे ? या कुलोन कन्यायें भी अपने मुहसे वर मांगती हैं ? नहीं २ शोलवान कन्यायें कभी नहीं कह सकती हैं। ___ यथार्थमें जिसने जिनेन्द्र देवको पहिचाना नहीं और निग्रंन्य गुरु दयामयी धर्म नहीं जाना है उनको यही दशा होती है । 'बिना दशलक्षण व रत्नत्रय धर्मके जाने यथार्थमें विवेक नहीं हो - सकला। इत्यादि विचारोंमें निमग्न हुई पुत्री, पृथ्वी को ओर इकटक देखती रही तो भो राजाने इसका भाव न समझा, और फिरसे कहा--पुत्री ! यह लज्जाय बात नहीं है । तूने जो कुछ विचार किया हो अर्थात् जो वर तुझे पसन्द हो सो कह ।। इस प्रकार बारंबार राजाके पूछनेपर वह विचारली थी कि राजाको बुद्धि कहाँ चली गई ! जो निर्लज्ज हुये, इस प्रकार फिर फिरसे प्रश्न कर रहे हैं ? यदि इनने हमारे गुरुका वचन सुना! होता तो कदापि ऐसा बचन महसे नहीं निकालते । इत्यादि । परन्तु जब पिताका विशेष आग्रह देखा तब वह लाचार होकर बोली Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनासुन्दरीका वर्णन । [ २४ हे पिता ! कुलवन्ती कुमारियां अपने मुहसे वर नहीं मांगती। माता पितादि स्वजन वा गुरुजन जिसके साथ ब्याह देते हैं, उनके लिये वहीं वर कामदेव के सत्य होता है । चाहे वह अंधा, खुला, काना, बहरा, पांगुला, कोडी रोगी, राव, रंक, बाल, वृद्ध, रूपवान, कुरूप, मूर्ख, पंडित, निर्दया, निलंज्ज हो अथवा सर्वगुण सम्पन्न हो, परन्तु उन कुमारियोंके लिए वहीं वर उपादेय (ग्रह योग्य) है । कन्याओंका भला बुरा विचारना माता पिताके आधीन है । वे चाहे सो करें। ____ मैंने श्री गुरुके महसे ऐसा ही सुना है, और शास्त्रोंमें भी वही कथा प्रसिद्ध है कि कच्छ सुकच्छ राजाको कन्यायें यशस्वी और सुनन्दा भी जब तरुण हमीं तो उनके पिताने श्री आदीश्वर (ऋषभनाथ) स्वामीको परणाई थी और आदि. नाथको दो कन्यायें ब्राह्मी और सुन्दरी जाब तरुण हुयीं और उनके लग्नका विचार नहीं किया गया तो वे कुमारिकायें समस्त इन्द्रियोंको तुच्छ और दु.स्वरूप समझकर जिनदीक्षा लेकर इस पराधीन स्त्रापर्याय से सदाके लिए छूट गयौं, अर्थात् के स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गमें देव हुयीं । इसलिये हे पिता ! अपने मुंह से वर मांगना अनुचित वा लोक विरुद्ध है । बहिन सुरसुन्दरीने जो वर मांग लिया, सों यह उनको चतुराई नहीं है, परन्तु वे बेचारी क्या करें ? खोटे गुरु (कगुरू) की शिक्षा स्वभाव ही ऐसा है । संगतिका :प्रभाव अवश्य ही होता है । देखो कहा है-- तपे तवापर आय स्वाती जल बद विनट्ठी । कमल पत्रपर सङ्ग वहीं मोती सम दिट्ठी ।। सागर समीप मई मुक्ताफल सोई । “संगतिका प्रभाव प्रगट देखो सब कोई ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ भोपाल चरित्र ! नीच संगसे नीच फल, मध्यम से मध्यम सही उत्तमसे उत्तम मिले, ऐसे श्रीजिन गुरु कही ॥ देखिये यह जीव भी इस संसार में अनादि कर्मबंधात् स्वस्वरूपको भुला हुवा पर [दुद्गला पर्यायों में आपा भाव चतुर्गति में भटकता है और उन कमौके उदयजनित फल में रागद्वेष बुद्धिकर सुख-दुःखरूप इष्टानिष्ट कल्पना करता है तथा उसमें तन्मयी होकर हर्ष विवाद करता है परंतु यह उसकी भूल है। क्योंकि जो कुछ सर्वज्ञने देखा है वह अवश्य होगा | इसलिये समताभाव रखना ही कर्तव्य है । जब कि समीचीन पुरुषको ही कर्मने नहीं छोड़ा तो हमारे जैसे शक्तिहीन मनुष्योंकी क्या बात है । इसलिये हे पिता ! सुरसुन्दरीका वह दोष नहीं था। वह केवल कगुरुको शिक्षाका ही फल था । माता पिताका कर्तव्य है कि वे जब अपनी कन्याओंको विवाह योग्य देखे, तब उत्तम कुलवान्, रूपवान् गुणवान्, अपने बराबरीवाला. सुयोग्य वर ढूंढ़कर उसके साथ व्याह दे । यथार्थ में वे ही कन्यायें प्रशंसनीय हैं जो गुरुजनोंके द्वारा किया हुआ संबंध सहर्ष स्वीकार कर उसीमें संतोष करती हैं। क्योंकि प्रथम तो गुरुजनोंके द्वारा कभी अपनी कन्याओंके साथ अहित होनेकी आशा ही नहीं है और कदाचित् किसी अविचारी माता-पितादि द्वारा भाग्यवश ऐसा ही हो जाय, अर्थात् योग्य बरन भी मीले तो वे उसे पूर्वोपराजित कर्मका फल जानकर उसी प्राप्त वरकी सेवा करें इसही में उनका कल्याण है । संसार में इष्टानिष्ट वस्तुओं का संयोग कर्म के अनुसार स्वयमेव हो आकर मिल जाता है, इसमें किसीका कुछ दोष नहीं होता है, इसलिये पिताजी ! आपको अधिकार है, आप चाहे जिसके साथ व्याहो । - · Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनासुन्दरो का वर्णन २७ यह बात सुनकर राजा कोशित होकर बोले- बस बस पुत्री ! चुप रह सेश उपदेश बहुत हो गया। क्या तेरे गुरुने तुम यही पढाया है कि अपने उनका राजनोंके उपकारका तिरस्कार करे ? तू मेरे घर में तो नाना प्रकारके उसम भोजन करती है, वस्त्राभूषण पहनती है, और सब प्रकार सुख भोग रही है, तो भा कहती है कि मुझे ता सब मेरे कम हीसे मिलता है | यह तेरी कृतज्ञता है । मेनासुन्दरी ने कहा---पिताजी : कायार्थ है । आप मनमें विचार देखिये ! मेरा शुभ कर्मका ही उदय था कि आपके घर जन्म मिला और ये सब सुख भोगने में आये । यदि मेरे अशुभ कर्मका उदय होता, किसी दरिद्रीके घर जन्म लेती, जहां !क दुःख ही दुख मिलता। सो वहां तो आप कुछ, सुख देने आते ही नहीं । भला और भी संसार में अनेक प्राणी दुःखी देखे जाते है, उन्हें व नारकी आदि जोषोंका व देवादिकोंको कौन दुःख व सुख जाकर देता है ? यथार्थमें जीवको उसीका किया हुआ शुभाशुभ कर्म, सुख व दुःखका दाता है । + राजाको पुत्रीके ऐसे वचन सुनकर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ. और उसी समय उसने मनमें यह ठान लो कि अब इसके कर्मको परीक्षा करना चाहिए, जो इतना गबंयुक्त हो रही है। कुछ देर चुप रहा और उपरो मनसे मैनासुन्दरीकी प्रसंशा करता हुआ उठकर महलोंमें चला गया, और मेनासुन्दरी भी हर्षित होकर अपने महलमें चली गई । नगर के लोग पुत्री को देखकर बहुत ही आनन्दित होते थे । कोई कहते थे, यह देवा है, कोई कहते थे, विद्याधरी है, कोई कहते थे, रति है इत्यादि । सारांश यह है कि इसके रूपके समान और किसी स्त्रीका रूप नहीं था । वर्षकी कन्या वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हुई सुखपूर्वक रहने यह षोषी (१६. : Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोपाल परित्र । लमी, और निरन्तर भोजन तैयार होनेपर श्रोमनिके आगमन कालका विचार कर ताराप्रेक्षण करती और मुनि आदि अतिथियों को भक्तिपूर्वक आहारादि दान देतो, परन्तु यदि समय निकल जाता और कोई मनि (अतिथि दृष्टि न पडते तब आत्मनिंदा करतो हई ( कि हाय ! आज मेरे कोई पूर्वोपाजित अन्तराय कर्मके उदयसे अतिथिका योग नहीं मिला इत्यादि ) एक पुरुषके भोजनके योग्य रसोई निकालकर ..किसी दिन-दु:खोको देकर करूणादानको ही भावना भाती हुई भाजनका बठतो। इसी प्रकार नित्य प्रति वह कुमारिका षटकर्म देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान में सावधान रहतो हुई सानन्द काल मेप करने लगी । =*== मैनासुन्दरोका श्रीपालसे ब्याह एक दिन राजा पहाल (मैनासुन्दरीके पिता) को अकस्पात् कोनामनदरीके उन वचनों का स्मरण आ गया । "fक पत्री कहती है कर्म हो प्रधान है" और इसलिये वह तुरन्त ही कोपयुक्त होकर मस्त्रियों के साथ पुत्रोके लिए होन वरको • खोज में निकला। चलते चलते वह उसो चंपापुरके वनमें पहंचा, जहां राजा श्रीपाल सातसौ सखाओं सहित पूर्वोपाजित कर्मका फल (कुष्ट व्याधि) भोग रहे थे । प्रोपाल राजा पहपालको आते देखकर स्वासनही उठ खडे हुये । और यथा योग्य स्वागत करके कुशल समाचार पूछे तथा अपने पास तक मानेका कारण मी पूछा । राजा महुपालके मन्त्रिपोंकों यह देखकर विस्मय हो रहा था कि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेनासुन्दरीका श्रीपाल से ब्याह | [ २९: न जाने राजा क्यों इस कोठी से मिल रहे हैं, जिनके अंगोपांग सड़कर गिर रहे हैं, महा दुर्गन्ध निकल रही है इत्यादि १. कि इतने में हो राजा पहुपालने श्रीपाल से कहा- मैं उनकीड़ा लिए आया हूँ, आपका आगमन यहां किस प्रकार हुआ है? क्यों कर यह नगर बसाया है यह जानना चाहता हूँ । तव श्रीपालने आद्योपांत कुछ कथा कह सुनाई। यह" सुनकर राजा प्रसन्न होकर बोला- मैं आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हूँ, आपको जो चाहिये सो मांगो। श्रीगलने देखकर कहा जो आप प्रसन्न हैं, और वर देते हैं, तो आपकी पुत्री मेनासुन्दरी मुझे दीजिये । राजा पहुबालने सुनकर प्रथम तो कुछ मनमें क्रोध किया, पश्चात् मैना सुन्दरीके वाक्योंको स्मरण कर हर्षित होकर बोले- तथास्तु अर्थात् है' कुष्टीराय ! आपको मैंने अपनो लघु कन्या मेनासुन्दरी दी। चलो, शीघ्र मेरे साथ बावो, और कन्याको ब्याह कर सखी हो । श्रीपाल हर्षित हो राजाके साथ चलने को तैयार हुये ! परन्तु ऐसे अवसर में मंत्रियोंसे भला कब चुप रहा जाता है ? तुरन्त ही गद्गद् हो दिन वचनों द्वारा राजासे प्रार्थना करने लगे-- हे नाथ ! बड़ा अनर्थ हो जायेगा। आपको प्रथम ही गुप्त मंत्र कर ऐसा वचन देना चाहिये कहां तो वह षोडश वर्धकी सुकुमारी कन्या और कहां यह कोही अगोपांगगलित शरीरी पुरुष ? ऐसा बनमेल सम्बन्ध उचित नहीं । सब लोग हंसगे और निन्दा करेंगे । हे राजा ! कन्या अपने माता-पिता के अधोन होती है इसलिये उन्हें चाहिए कि योग्यायोग्यका पूर्ण विचार करें । यदि बालकोसे कुछ अपराध भी हो जावे, तो भी माता-पिता उसे क्षमा ही करते हैं। अपने थोडेसे मानादि कषायके वश Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३०] श्रोपान चरित्र । हो अपने अधोन जीवोंको कष्ट पहुंचाना, कि जिससे वे सदा के लिये दुखी हो जायें, कदापि उचित नहीं है। नोति में भी कहा है कि--क्षत्रियोंका कोप बालक, वृद्ध, स्त्री, निर्मल, पशु, आधीन शरण में आये हुए और पीठ दिखाने बालोंपर नहीं होता है। चाहे जो हो परन्तु फिर भये दयाके पात्र हैं इत्यादि नाना प्रकारसे मंत्रियोंने समझाया, परन्तु होनी अमिट है, राजाके मन एक भी न जंचा। उसने उत्तर दिया-बरे मंत्रियों ! तुम लोग इस विषय में कुछ नहीं समझते । यथार्थमें ऐसा पुरुष तान खंड में तलाश करने पर भी नहीं मिलेगा, सिवाय इसके यह उत्तम कुलीन क्षत्री भी है सब कारवार राजाओं सरीखे ही है। रोग तो शरीरका विकार है । माल, खजाना, सैन्य आदिको कुछ भी कमी नहीं है । यह पुरुष परम दयालु न्याय नाति आदि गुणले परिपूर्ण है । जैसे अंधे के हाथसे बटेर पक्षीका आना कठिन है, इसी तरह जो इसे छोड़ जाऊं तो फिर ऐसा वर मिलना कठिन है. इसलिये अवसर हाथसे नहीं जाने देना चाहिए । मंत्रियोंने पुनः विनय की हे स्वामी ! स्त्रियोंको धन, वस्त्र, राज्य और ऐश्वर्य आदिका चाहे जितना सच क्यों न हो परन्तु यदि पतिका सुख न हो तो वह सब कुछ उन्हें के समान है। जाने माता, द्रोपदी, जुल आदिकी कथा नहीं सुनी कि जिन्होंने पूर्ण सुखदर कूल डालकर वे अपने पति कर अनेक प्रकारका वृथा + समझा था, वो कप उन्हें } साग करना ही स्त्रियोंको) यही नहीं मिला तो और सुख सब ऐसे हैं--जैसे कठपुतलीका श्रृंगारना । यद्यपि श्रमका चित इस समय किसी कारण ऐसा हो गया होगा, वरन्तु पोछ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनासुन्दरीका बोपाल से ब्याह 1 [ ३१ - बहुत पछतायेंगे | इसलिए सब काम सोच समझकर हीं - करना चाहिए । यह सुनकर राजाने कहा- मंत्रियों ! तुम्हारा बारंबार "कहना उचित नहीं है । मैं कदापि तुम्हारी बात नहीं मानूंगा । क्योंकि मैनासुन्दरीके वचन मुझे तीरके समान चुभ रहे हैं, इसलिये इससे बढकर उसके कर्मको परीक्षा करनेका अवसर दूसरा न मिलेगा | बस जो होना था सो हो गया । अब मेरे वचनको फिरानेका किसकी ताकत है ऐसा कहकर तुरन्त ही गजा पहुपाल राजा श्रीपाल कोढीको साथ लेकर स्वस्थानकी ओर विहार किया। कुछ समय बाद वे जब नगर के निकट पहुंचे तो श्रीपालको उनके सातसौ सखों समेत नगर के बाह्य उपबनमें डेरा देकर, आप (राजा) प्रथम ही मैनासुन्दरीके निकट पहुँचा और हर्षित होकर बोला- पुत्री ! अब भी तुम कर्मका हठ छोड़ो और विचार कर कहो कि कौन बर पसंद है ? तब पुत्रों बोली- ताल ! जो मुर्ति क्रियायें सावधान होकर भी दर्शन अष्ट हो, जो धर्मात्मा होकर क्या रहित हों, जो विवेकहीन ध्यानी हों, जो क्रोधो होकर त्यागी रहें और पुत्र गुणवान होकर भी बताये वचकोलोपनेवाले हों, तो उनके सब गुण व्यर्थ हैं ऐसे क्रिया, वादों कुछ लाभ नहीं है। इसलिये जा चाहें सिनेमे भिग्रहण करादे नहीं गुझे स्वीकार है । राजाकी पुत्रीके इस नोतियुक्त चक्कों कुछ भी संतोष न हुआ वह कहने लगे-पुत्री ! मैंने तेरे लिए कोटी तलाश दिया है। तु करो बर्ष पद के बनन सुनकर बहुत ति हो कहने लगी है तात ! कर्मके अनुसार जो वर मुझे मिला वही स्वीकार है। इस जन्म में वो मेरा स्वामी वही कोड़ों है । उसके सिवाय मम संसारके ओरा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ 1 श्रीपाल चरित्र । पुरुष आपके (पिठाके) समान हैं। यधपि मनासुन्दरोने के वचन प्रसन्न मनसे कहे थे परन्तु राजा को नहीं रूचे । वह बोला-पुत्रो! तू बहुत हो हठोली है । तेरा स्वभाव दुष्ट है, तू विचारशून्य है, अब भो हठ छोड़ दे, परन्तु मैना- . मुन्दगोरे हो नौ प्रकारको ही न लिया था । वह बोली-पिताजी ! आप चिन्ता न करें, कर्मको गति विचित्र है । शुभ उदयसे अनिष्ट वस्तु इष्टरूप, और अशुभ उदयसे इष्ट भी अनिष्टरूप परमणतो है, इसलिये अब जो कुछ होना था मोहो गया, इसमें कुछ सोचने विचारनेको आवश्यकता नहीं है। जब राजाने देखा कि अब तो पुत्रो भो हट पकड़ गई है, तव लाचार होकर ज्योतिषिको बलाया। और विवाह का उत्तम मुहूर्त पूछने लगी । तब ज्योतिषीने लग्न विचारकर कहा-नरनाथ ! आजका मुहूर्त बहुत ही अच्छा है । ऐसा मुहूर्त फिर बीसों वर्षों तक भी नहीं बनेगा । क्योंकि सूर्य, चन्द्र और गुरु ये तीनों वर और कन्याके लिये बहुत ही अच्छे हैं । ऐसा उत्तम और निकट मूहूर्त सुनकर राजा प्रसन्न हुआ । और विप्रको दक्षिणा देने लगा-तब उसने हाथ लम्बा नहीं किया, अर्थात् दान, नहीं लिया । जब राजाने इसका कारण पूछा, तो वह वर्तमान वरकी स्थिति पर शोक प्रकाशित करके कहने लगा हे राजन ! संसारमें प्राणी कर्मसे बांधा हुआ है । आपका इसमें क्या दोष है ? कन्या का भाग्य ही ऐसा है जो रूप और गुणको खान होते हुए भी कोढ़ी के साथ भ्याही जा रही है । हे राजा ! आपको ही विचार करना चाहिये था । आप ऐसे चतुर, न्यायीं और नीतिवान होते हुए भी केसे भूल गये? Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौनासुन्दरीका श्रीपालसे ब्याह । [३३ आपको बुद्धि कहां चली गयी, जो यह अनर्थ करने पर उद्यत्त हो गये ? मालूम होता है कि अब राज्यका का अशुभ होनहार है । ऐसा कहकर बिना ही द्रव्य लिए यह ब्राह्मण घरको चला गया । अब क्या था, सब नगर में तथा आसपास चारो ओर सोते, बैटते, खाते, पीते हर समय यही कथा होने लगी। जो कोई इस बात को सुनता था, वहो राजाको बुद्धि को धिक्कारता था । ___ जब विवाह कार्य आरम्भ होने लगा, तब पुनः मंत्रियोंने आकर निवेदन किया कि हे राजन ! देखो अनीति होती है, इसका परिपाक अच्छा नहीं है । एक अबला बालिका के साथ ऐसा अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है । आप प्रजापालक है, फिर तो यह आपकी तनुजा है । देखिये, विचारिये जो राजा मंत्रियोंके वचन पर विचार नहीं करते हैं, जो सुभट रण त्याग कर भागते हैं, जो शूर. वीर क्रोध छोड़ देते हैं, जो साधु क्रोध धारण करते हैं जो दाता विवेकहीन होते हैं, जो साधु वाद करते हैं, जो रोगी उदास रहते हैं, जो चोर अपना भेद बता देते हैं, जो रोगी स्वादके ग्राही होते हैं, जो साधु उधार लेन देन करते हैं, जो वेश्या व्रत लेकर बैठती है, जो स्त्रियां स्वतन्त्र हो घरोंधर डोलती हैं, जो पात्र क्रिया रहित होते हैं, और जो तपस्वी लोभी होते हैं वह अवश्य ही नष्ट हो जाते हैं। इसलिए बहुत क्या कहा जाय ? अब भी चेन जाओ और पुत्रीको दारूण दुःखमें डालने से बचाओ । हे महाराज ! अबतक तो आप सदैव मंत्र (विचार) के Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] 'श्रीपाल चरित्र | अनुसार चलते थे, परन्तु आज क्या हो गया है ? जो ऐसो रूप और गुणों को खानि पुत्रोको एक कोढ़ी पुरुष को दे रहे हो ? हम लोग आपसे सत्य और आग्रहपूर्वक कहते हैं कि इसके बदले आपको बहुत दुःख उठाना पड़ेगा इसलिए आप हठ छोड़ दाजिये । यह सुनकर राजा कहने लगा हे बुद्धिमान मंत्रियों ! कुम बिना विचारे हा क्यों व्यर्थ बकवाद करते हो ? मैं जो तिलक कर चुका हूं, क्या वह भी कोइ फिरा सकता है ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। जो कह चुका हूँ, वही होगा । राजाओं के वचन नहीं जाते, चाहे प्राण भले ही चले जांय । कहा है सिंह लगन कदलो फलन, नृपति वचन इकवार | तिरिया तेल हमीर हठ, घड़े न दूजी बार। " मंत्रियोंने फिर भी साहसकर कहा--- हे राजा ! आपका कुल अति निर्मल है उसकों आप कलंकित न करें। यह दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर व्यर्थ अपयश लेना ठीक नहीं है । आपके जैसा निद्य कार्य कोई अविवेकी 'भी नहीं करेगा । इसलिये ऐसा नोच कृत्य आपको कदापि काल नहीं करना चाहिए। यद्यपि मंत्रियों का कहना राजाके हितके ही लिये था, लेकिन जैसे पित्त ज्वरवालेको मिठाई भी कड़वा मालूम होती है, उसी प्रकार हठ रोगसे पीडित तीव्र कषायके उदयमें राजाको मंत्रियोंके वचन बहुत ही बुरे मालुम हुए | वह क्रोध से भरे हुए लालर नेत्र करके बोला बस, बस, बहुत हुआ, चुप रहो ! अब तक मैंने तुम्हारा मान रखा, और कुछ भी नहीं कहा । मेरे मनमें कुछ और है और तुम लोग कुछ और हो कहते हो । सेवकका काम है कि स्वामीको इच्छानुसार प्रवर्ते । यदि अब तुम लोग कुछ भी विरूद्ध बोलोगे, तो दण्डके भागी होवोगे । . Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैना सुन्दरीका थोपालसे ब्याह | [ ३५ मंत्रीगण राजा के क्रोध भरे वचन सुनकर बोले हे महाराजा ! हम लोग निर्भय होकर प्रार्थना करते हैं । हम लोगोको दण्डका कुछ भी भय नहीं होता, क्योंकि हमारे फुलकी वह रीति है कि स्वामीका हित जिस प्रकार होता देखें, उसी प्रकार कार्य करें, और अयोग्य प्रवृत्तिको यथाशक्ति रोकनेका पूर्ण प्रयत्न करें ! यदि हर लोग ऐसा न करें, तो हमारे कुलकी रीति तथा धर्म जाता है और हम कर्तव्य से च्युत हो जाते हैं । इसी प्रकार से राजाओंका भी यही स्वभाव होता है कि उनको जब कि कोइ विशेष कार्य करना होता है, तब मंत्रियोंको बुलाकर उनसे मंत्र करते हैं और सब मिलकर जो राय अधिक प्रशंसनीय होता है, उसीके अनुसार कार्य करते हैं। यही रीति परम्परासे चली आती है इसीसे हम लोग बारम्बार कहते हैं। इसमें हमारा कुछ भी दोष नहीं है । स्वामीक कार्य करने में हमें जीने और मरनेका कुछ भी संशय नहीं रहता है । हे राजन् ! विचार कीजिये, और हठका परित्याग कीजिये । इस प्रकार मंत्रियोंने यद्यपि बहुत समझाया, परन्तु राजा के वित्त पर एक भो बात न जमी, जैसे चिकने घड़ेपर पानी नहीं ठहरता है । वह निःशंक होकर बोला- अरे मंत्रियों ! अब चतुराई करने का समय नहीं है । आप लोग शोध ही मेरी आज्ञानुसार विवाह को तयारी करो, मैना सुन्दरीके वरकी शोभा (व्याहका एक नेग है जो अगवानी के समय एक सुन्दर बैल सजाकर उस पर बहुत सुवर्ण मुद्रायें तथा अन्य रत्नादि लादकर वरको भेंट स्वरुप देते हैं) पहुँचावो | तत्र लाचार होकर मंत्री अपनासा मुह लेकर उठ खड़े हुए, और आज्ञानुसार विवाहोत्सवका प्रवन्ध करने लगे, सो ठाक ही है । कहा है - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] श्रीपाल चरित्र | नौकर बन्धु वा भामिनी, ऋणी कर्मयुत जीव । ये पांचों संसार में परवश भ्रमैं 'सदीव' || इस प्रकार के मंत्री लोग तथा स्वत्रन परजन सभी राजाज्ञासे विवाहोत्सव में सम्मिलित हुए, और विविध प्रकारके मंगलगान नृत्य वादित्रादि होने लगे । सभा मण्डप सुवणं और रत्नोंसे सजाया गया। जिसमें मोतियोंके बन्धनवार ( तोरण ) लटकाये गये । विवाह मण्डप हरे वांस पल्लव और पुष्पोंसे सजाया गया। सुवासन (सौभाग्यवती स्त्रियामोशि योंके चूर्ण से चौक पूरने लगी, इत्यादि यह सब कुछ होता या, परन्तु जैसे जल में रहते हुए भी कमल जलसे भिन्न हो रहता है। उसी प्रकार इन सबै उत्सव में सम्मिलित होनेवालों को दशा थी। सभी लोग राजाकी बुद्धिको मन ही मन धिक्कारते और कन्याकी दशाका विचार कर करुणार्त हो रहे थे। कहीं बाजे बजते थे और शोकागारसा बन रहा था तात्पर्य वह एक ऐसा विचित्र आश्चर्यकारक अवसर था कि नवागन्तुक पुरुष (जो इस भेदको न जानता हो) की बुद्धि बड़े गोरखधन्धे में पड जाती यो । वह यह नहीं जान सकता था, कि यह विवाहोत्सव है या कोई शोकसमारोह है । यद्यपि विवाहकी तैयारियां जैसी राजाओंके यहां होनी चाहिये सब वैसी ही संपूर्ण प्रकार से हुई थी. परन्तु कन्या के भक्तिव्यका विचार मन में उत्पन्न होते ही वह सब रागरंग भूल जाता था । सब लोग चिन्तित थे, परन्तु राजा पहुपालको तो यह पड़ रही थी कि कब फेरे फिर । कारण कि कहीं विघ्न न आ जावें । इसलिये वह मंत्रियोंसे बोला- मंत्रियों ! मुहूर्त आ पहुचा है । तुम लोग शीघ्र ही जाकर वरको सादर ले आओ। मेरा चित्त अत्यन्त विह्वल हो रहा है कि कब जंवाईको देखूं ? और उसकी यथाशक्ति शुश्रूषा करू । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसमुन्दरीनाभीपाले कम . .. .. मंत्रीगण जो अपने सब उपाय करके निष्फल हो चुके थे 'सो बिना कुछ कहे ही आज्ञानुसार वहां पहुचे, जहाँ कुष्टीराज श्रीपालको डेरा दिया गया था, और बढे समारोहसे घर' राजाको ले आये। जो लोग अगवानीको गये थे वे वरको देख देखकर राजाको मन ही मन धिक्कान्ते और उसको हंसी ‘करते थे । राजा पहपालने किसीकी और कुछ भी ध्यान न देकर बड़े आदरमें जंवाईका आगे जाकर स्वागत किया, और उच्चासन देकर बैठाया, तथा उबटन कराकर क्षीर नीर तथा सुगन्धसे भरे हुए कंचन के कलगों से अभिषेक फगया । नाना प्रकार तेल, फुलेल, अगर जा, इत्र आदि शरीरमें मर्दन किए, परन्तु जैसे मैले वर्तन पर कलई नहीं हो सकती, उसी 'प्रकार इन उपचारोंसे श्रीपान के शरीर की दुर्गन्धी कुछ मो -कम न हुई । निदान वरको वस्त्र, आभूषण, और मुकुट, कंकण, जामा इत्यादि सब कुछ पहिराए गये, परन्तु उस समयका यह सब गार ऐसा था, जैसे बन्दरको शृगारना, क्योंकि एक ओर -वस्त्राभूषणोंकी कौनो जगमगाती था तो दूसरी ओर पोप और रूधिरकी धार बह रही थी । इस प्रकार वर घोड़े पर सवार होकर विवाहमाडरमें आया । कामनी घोरी वनरा (फेरे फिरनेके पहिलेका गीत) गाने लगी। जमी समय बहुन भीड़ थी । कारण कि एक तो राजघराने का उत्सव और दूसरे यह 'विचित्र गोरखधंधा । उस समय वहां उस बड़ी मोड में लोगों के मुहसे नाना प्रकार के भाव प्रकट होते थे । किसीके चेहरेसे शोक, किसी केसे विन्ना, किसी केमे भय, किसी केसे ग्लानि, किसीकेसे पाचर्य, किसीकेसे क्रोध और किसीफेसे विरा. गतासो झलकती थी । समो लोग विचारोंमें निमग्न हो रहे भने । और किसने ही लोग केवल कोतकरूपसे ही सम्मिलित Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ । श्रीपाल चरित्र । , हुये थे । अतएव उन्हें क्या चाहे किसीका बुरा हो या भला, अपने कौतुकसे काम उस समय वहां इतनी भीड़ हुई कि आकाश धूल से आच्छादित हो जानेसे सूर्यका प्रकाश भी ढंक गया, मानो, कि सूर्य लज्जा से ही छिप गया हो, किसीका कुछ भी भाव हो, परन्तु श्रीपाल के आनन्दका तो ठिकाना नहीं था सो ठीक ही हैं । जिस ही उनके लिए संपात करके तन, धन और प्राणोंका नाश कर बैठते हैं, यदि वहीं स्त्रीरत्न ऐसो अस्वस्थ अवस्था में भी बिना प्रयास प्राप्त हो जाके तो फिर भला क्यों न हर्ष हो? होना ही चाहिये । इस प्रकार शुभ मुहूर्त में गृहस्थाचार्यने विधिपूर्वक पंचपरमेष्ठी, अग्नि और पंत्र आदिकी साक्षीपूर्वक दोनोंका पाणीग्रहण कर दिया । जब विवाहकी विधि हो चुकी, तब मैंनासुन्दरी अपनें पतिके साथ उनके आश्रम को पहुचाई गई। जो लोग भी पहुँचाने गये थे, उन सबके चेहरे से उस समय तक भी शोक भय, लज्जा आदि भाव प्रवशित होते थे । प्रथम तो पुत्रोको विदाई ( जुदाई ) ही दुःखदाई होती है, तिस पर उसको ऐसे दुनिवार दुःखका होना । इसीसे सब लोगोंकी आखोंसे अश्रुगन हो रहे थे ऐसा मालूम होता था कि मानों श्रावण भादोंकी वर्षाको झड़ी हो लग रही हो । राजा पहुं पाल स्वयं चित्तमें बहुत खेदित और लज्जित हुए, परन्तु क्या करें ? कर्मकी रेखा पर मेख मारने की किसका सामर्थ्य है ? किसीके मुंहसे शब्द नहीं निकलता था। चारो ओर हा, हा खेदकी ध्वनि हो रही थी। रानो मैना सुन्दरीको माता) तथा बड़ी बहिन मैनासुन्दरो के गले के लिपटकर जोर जोरसे रुदन करके कहने लगों - ✓ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनासुन्दरीकाः श्रोपालसे व्याह । । ३९ । हाम पुत्री ! तुने न मालुम : पूर्व जन्मों में कैसे २. कर्म किये. थे, जिनसे इस अथाह दुःख-सागरमें तु डुबोई गई. ! हाय ! तू। कैसे इस आयुको पूर्ण करोगी? हाय ! पुत्रो ! क्यों तूने इच्छित्त वर न मांग नियम ? हायः! कहां त मास-मुकुमारी. बालिका और कहां वह कोही पति ? अरे निदयो कमें किंचित् भी दया नहीं आई मला, अवापर तो यह अन्याय न करता । है स्वामो ! आप दयासिन्धु प्रजापालक थे, परन्तु यापके दया-क्षमा संतोष आदि गुण कहां चले गये ? अयुक्त कार्य क्यों किया ? उस समयके इनके सदनको सुनकर पत्थर भी पिघल जाता तो मनुष्यको बात ही क्या है ? राजा पहुपाल स्वयं नेत्रों में आंसू भर गद्गद् कंठसे सदन कर कहने लगे-हाय कुमति ! तुझे और महीं ठिकाना न मिला, जो आकर मेरे ही हृदयमें वासकर, एक भोली कन्या को ग्राम बना लिया ! हाय ! मैंने हठात् मत्रियों के वचन नहीं सुने, उनका ही तिरस्कार कर दिया ? पुरोहितजीने समझाया तो भी न माना । मैने अपने थोडेसे मिथ्याभिमानके धश होकर पुत्रीको आजन्मके लिए दु:खी किया ! हाय मैना ! क्या करू ? निःसंदेह तेरा कहना सत्य है। बास्तवमें तेरे पूर्वोपार्जित कर्मोका उदय ही ऐसा था, जिसका मैं निमित्त बन गया । अब क्या करू ? हे पुत्री ! तू अपने इस कठोर-. हृदय अपराधी पिताको, अपनी उदारतासे अमा कर ! जहां इस दृश्यको देखकर कठोरसे कठोर हृदयी पुरुष भो एकबार जो खोलकर रो देता, वहां उस सती शीलवती सुन्दर कोमलांगी बालिकाके चेहरेपर अपर्व लूशी झलक रही थी। ___वह इन सब दर्शकोंकी चेष्टापर घुणा प्रकट करती हुई. सोचती थी कि न मालूम क्यों ये लोग ऐसे शुभ अवसर पर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र । समंगलसूचक चिह्न प्रकट करते हैं ? क्यों नहीं शीघ्र हो मेरी विदा कर देते ? क्योंकि ज्यों-ज्यों ये लोग देरो कर रहे हैं त्यों२ मुझं स्त्रामाको सेवामें अन्तर पड़ रहा है और साथ हो मेरे भाग्यको दोष देते हुये मेरे पति के लिए काठी आदि निध वचन कह रहे हैं । जब उससे नहीं रहा गया तल शीर्षस्थरसे बोली "हे माता, पिता, बन्धु आदि गुरुजनों ! यद्यपि आर सज 'लोग मेरे शुभचिन्तक हैं, और अबतक आप लोगोंने जो कुछ भी मेरे लिए किया, वह सब मेरे सुखके हेतु था, परन्तु अब बाप लोगोंके ये वचन मुझे शूलसे भी तीक्ष्ण मालूम होते हैं। मैं अपने पति के लिए ये वचन सुनना नहीं चाहतो | क्या आप लोग नहीं जानते कि स्त्रोका सर्वस्त्र पति हो है ? जो सतो, शीलवती, कुलवती स्त्रियां हैं, वे अपने पति के लिए ऐसे चन कदापि काल सुन नहीं सकती हैं। स्त्रियोंको उनके कर्मानुसार जैसा वर प्राप्त हो जाय वही उनको पूज्य और प्रिय हैं । उसके सिवाय संसारमें उनके लिए अन्य सब पुरुष -मात्र कुरूप अथवा पिता भ्राता व पुष तुल्य हैं । यद्यपि आप लोग मेरे पतिको कुरूप और रोग सहित देख · रहें हैं, परन्तु मेरो दृष्टि में वे कामदेवसे किसी प्रकार भी कम सुन्दर नहीं हैं । व्यथं आप लोग पश्चात्ताप कर रहे हैं मुझे सतोष है, और मैं अपने भाग्यको सराहना करतो हूँ कि जो ऐसे शूरवीर पराक्रमी सर्वगुण सम्पन्न रूपवान वरको प्राप्ति यदि शुभोदय होगा, तो थोडे ही समय बाद आप लोग इन्हें देव गुरु धर्मके प्रसादसे रोगमुक्त देखेंगे । इसलिए आप लोग शांति रखें, किसी प्रकार चिन्ता न करें, संसारमें सब Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनासुन्दरीका श्रीपालसे व्याह । जीव कमांधीन है । सुखके पीछे दुःख और दुःखके पीछे सुख । इसी प्रकार संसारका चक्र चलता है। जो कर्म आता है, उसकी निर्जरा भी होती है । मनुष्यका कर्तव्य है कि उदयनित अवस्थाको पूर्व कर्मका फल समझकर सममाबोंसे भोगे, न कि उसमें हर्ष विषाद कर संक्लेश भावोंसे आस्रव व बन्ध करे । समता भावोंसे शीघ्र ही कोंकी निर्जग होती है और पुण्य कर्मों में स्थिति और अनुभाग बढ़ जाता है । और यदि हर्ष विषादकर भोगता है, तो उदय जनित कर्मोका फल का तो होता नहीं है, -किन्तु विशेष दुःखप्रद मालुम होता है और तीन कषायोंके द्वारा पुन: अशुभ कर्मबन्ध करके आगेके लिए दुःखका बीज बोता है, क्योंकि जोव कर्म भोगने में परतन्त्र है, परन्तु कर्म करने में स्वतन्त्र है । सो उसे चाहिये कि कर्म करते समय सावधान रहे ताकि अशुभ कर्म बन्ध न पा और कर्मफलको समभावोंमे सहन करे, ताकि यहां भी भोगने में अतिशय कष्ट न मालूम होवे और आग,मी आतब तथा बन्धका कारण भी न हो । हे स्वजनगणों ! किसीको सुख दुःख देनेवाला संसारमें कोई भी नहीं है । केवल संसारी जीवों को उनके अन्तरंगमें उत्पन्न हुई इष्टानिष्ट कल्पना ही सुख दुःखका मूल कारण होती है, क्योंकि प्रत्यक्ष देखा जाता है कि जो वस्तु एकको इष्ट है वहो वस्तु किसी दूसरेको अनिष्ट मालुम होती है । यदि कोई बस्तु इष्ट व अनिष्ट होती, तो वह सबको समान रुपसे इष्ट व अनिष्ट होना चाहिये थो, सो ऐसा सो नहीं देखा जाता । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोपाल चरित्र । - - देखिये, जिस महान पुरुषोंको आप लोग अनिष्ट बुद्धिसे देखते हैं, वहीं पुरुष मझे इष्ट प्रतीत होता है, इसलिये आप लोग. इस नर्चाका यहां अन्त कर दीजिये और आगामो अपना समप इस प्रकारको चिन्तामें न बिताईये मेरो सबो यहाँ प्रार्थना है इसमें मेरे विसाजीकः दोष Eि: : ही नह. है, इसलिये कदापि आप लोग उनको कुछ भी कहकर व्यर्थ: क्लेशित न कीजिये। पुत्राके ऐसे आगमानुकून गम्भीर बचन सुनकर सब ओर से धन्य को ध्वनि होने लगा, सबको सन्तोष हुआ। और सब लोग अपने २ स्थानोंको पधारे । राजाने भो कन्याको बहुत . कुछ दाम दहेज आदि देकर विदा किया । यद्यपि विस्तारके : भय से सब दहेजका वर्णन नहीं हो सकता है. तो भी थोडासों कहते हैं। राजो पहपाल ने विदाके समय सब स्वजन, परजन द. पुरजनोंका इच्छित भोजन, और अपने जंचाई राजा श्रोपालको छत्र, चमर, मुकुट, आदि अमूल्य रत्नोंसे सुसज्जित किया तथा पांची कपडे पहिराये । पुत्रीको सम्पूर्ण प्रकारके बहुमूल्य वस्त्र आभपण दिये और साथ में सेवा करने के लिए हजारों दास दासियां, हाथी, घोडे, रथ, प्यादे पालकी, गाय, भैंस और ग्राम, पुर, पट्टन आवि दिये, तथा क्षमा मांगकर उनको विदा किया। कुछ समय तक नगर में यही चर्चा रही । फिर ज्यों ज्यों दिन बोतते गये त्यों त्यों लोग इस बातको भूलने लगे । सो ठीक ही है "कोइ किसीके दु:खको, नाहीं सकत बटाय । जाको धी भृमी गिरी, सी हो लूखो खाय ।।" Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका कुष्ट रोग दूर होना । [४३ श्रीपालका कुष्ट रोग दूर होना जबसे श्रोपाल नी मैनासुन्दरीको विदा कराकर घर लिवालाये तशी तरको सोलाको विकार होने लो-ठीक हैशीलवान् नर जहाँ जहाँ जाय, तहां तहां मंगल होत बनाय । मौनासुन्दरी तन, मन वचन से ग्लानि रहित होकर पति सेवामें लीन हो गई 1 वह पतिपरायणा अपने हाथोंसे पीफ रुधिर इत्यादि धोती, पट्टी बांधती, स्नान कराती, उबटन लगाती, लेप करता, कोमल शय्या बिछाती, वस्त्र बदलाती, प्रकृति और रुचिके अनुसार पथ्य भोजन कराती और श्रीजीसे निरन्तर रोगकी निवृत्ति के लिए प्रार्थना करती थी। नित्यप्रति अतिथियोंको भोजन कराने के पश्चात् पतिको भोजन कराकर पीछे आप भोजन करती। रात्रिको भी जागरण कर पतिसेवा में लत्पर रहती । इस प्रकार जब वह कोमलांगी दिन-रात कठिन परिश्रमपूर्वक पतिसेवा किया करती थी, तब उसे इस प्रकार उद्यमवंत देखकर एक दिन श्रीपालजी बोले प्रिये ! कहां तो तुम अत्यन्त कोमलांगी निर्मल शीलादि गुणों और सुरुपको खानि हो कि तुम्हारे मुखको देखकर चन्द्रमा भी शर्मा जाता है । तुम्हारे मधुर शब्द कोयलको भी मोहित करनेवाले हैं। तुम्हारी ग्रीवा मोरसे भी अधिक शोभा दे रही है, नेत्र मृगी से भी अधिक भोलापन प्रगट करते हैं । कपोल विकसित गुलाबको कलीको शोभाको हरने वाले हैं। नासिका तोतेकी चोंचके समान, होठ अरूण कुसुमकी नाई शोभा देते हैं । दातोकी पंक्ति मोतियों कैसी आमा प्रकट करती है कुछ सुवर्ण कलशोंकी उपमाको धारण करते हैं कटि केहरीके समान कृश ,जधा केले के स्तम्भ समान कोमल चाल हंसनी. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय है, तब देख सकता है या और ४४) भोपाल चरित्र । - कोसी, सी कईसे भा कोमल, महा सुगन्धित शरीर और • कांतिमान तेजस्वो तुम्हारी छबो है, और कहां में अत्यन्त · कुरुष, कष्ट व्याधिसे पोनिल महा दुर्गन्धित शोकादारा हूं। इसलिये हे प्राणवल्लभे ! जब तक मेरे इस अशुभ कर्मका उदय है, तबतक तुप दूर रहो । यह राध रुधिर पांछते हुए तुमको मैं नहीं देख सकता हूं। मुझे तुमको इस प्रकार सेवा करते देखकर बहुत करूणा लग्ना और खेद उत्पन्न होता है. कि तुन जैसी सर्वगुगल स्त्रोको मेरे जैसा रोगो र तार मिला। इसलिए मेरे जब तक असाता कर्मका उच्य है , तर तक तुम अलग रहकर हो सुखसे काल व्यतीत करो । यद्यपि श्रीपाल जो के द्वारा ये वचन मैनासुन्दरोके लिए हित और करुण बुद्धिसे ही कहे गये थे, परन्तु उस समय वे उसे तीक्षण तीरके समान प्रतीत हुए क्योंकि• 'पति निंदा अरु आप बढ़ाई, सहन सके कुलवती लुगाई।' __ यह मंद स्वरसे बोलो-नाथ ! मुझे आपके ये शब्द सुहावने नहीं लगे । क्श दापोसे कोई अपरान बन गया है या सेवामें त्रुटो पाई गई है जो ऐसे तिरस्कार युत वचन कहे गये हैं। प्राणनाथ ! क्या स्वप्न में भी मैं आपको छोड़ सकती हूँ ? कस छाया शरीरसे, चांदनी चन्द्रमासे, धून सूर्यमे, उष्णता अग्निसे, और शोतलता हिमसे कभो पृथक् हो सकता है ? नहीं कदापि नहीं चाहे अवल सुमेरु चल जावे, चाहे मूर्य परिचमसे उदय होकर पूर्वमें अस्त होवे और चाहे जलमें अग्निात् उष्णता हो जावे, तो भा शोलवान् स्त्रियां पति सेवाने विमुख नहीं हो सकती ।। स्त्रियों को संसारमें एक मात्र सुखका आधार उनका पति ही होता है, और यदि पति ही तिरस्कार करे तो फिर Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीगाला जादोग दूर होना। [४५ संसारमें कौन उन्हें अवलम्बन देनेवाला है ? जैसे डालीसे चूका बन्दर और वृक्षसे टूटा फल इनको कोइ सहायक नहीं होता में ही पतिसे विमुख स्त्रियों को भी कोई सहायक नहीं होता है। पुराणों में सीता, द्रोपदा, सुलोचना आदि सतियोंकी कथाएं: प्रसिद्ध हैं कि जिन्होंने और सुखों पर धुल डालकर पति के साथ जंगल, पहाडोंमें शेर, बाग श्याल प्रभति हिंसक पशुओंका सामना करते हुए, कंकर पत्थरोंकी ठोकर खाकर, कांटोंपर चलना स्वीकार किया था परन्तु पतिका साथ छोडना किसी प्रकार स्वीकार नहीं किया । इसलिये हे प्रियतम ! मैं एक क्षणभर भी आपको ऐसी अस्वस्थ अवस्थामें छोडकर अलग नहीं रह सकती। मैं आपको अपना भार बनाकर अपने आपको बड़ी भाग्यवती समझती" हूँ । संसार में वे ही स्त्रियां धन्य है कि जिन्होंने कुछ भी पति--. सेवा की है। प्राणपति ! मेरी दृष्टि में तो आपसे अधिक रूपवान, गुणवान्, धर्यवान, बलवान मनुष्य कोई भी संसारमें नहीं दीखता । मेरे नेत्र तो आपको देखकर हो प्रफुल्लि होते हैं । मोरा हृदय तभीतक पवित्र है, जबतक आपके पद प्रक्षालन करती हूँ। तभोतक धन्य हूँ जबतक आपको मेवा करतो हैं... जो स्त्रियां शील रहित हैं, पतिको निन्दा करने वाली हैं, उनको धिक्कार है । शीलवत ही जगत में प्रधान रत्न है। पीलवान् नर नारियोंके देव भी किंकर होते हैं । और गृहस्थ स्त्रियोंकी शीलवत स्वपतिकी अनुचरो होकर रहना ही है । इसलिये ऐसे पवित्र शीलधर्मको में कदापि नहीं छोड़ सकती । शील ही मेरा स्प है, शील ही आभूषण और शीला : Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र । ही शृंगार है और शील हासे जीना है । इसलिए चाहे सर्वस्व चला जाय, परन्तु यदि शील बच गया, तो कुछ भी नहीं गया समझना चाहिए । इसलिए हे प्राणाधार ! मेरी यह प्रार्थना है कि दासीको सेवासे विमुख न कीजिए। इस समय • आपको सेवासे बढ़कर आनन्द मुझे संसारमें और कुछ हो ही नहीं सकता। श्रीपाल अपनी प्रियतमाके ऐसे वचन सुनकर रोमर हर्षित होकर गद्गद् वाणीसे प्रशंसा करने लगे | वे कहने लगे कि हे गुणनिधे ! तू धन्य है जो तेरे हृदय में शीलकी प्रतिष्ठा है । और मेरा भी भाग्य धन्य है जो तुझसी रुप शोल व गुणको खानि पत्नी मुझे मिली । इसप्रकार परस्पर चातालाप होता रहता था निःसंदेह कर्मको गति भरोक व अमिट है । इसीका विचारकर वे दम्पति परस्पर वार्तालापमें समय व्यतीत करने लगे। सत्य है, कर्मने किसीको भी नहीं छोडा, और तो क्या, वह श्री १००८ पार्श्वनाथ स्वामीपर आक्रमण किए बिना न रहा । यह बात अलग है कि सबलसे वैर करनेसे हार खाकर मरना पड़ा । और देखो सीता, द्रोपदी, अंजनी, रावण, राम बाहुबलि, भरत आदि जो बडे२ बलो और पराक्रमी नररत्न थे उनको भी जब कर्मने नहीं छोडा, तब फिर हमारो तो मात ही क्या है ? हां ! एक उन्हीं पर उसका जोर नहीं चलता जिन्होंने इसको सम्पूर्ण प्रकारले निर्मूल कर दिया है। अहा ! हम भी उन्हींका (कर्म रहित सिद्ध परमोष्ठीका) शरण लेवें तो निश्चय है कि शीघ्र ही कभी हमारे भी कोंका अन्य आवेगा । ऐसा विचार होते ही वे दोनों प्रफुल्लित चित्त होकर श्रीजीके गुणानुवाद गानेमें निमग्न हो गये, ठीक है-- Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on " - - ---- - श्रीपालका कुष्ट रोग दर होना। [४७ कर्म असाता अंत है, उदै जु साता आय । तब सुध बुध सब ऊपझे, आप हि बने उपाय || पश्चात् वे दोनों (दम्पति) उठे और बड़े उत्साह से . स्नानकर शुद्ध वराह, और प्रशुभ मष्ट द्रव्य लेकर श्रा जिन चैत्यालयको वन्दनार्थ गये । सो वहां पहुंचकर प्रथम ही ॐ जय ३ नि.सहि निःसहि निःसाहि' कहकर मन्दिरके अन्दर प्रवेश किया । और फिर तीन प्रदक्षिणा देकर श्री जिनेन्द्रको शांत मुद्राको देखकर परम शांतभावको प्राप्त हो स्तुति करने लगेशांति छबी मन भाई स्वामी तेरी, शांत छबी मन भाई । टेक दर्शन मिथ्या तिमिर नाश हो, स्वपर स्वरुप लखाई । परसत परम शांतिता उपजत, अरचत मोह नशाई। स्वामी दोष अठारह रहित जिनेश्वर, सब जीवन सुखदाई । आप तिरे पर तारण कारण, मोक्ष राह बतलाई । स्वामी।। तुम गुणमाल चितारत ही चित, कठिन कर्म कट जाई । *दीप'जगत जन भव तट पायो,शरण तुम्हारे आई।स्वामी०। इस प्रकार स्तुति करनेके पश्चात् यहां पर विराजमान श्री निग्रन्थ गुरुके चरणकमलोंमें नमस्कार कर दम्पत्ति अपने असाता वेदनोयके नाश होने के निमित्त विनयपूर्वक इस प्रकार पूछने लगे हे स्वामी ! आपके निकट यात्रु और मित्र मब रामान हैं । मिथ्यात्वरूपी अंधकारसे अंध हुए जीवोंको ज्ञानार्जन द्वारा सनेत्र करनेको आप ही समर्थ हैं, हम लोग तो कर्मके मेरे हुए चतुर्गतिका संसारमें भटक रहे हैं, और उन्हीं कर्मों के Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपाल या शुभाशुभ फलमें मोहके उदयसे इष्टानिष्ट कल्पना कर रहे हैं । इसलिये हो हमको सत्यार्थ मार्ग नहीं सूझता। हम लोग हीन शक्ति के धारक इस जड़ शरीरमें ही सुख व दुःखोंका अनुभव कर रहे हैं । और इतने कायर हो रहे हैं कि थोड़ी भी वेदना नहीं सह सकते । इसलिए इस रोगके मतीकारका कोई उपाय हो तो कृपाकर बतलाइये । तब मुनिराज बोलेवत्स ! सुनी। ॥ बसन्ततिलका छन्द ।। धर्म मतिर्भवति किं बहुभाषितेन । जीवे दया भवति किंबहुभिः प्रदान: । शांतर्मनो भवति किं धनदे चतष्टे । आरोग्यमस्ति विमवेन तदा क्रिमस्ति ।। अर्थात्-जिसको धुद्धि धर्म में है, तो बहुत कहने से क्या है ? जिसके अन्तरंगमें जीवोंकी दया वर्तमान है उसे और दानोंसे क्या है ? यदि संतोष चिसमें है तो कुबेरको लक्ष्मीसे क्या है ? और शरीर निरोग है तो और विभूति से क्या प्रयोजन है ? और भी इन्द्रबच्चा ।। बुद्धे फलं तत्वविचारणं च देहस्य सारं व्रतधारणं च १ अर्थस्य सारं किल पात्रदान, वाचः फलं प्रीतिकरं नराणाम् ।। अर्थात-बुद्धिका फल तो तत्वोंको विचार करना देहका फल व्रत धारण करना. धनका फल पात्रदान करना और वाणीका फल हितमित वचन बोलना हैं । इसलिए हे भव्यों ! भगवान ने जो दो प्रकारका धर्म कहा है-एक अनगार-साधुका और दूसरा सागार-गृहस्थका, सो भवसमुद्रके तटपर आये Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९. सरद कुछ दिन सुखके साथ बीतने पर मुनिरामके कहे मैनुसार उसको पुत्र हुअर, जिनका नाम चारुदत्त रखा गया । उम्र बढ़ने के साथ उसमें सद्गुण भी बढ़ते गये। पुण्यवानोंको अच्छी बात अपने आप प्राप्त होती है। चारुदत बचपनसे ही मन लगाकर पढ़ता-लिखता था। पच्चीस वर्षकी उम्र तक किसी प्रकारको विषय-वासना उसे छू तक न गई । वह दिन रात पुस्तकोंका अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तनमें मग्न रहता, इससे बचपनसे ही उसमें विरक्ति-सी आने लगी थी । वह नहीं चाहता था कि विवाह कर संसारके माया-जालमें फंसे । पर माता-पिताके बहुत आग्रह करनेपर उसे अपने मामाकी गुणवती पुत्री मित्रवतीके साथ विवाह करना पड़ा। विवाह तो हो गया, पर तब भी चारुदत उसका रहस्य नहीं समझ पाया । उसने कभी अपनी स्त्रीका मुह तक नहीं देखा । पुत्रकी यह दशा देख उसकी भांको बड़ी चिन्ता हुई। चारुदत्तको विषयोंकी ओर प्रवृत्ति हो इसके लिए उसे ध्यभिचारी लोगोंकी संगतिमें डाल दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली । अब चारुदत्त विषयों में इतना फंस गया कि वह वेश्या-प्रेमी बन गया। उसे लगभग बारह वर्ष वेश्याके यहाँ रहते बीत गये। इस अरसे में उसने अपने पासका सब धन खो दिया । चम्पापुरमें बारुदत्त अच्छे धनिकोंकी गिनती में था, पर अब वह एक साधारण स्थितिका आदमी रह गया । रुपयेकी कमी हो जानेसे उनकी स्त्रीका गहना भा अब उसके खर्चके काममें बाने लगा। वेश्याको कुटनी मांने जब देखा कि चारुदत्त दरिद्र हो गया है, तो अपनी लड़कीसे कहा कि बेटी ! अब तुम्हें इसका साथ जल्द छोड़ देना चाहिये, क्योंकि दरिद्र मनुष्य अपने किसी कामका Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] बाराषना-कथा-कोष नही । वसन्तसेनाकी मांने युक्तिसे चाश्वत्तको घरसे निकाल बाहर किया। वेश्याओंका प्रेम धनके साथ रहता है, अनुष्य के साथ नहीं । अतएव जहां धन नहीं, वहां वेश्याका प्रेम नहीं | अब चारुदत्तको जान पड़ा कि इस प्रकार विषयभोगमें आसक्त रहनेका कैसा भयङ्कर दुष्परिणाम होता है । वह अब वहां एक पलके लिये भी न ठहरा और अपनी स्त्रीके बने आभुषण साथ ले पुरुषार्थ के लिये वदेश निकल पड़ा। उस अवस्थामें अपना काला मुह वह अपनी मांको दिखला ही कैसे सकता था ? वहांसे चलकर चारुदत्त उलूख देशके उशिरावर्त शहरमें पहुंचा । चम्पापुरसे चलते समय उसका मामा भी साथ हो गया था। उशिरावर्त में कपास खरीद कर ये तामलिप्तापुरीकी ओर रवाना हुये । रास्तेमें इन्होंने विधामके लिये एक वनमें डेरा डाल दिया । इतने में जोरसे आँधी आयी, और परस्परको सगड़से बांसोंके धनमें आग लग गयी । मागकी चिनगारियां उड़कर कपासपर जा पड़ी । देखते-देखते सब कपास भस्मीभूत हो गया। इस हानिसे चारुदत्त बहुत दु:खी हुआ। वहांसे अपने मामासे सलाह कर वह समुद्र दत्त सेठके जहाज वारा पवन द्वीपमें पहुँचा, यहां उसके भाग्यका सितारा चमका और उसने खूब धन कमाया । अब उसे जननीके दर्शनके लिये स्वदेश लौट जानेकी इच्छा हुई। उसने चलनेकी तैयारी कर जहाजमें अपना माल असवाव सब लाद दिया । जहाज अनुकूल समय देखकर रवाना हुआ । जैसे-जैसे वह अपनी जन्मभूमिकी ओर बढ़ता जाता था, वैसे-वैसे उसकी प्रसन्नता अधिक होती जाती थी। पर अपना चाहा तो कुछ होता नहीं हैं, जब तक कि देवको वह मंजूर न हो। यही कारण था कि चारुदत्तकी इच्छा पूरी न हो पायी, क्योंकि वनमें हो गया। पापड़ी, गयो । या. और पहांसे Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुस माग अचानक किसी अनिष्टकर जलमग्न शिलासे टकरा कर जहाज ' चूर-चूर हो गया । चारुदत्तका सब माल-असवाब समुद्रके विशाल उदरमें विलीन हो गया । वह फिर पहिले सरीखा दरिद्र हो गया, पर दुःख उठाते-उठाते उसकी सहन शक्ति अत्याधिक हो गयी थी । एकके बाद एक आनेवाले दुःखोंने उसे निराशाके गहरे गढ़ेसे निकाल कर पूर्ण आशावादी और फर्तव्यशील बना दिया था । इसलिए इस बार भी उसे अपनी 'हानिका दुःख विशेष नहीं हुआ, वह फिर धन कमाने के लिये 'विदेश चल पडा । इस बार फिर उसने बहुत धन कमाया । घर लौटते समय फिर उसको पहिले जैसी दशा हुई । इतने में ही उसके बुरे कर्मोका अन्त न हुआ ऐसी भयङ्कर घटनाओंका उसे सात बार सामना करना पड़ा । कष्टपर कष्ट आनेपर भी वह अपने कर्तव्यसे विचलित नहीं हुआ। आखिरी बार जहाजके फट जानेसे वह स्वयं भी समुद्र में जा गिरा. पर भाग्यसे एक तख्तेके सहारे वह किनारे लग गया। यहांसे चलकर यह राजगृह पहुँचा, जहां विष्णुमित्र नामक सन्यासीसे उसकी भेंट हुई । सन्यासीने उससे अपना काम निकलता देख, पहले बडी सज्जनताका बर्ताव किया। चारुदत्तने भी उसे भला आदमी समझ अपनी हालत कह सुनाई 1 विष्णुमित्र भी होंमें हां • मिलाते हुए बोला--"अच्छा हुआ जो तुमने अपना सब हाल कह सुनाया । धनके लिए अब तुम्हें इतना कष्ट न उठाना पडेगा । आओ, मेरे साथ चलो । यहांसे कुछ दूर आगे एक जंगल हैं वहां पर्वतकी तलहटीमें रसायनसे भरा एक कुँआ है। उस रसायनसे सोना बनाया जाता हैं । उससे थोड़ासा रस निकाल कर तुम ले आओ, तो तुम्हारी सारी दरिद्रता दूर हो जायगी । " चारुदत्त सन्यासीके पोछे-पीछे चला । दुर्जनों द्वारा धनके लोभी इसी प्रकार ठगे जाते है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] आगधना-केयो कोष सन्यासीके साथ चारुदत्त एक पर्वतके पास पहुंचा । रस लानेकी सब बातें समझाकर सन्यासीने चारुदत्तके हाथमें एक तुम्बी दी । सीके पर बैठा कर उसे कुएं में उतार दिया । चारुदत्त तुम्बी रस भर रह था कि इतने में एक मनुष्य उसे ऐसा करनेसे रोका। चारुदत्त पहले तो डरा, पर जब उस मनुष्यने कहा कि डरों मत; तब वह कुछ निर्भय होकर बोला--"तुम कौन हो और इस कुए में कैसे आये?" कुएमें बैठा हुआ मनुष्य बोला-'मैं उज्जयिनीका रहनेवाला हूं और मेरा नाम धनदत्त है । सिंहलद्वीपसे लौटते समय तूफानमें पड़कर मेरा जहाज फट गया, जिससे बहुत धन-जनकी हानि हई ! शुभ कर्म से एक पटियां मेरे हाथ लग गया, जिसके सहारे मैं बच गया । समुद्रसे निकल कर मैं अपने शहरको ओर जा रहा था कि रास्तेमैं मुझे यही सन्यासी मिला । यह दुष्ट मुझे धोखा देकर यहां लाया । कुंएमें से रस भर कर देने पर भी इस पापीने पहले मेरे हाथसे तूम्बी ले लो भौर फीर रसी काट कर भाग गया । मैं आ कर कुएमें गिरा । भाग्यसे चोट तो अधिक न लगी, पर दो तीन दिन इसमें पडे रहनेसे अब मेरे प्राण घुट रहें है ।" उसकी हालत सुनकर चारुदत्तको बड़ी दया आई, पर वह स्वयं भी उसो परिस्थितिमें मा फंसा था, इसलिए उसकी कुछ सहायता न कर सका । चारुदत्तनै उससे पूछा-" तो मैं इसे रस भर कर न दू?" धनदत्तने कहा--" ऐसा मत कहो, रस भरकर दे ही दो, सभ्यथा यह ऊपरसे पत्थर वगरेह मार कर बड़ा कष्ट पहुंचावेगा ।" तब चारुदत्तने एक बार तुम्बी रससे भरकर सीके में रख दी । सन्यासीने उसे निकाल लिया । चारुदत्तको निकालने के लिये उसने फिर सीका नीचे डाला। अब की बार स्वयं सोंके पर न बैठकर चारुदत्तने कुछ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलका भाग [ ५३ वजनदार पत्थरोंको उसमें रख दिया । जब सीका आधी दूर आया, तब सन्यासी उसे काटकर चलता बना। चारुदत्तकी जान बच गयी। उसने घनदत्तका बड़ा उपकार माना और कहा- " मिश्र बाज तुमने मुझे जीवनदान दिया है, जिस " उस लिये मैं जन्म-जन्मांतर तक तुम्हारा ऋणी रहूँगा ! कु एसे निकलनेका उपाय पूछनेपर चनदरा बोला - " यहां रस पीने प्रतिदिन एक गोह आया करती है, जो आज चली गई, कल फिर आवेगी, सो तुम पूंछ पकड़कर निकल जाना।' इतना कहते कहते उसका गला रुक गया और प्राण संकटमें पड़ गये । अपने उपकारीको कुछ भी सेवा करने में स्वयंको असमर्थ पा उसने धनदत्तको उत्तम गति में जानेके लिये पवित्र जिनधर्मका उपदेश देकर पंचनमस्कार मंत्र सुनाया और साथ ही सन्यास भी लिवा दिया । " सवेरा होते ही सदाकी तरह उस दिन भी गोह रस पीने आयी । रस पी कर जाते समय चारुदत्तने उसकी पूछ पकड़ ली और उसके सहारे बहार निकल आया। तमाम जंगल पार करनेपर रास्ते में उसकी रुद्रदत्तसे भेंट हो गई । वहांसे वे दोनों अपने मनोरथकी सिद्धि के लिये रत्नद्वीप गये । रत्नद्वीप जानेके लिये पहले एक पर्वतपर जाना पडता था । पर्वत पर जानेका रास्ता बहुत संकीर्ण था । इसलिये वहां जाने के लिये इन्होंने दो बकरे खरोदे और उनपर सवार होकर सकुशल पर्वत पर पहुंच गये। वहां जाकर चारुदत्त साथीने सोचा कि इन दोनों बकरोंको मारकर दो चमड़ेकी थैलियां बनानी चाहिये और उलट कर उनके भीतर घुस दोनोंका मुंह-सी देना चाहिये । मांसके लोभसे यहां सदा भैरुण्ड पक्षी आया करते हैं । वे अपने को उठाकर उसपार रत्नद्वीप ले जायेंगे | वहां थैलियोंको फाड़कर हम बाहर हो जायेंगे । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] आराधना-कपा-कोष मनुष्यको देखकर पक्षी हरकर उड़ जायेंगे और बड़ी सरलतासे उद्देश्य सिर हो जायगा। ___ चारदसने रुददत्तकी पापभरी बातें सुनकर उसे बहुत फटकारा और कहा कि ऐसे पाप द्वारा प्राप्त किये धनकीमुझे कोई जरूरत नहीं। रातको ये दोनों सो गये। चारुदत्तको गाढ़ी नींद में सोया देख पापी रुद्रदत्त चुपकेसे उठा और जहां बकरे वन्धे थे वहां गया। उसने पहले अपने बकरेको मारा और फिर चारुदत्तके बकरेपर हाथ बढ़ाया। इतने में अचानक चारुदत्तकी नींद खुल गई । रुद्रदत्तको अपने पास सोया न पाकर उसका मामा मनका | बार देखा कि पापी रुद्रदत्त बकरेका गला काट रहा है | मारे क्रोषके चारुदत्त लाल-पीला हो गया। उसने रुद्रदत्तके हापसे छुरा छीनकर उसे खुब खरी-खोटी सुनाई। सच है, निर्दयी पुरुष कौन-सा पाप नहीं करते ? उस अधमरे बकरेको टुकर-टुकर देखते पाकर चारुदत्तकर हृदय दयासे भर आया। उसकी आंखों से आंसुओंकी धार बह निकली | बकरा प्राय: काटा जा चुका था। इसलिये उसको बचानेका प्रयत्न करनेसे वह लाचार था । उसकी शांतिके साथ मृत्यु और सुगति के लिये चारुदत्तने उसे. 'पंच-नमस्कार मंत्र ' सुनाकर सन्यास दे दिया। जो धर्मात्मा जिनेन्द्र भगवानके उपदेशका रहस्य समझते हैं उनका जीवन परोपकारके लिये ही होता है । चारुदत्तकी इच्छा पी कि वह पीछे लौट जाय पर इसके. लिये उसके पास कोई साधन न था । इसलिये लाचार हो उसे भी रुद्रदत्तकी तरह उस पैलीकी शरण लेनी पड़ी । उड़ते हुए भेरुण्ड पक्षी दो मांस-पिण्ड देख वहां आये और उन दोनोंको चोंचोसे उठा चलते बने । रास्तेमें उन में परस्पर Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग [ ५५: " लड़ाई होने लगी, जिसके फलस्वरूप रुद्रदश जिस थैली में था, वह चोंच से छूट पड़ी। रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया। मरकय भी अपने पापके फलसे भोगनेके लिये उसे नरकयामी होना पड़ा । चारुदत्तकी थैलीको जो पक्षी लिये था, उसने उसे रत्नद्वीपके एक सुन्दर पर्वतपर ले जाकर रख दिया। चोंच मारते हो चारुदत्त दीख पड़ा और पक्षी डर कर भाग गया। जैसे ही चारुदत्त थैली बाहर निकला कि धूपमें ध्यान लगाये एक महात्मा दीख पडे । उन्हें कड़ी धूपमें मेरुकी तरह निश्चल देख कर चारुदत्तकी उस पर बहुत श्रद्धा हुई । मुनिराजका ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारों कहा--"नों चागम अच्छी तरह तो हो न ?" मुनिके मुखसे अपना नाम सुन कर चारुदत्तको बड़ी खुशी हुई कि इस अपरिचित देशमें भी उसे कोई पहचानता है, साथ ही उसे इस बात पर आश्चर्य भी हुआ। वह मुनिराज से बोला - "प्रभो । मालूम होता है कि आपने कहीं मुझे देखा हैं, बतलाइये तो भला मैं आपको कहां मिला था ?" मुनि बोले- "सुनो, मैं अमितगति विद्याधर हूं । एक दिन मैं चंपापुरीके बगीचेमें अपनी प्रिया के साथ सैर करने गया था। उसी समय धूमसिंह नामक विद्याधर वहां आया और मेरी स्त्रीको देखकर उसको नीयत खराब हो गयी । अपनी विद्याके बलसे उस कामान्ध पापीनें मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी पत्नीको विमान पर बैठा कर आकाश मार्ग से चल दिया। भाग्यवश उस समय तुम व आ गये । तुम्हें दयावान समझ मैंने वहीं रखी एक औषधिको पीस कर मेरे शरीर पर लेप करनेको कहा। तुमने वैसा ही किया. जिससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और वैसे ही छूट गया जिस प्रकार गुरु-उपदेशने जीव माया - मिध्याकी कीलसे छूट जाता है । मैं उसी समय कैलाश पर्वतपर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] आराधना-कपा-कोष गया और धूमसिहको उचित दण्ड दें अपनी स्मोको छुपा लाया। उस समय तुमको मैंने मनमानी वस्तु मांगने को कहा था, पर तुमने कुछ भी लेनेसे इन्कार किया। वह भो ठीक ही था, क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरोंकी भलाई किसी प्रकारको आशासे नहीं करते हैं। इसके बाद मैं अपने नगरको गया और कुछ वर्षों तक राज्यश्रीका खुब मानंद लूटा। बादको मात्म-कल्याणको इच्छासे पुत्रोंको राज्य सौंप मैंने दीक्षा ले ली, जो मोक्षको देनेवाली हैं। चारण ऋद्धिके प्रभावसे में यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूं। यही कारण है कि मैं तूम्हें पहचानता हूँ।" चारुदत्त इन बातोंको सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। यहां अया हो या मुनिराजके दो पुत्र सनकी पूजा करने वहां आये। मुनिराजने चारुवत्तसे भी उनका परिचय कराया। परस्पर मिलकर इन सबको चड़ो प्रसन्नता हुई। - इसो समय एक खुबसूरत युवक वहां आया। युवकने आते ही चारुदसको प्रणाम किया । चारुदत्तने उसे ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा कि पहले तुम्हें गुरुदेवको नमस्कार करना उचित था। आगत युवकने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं पहिले बकरा था। पापी रुद्रदत्त जब मेरा गला खाधा काट चुका था, उस समय भाग्यसे आकर आपने मुझे नमस्कार-मन्त्र सुनाया और साथ हो सन्यास दे दिया मैं शांतिसे मर कर मन्त्रके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। इसलिये मेरे गुरु तो आप हो हैं-आपने ही मुझे सन्मार्ग बतलाया है। वह सौधर्म-देव धर्म-प्रेमसे प्रेरित हो दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्तको भेंट कर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। परोपकारियोंका इस प्रकार सम्मान होना ही चाहिये। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भास मार्ग पर निशार विश और बाराग्रीव मुनिराजको नमस्कार कर चारुदत्तसे बोले--"चलिये, हम आपको आपकी __ जन्मभूमि चम्पापुर में पहुँचा आवे ।" चारुदत्त कृतज्ञता व्यक्त • करते हुए जानेको सहमत हो गया। उन्होंने चारुदत्तको माल असवाव सहित बहुत जल्द विमान द्वारा चम्पापुरी पहुंचा दिया इसके बाद वे उसे नमस्कार कर अपने स्थानको लौट गये। पुग्यबलसे संसार में सब कुछ हो सकता है। अतएव पुण्य प्राप्ति के लिये जिन भगवानके आदेशानुसार दान-पूजा-पूजा शीलरूप चार पवित्र धर्माचरणोका सदा पालन करते रहना चाहिये। अचानक अपने प्रिय पुत्रके आ जानेसे चारुदत्तको मालाको बड़ी खुशी हुई। उन्होंने बार-बार उसे छातीसे लगाकर अपने हृदयको ठण्डा किया। मित्रवतीके भी आनंदका ठिकाना न रहा वह आज अपने प्रितमसे मिलकर जिस सुखका अनुभव कर रही थी, उसकी समानतामें स्वर्गका दिव्य सुख भी तुच्छ है । बातही बातमें चारुदत्तके आनेका समाचार सारे नगरमें फैल गया, जिससे सबको आनन्द हुआ। चारुदत्त किसी समय बड़ा धनी था। अपने कुकर्मोंसे वह राहका भिखारी बन गया । जब उसे अपनी दशाका ज्ञान हुआ तो फिर पुरुषार्थी बनकर उसने कठिनाइयोंका सामना किया । कई बार असफल होनेपर भी वह निराशा नहीं हुआ । अपने उद्योगसे उसके भाग्यका सितारा फिर चमक उठा और पूर्ण तेज प्रकाश करने लगा। कई वर्षोंतक खूब सुख भोगकर अपनी जगह अपने 'सुन्दर' नामके पुत्रको नियुक्त कर वह उदासीन हो गया। दीक्षा ले उसने सप आरम्भ किया और अन्त में सन्यास सहित मरकर स्वर्ग लाभ किया । स्वर्गमें वह नाना प्रकारके भोगोंको भोगता Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना-कथा-कोष =-=-ren u narist .-:.- .-menहुआ सुखसे रहता है। सुमेरु और कैलाश पर्वत आदि स्थानोंकजिन मन्दिरोंमें जाना, विदेह क्षेत्र जाकर साक्षात् तीर्थपुर केवली भगवानकी स्तुति करना तथा उनका धर्मोपदेश सुनना आदि धर्म साधनमें ही वहां अधिक समय लगता है। जिन भगवानके प्रचारित धर्मकी, इन्द्र, नागेन्द्र विद्याधर आदि भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, तुम भी इसी धर्मका आश्रय लो, जिससे परम पदको प्रान कर सको । -: * :-- पराशर मुनिकी कथा जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर अन्य मतोंकी असत्कल्पनाओंका सत्पुरुषोंको ज्ञान हो, इसलिये उन्हींके शास्त्रोंमें लिखी हुई पराशर नामक तपस्वीकी कपा लिखी जाती हैं । __हस्तिनापुरमें गङ्गभट नामक एक धीवर रहता था। एक दिन नदी में उसे एक बड़ी मछली मिली, जिसके चीरने पर उसमें से एक सुन्दर कन्या निकली। उसके शरीरसे बड़ी दुर्गन्ध निकल रहीं थी। धीवरने उसका नाम सत्यवती रखा, यत्नसे उसका पालन-पोषण करने लगा 1 मछलीसे कन्या पैदा हो, यह बात सर्वथा असम्भव होने पर भी, लोग आंख बन्द कर ऐसी बातों पर विश्वास किये चले जाते हैं। __सत्यवती जब बड़ी हुई, तब एक दिन गङ्गभट उसे नदी किनारे नावपर बैठाकर आप किसी कामसे घरपर आ गया । इतने में पराशर मुनि वहां आ पहुँचे और सत्यवतोसे बोले-"लरकी मुझे नदी पार जाना है, तू नावपर बैठाकर मुझे पार कर दे।" मोलो सत्यवती उनकी बात मान उन्हें नावपर बैठाकर नाव खेने लगी । सत्यवती सुन्दर तो पो. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग [ ५९ ही उसकी खिलती हुई जवानीने तपस्वीके सपको डगमगाय दिया। कामके वश हो उन्होंने अपनी पापमयी मनोवृत्ति सत्यवती पर प्रकट की । सत्यवती सुनकर लज्जित हुई और डरती हुई बोली - "महाराज ! आप जैसे सर्व समर्थ धर्मात्मा के लिये मैं दुर्गन्धमय नीच जातिकी लड़की कैसे योग्य हो सकती हूँ ?" पराशरको इस भोली लड़की के निष्कपट विचार पर भो धर्म न आई, कामियोंको शर्म कहां ? उन्होंने सत्यवती से कहा- "मैं अभी तेरा शरीर सुगन्धमय बना देता हूँ और अपने तपोबल से तत्काल वैसा कर भी दिखाया ।" उनके प्रभावको देख सत्यवती राजी हो गई और बोली - "महाराज ! किनारे के लोग यह देखकर क्या कहेंगे ?" तब पराशरने आकाशको धुंधलाकर ( जिससे कोई देख न सके ) अपनी काम वासना पूरी की। इसके बाद उन्होने नदी में बीच में ही एक छोटा सा गांव बसाया और सत्यवतीसे विवाह कर वहां रहने लगे । कुछ दिन बाद सत्यवतीके व्यास नामक पुत्र हुआ । जन्मकाल से ही उसके सिर पर जटाएँ थीं और वह यज्ञोपवीत पहिने था । जन्मते ही वह पिताको प्रणाम कर तपस्या करने चला गया। ये बाते पागल के प्रलाप छोड़ और क्या हो सकती है और विवेक बुद्धिवाले इनपर विश्वास भी कैसे कर सकते हैं ? भक्तिके आवेश में आ कर असत्य पर विश्वास करनेबालोंने ऐसा लिख मारा हैं । अतएव बुद्धिमानोंको उचित है कि वे उन विद्वानोंकी संगति करें, जो जैनधर्मके रहृश्यको समझते हैं तथा जैन शाखका श्रद्धा के साथ अध्ययन करें और उनमें अपनी पवित्र बुद्धिको लगायें। इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त होगा । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामस-कथा-कोष सात्यकि और रुद्रकी कथा केवल ज्ञान हो जिनका नेत्र है, ऐसे जिन भगवानको नमस्कार कर शास्त्रानुसार सात्यकि और रुद्रको कथा लिखी जाती है । __ गन्धार देश के महेश्वरपुर नामक सुन्दर शहरमें सत्यन्धर नामक राजा अपनी स्त्री सत्यवती के साथ रहते थे। इनके -सात्यकि नामका एक पुत्र हुआ, जिसने राजविद्यामें बड़ो कुशलता प्राप्त की। __उस समय सिंधु देशका विशालानग रोका राजा चहेक । जैनम्रर्म का पालक और जिनेन्द्र भगवान का सच्चा भक्त था। उसको रानी सुभद्रा बड़ो पतिव्रता और वर्मात्मा थो । उसको सात कन्यायें थीं, जिनका नाम पवित्रा, मृगावती, सुप्रभा, 'प्रभावतो, चेतनो, ज्येष्ठा और चन्दना था । सम्राट श्रेणिकने चहेकले चेलिनोको मांगा, पर पहेकने उनको आयु अधिक देख, लड़की देने से इनकार कर दिया । धेणिक को यह बहुत बुरा लगा। अपने पिताका दुःखका कारण जानकर अभयकुमारने उनका एक सुन्दर चित्र बनवाया ओर उसे ले विशाला पहुँचा। वह चित्र चेलिनोको दिखलाकर उसने उसे श्रेणिकपर मुग्ध कर लिया । बहेकको सम्मति अनुकूल न देख अमयकुमारने चेलिनोको गुप्त मार्ग से ले जाने का विचार किया । जब चेलिनो उसके साथ जानेको तैयार हुई, तब ज्प्रेष्ठाने भो साथ चलने को कहा | चेलिनो राजो तो हो गई, पर बादमें उसे ले जाना ठीक नहीं समझ थोड़ा दूर जानेपर ज्येअसे कहा-“बहन ! मैं अपने आभूषण तो महल में हो भूल आयी हूँ, तू जाकर उन्हें ले आ? मैं अबतक यहीं खड़ो हूँ।" ने चारो ज्येष्ठा उसके फांसे में बा गई Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग [६१. और भाभूषण लामे चली गई। लौटमेपर उसमे देखा कि यहां कोई नहीं है। अपनी बहनकी कुटिलतासे ज्येष्ठाको बहुत दुःख हुआ। इस दु:ख के मारे यशस्वती मायिकाके पास गई और वह दीक्षित हो गई । ज्येष्ठाकी सगाई सत्यन्धरके पुत्र सात्यकिसे हो चुकी थी। जब सायाकने उसके दीक्षा लेने की बात मुन्नी, जो वादी समाधि मुनिसे दीक्षा लेकर मुनि हो गया। ___एक दिन यशस्वती, ज्येष्ठा आदि आयिकाएं श्री वर्द्धमान भगवानकी वन्दना करने चलीं। बनमें पहुँचते ही खूब जोरसे पानी बरसने लगा, जिससे आयिका संघको बड़ा कष्ट हुआ, उनका संघ तितर-बितर हो गया। ज्येष्ठा कालगुहा नामकी गुफामें पहुंची और उसे एकांत समझ शरीरके भीगे बस्त्रोंको उतार उन्हें निचोड़ने लगी । सायकि मुनि' भी इसी गुफामें ध्यान कर रहे थे। उन्होंने ज्येष्ठा आर्यिकाका खुला शरीर देख लिया । देखते ही कामवश हो, उन्होंने अपने शोलरूपी मौलिक रत्नको मार्यिकाके शरीररूपी अग्निमें झोंक दिया । कामसे अन्धा बना हुआ मनुष्य क्या नहीं कर सकता ? ___ आयिका यशस्वतो ज्येष्ठाकी चेष्टा यादिसे उसकी दशा जान गई । धर्म अपवादके भयसे वह ज्येष्ठाको चेलिनीके पास रख आई, चेलिनीसे उसे गुप्त रीतिसे अपने यहां रख लिया। नौ महीने बाद ज्येष्ठाको पुत्र हुमा, जिसे अंगिकने 'चेलिनीको पुत्र हुआ है', इस रूपमें प्रगट किया । ज्येष्ठा उसे वहीं छोड़, स्वयं आयिका संघमें चली आई और प्रायश्चित लेकर तपस्विनी हो गयी। उसका लड़का थेणिकके घर पलने लगा । बचपनसे सत अच्छी न रहने के कारण उसके स्वभावमें कठोरता आ गई । वह अपने साथ खेलनेवाले लड़कोंको रुद्रताके साथ मारने-पीटने लगा, जिसकी शिकायत Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] बाराधना-कथा-कोष 'महारानी तक पहुँच गयो । उन्होंने उसका सौत्र स्वमाव देखकर नाम भी रुद्र रख दिया। जो वृक्ष जबसे खराब होता हैं उनके फलोंमें मिठापन कहांसे आ सकता हैं ? एक दिन रुद्रसे और कोई अपराध बन पड़ा, जिसे सुन चेलिनोने कोषके आवेशमें यहां तक कह डाला कि किसने इस दुष्टको जना और किसे यह कष्ट देता है। जिसे यह अपनी माता समझता था, उसके मुखसे ऐसी बात सुन रुद्र गहरे विचारमें पड़ गया। उसने सोचा कि इसमें कोई कारण अवश्य हैं। णिकके पास जाकर उसने पूछा-"पिताजी ! सच बताई ये कि मेरे पिता कौन हैं और कहां है ? पहले तो श्रेणिकने आनाकानी की, पर जबरुद्र बहुत पीछे पड़ा, तो लाचार हो उन्हें सब बातें सच्ची बता देनी पड़ी। रुद्रको इससे बड़ा · वैराग्य हुआ और वह तभी अपने पिताके पास जा कर मुनि हो गया । एक दिन रुद्र ग्यारह अंग और दश पूर्वका ऊंचे स्वरसे पाठ कर रहा था। उस समय श्रुतज्ञानके माहात्म्यसे पांच सौ बड़ी विद्याएँ और सात सौ छोटी विद्याएँ सिद्ध होकर आई। उन्होंने रुद्रसे अपनेको स्वीकार करने को प्रार्थना की। रुद्रने लालचवश उन्हें स्वीकार तो कर लिया, पर लोग आगे होने वाले सुख और कल्याणके नाशका कारण होता है, इसका उसने विचार न किया । ___ उस समय सात्यकि मुनि गोकर्ण पर्वतको ऊँची चोटीपर ध्यान किया करते थे । उनकी वन्दनाको अनेक धर्मात्मा पुरुष आया करते थे। जबसे रुद्रको विद्याएँ सिद्ध हुई, तबसे वह मुनि वन्दनाके लिये आनेवाले धर्मात्मा पुरुषों को अपने विद्याबलसे सिंह, व्याघ्र, गेंडा, चौता आदि हिंसक और भयङ्कर पशुओं द्वारा डसकर पर्वत पर जाने न देता Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग "था । सात्यकि मुनिको मालूम होने पर उन्होंने उसे समझाया और ऐसा करनेसे रोका । कद्रने उनकी बात पर 'ध्यान नहीं दिया और लोगोंको अनेक कष्ट देने लगा। तब सात्यकिने कहा-" तेरे इस पापका फल बुरा होगा और तू 'खियों द्वारा तप-भ्रष्ट होकर मृत्युका ग्रास बनेगा। अतएव अभीसे सम्हल जा, जिससे कुगतियोंका दुःख न भोगना पड़े।" रूद्र पर इस धमकीका भी कोई असर न हुआ और उसने अपती दृष्टता जारी रखी क्योंकि पापियोंके हृदय में सदुपदेश नहीं ठहरता । । एक दिन रुद्र मुनि कैलाश पर्वत पर गया और वहां आतापन योग द्वारा तप करने लगा। इसके बीच एक और कथा है, जिसका इसीसे सम्बन्ध है। विजयार्द्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में मेघनिबद्ध, मेघनिचय और मेनिनाद नामक तीन सुन्दर शहर थे । वहांके राजा कनकरथके उनकी रानी मनोहरसे देवदारु और विद्युजिह्व नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों सच्चरित्र और विद्वान थे । योग्य समझ कनकरय अपने बड़े पुत्र देवदारुको राज्य भार सौंप आप गणधर मुनिराजके पास दीक्षा लेकर योगी बन गये और सबको कल्याण मार्ग बतलाना ही अब उनका लक्ष्य हो गया । दोनों भाइयों में बहुत दिनों तक तो पटी । पर बादमें किसी कारणसे फूट हो गयी। फलस्वरूप छोटे भाईने राज्यके लोभमें पड़कर बडेके विरुद्ध षड्यन्त्र रच उसे राज्यसे निकाल दिया । देवदारुको अपने मानभङ्गका बड़ा दुःख हुआ। वहांसे आकर वह कैलाश पर्वत पर रहने लगा। देवदारुके आठ सुन्दर कन्याएँ थीं । एक दिन सब बहने तालाब में न करने को आई । अपने अपने कपड़े उतार ये नहानेको जलमें Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना-कपा-कोष धुसी, उसी समय रुद्र मुनिने इन्हें खुले शरीर देखा । देखते ही कामसे पीड़ित हो वे इन पर मोहित हो गये और अपनी विधा द्वारा उनके कपड़े धुरा भंगवाये । कन्याएं अब स्नान कर बाहर निकलीं, तो कपडे न देख उन्हें आश्चर्य हुआ। वे लज्जाके मारे व्याकुल होने लगीं। इतने में उनको नजर रुद्र मुनि पर पड़ी और पास जा कर संकोचसे पूछा--"प्रभो ! कृपा कर हमें बताइये कि हमारे कपड़े क्या हो गये?" आपत्ति के समय लज्जा संकोच सब जाता रहता है। रुद्रने निर्लज्जकी तरह उनसे कहा- "हां, मैं तुम्हारे वस्त्रका पता बता सकता है, यदि तुम सब मुझे चाहने लगो।" कन्याओंने कहा--"हम अबोध हैं, यदि पिताजी इस बातको स्वीकार कर लें, तो फिर हमें कोई आपत्ति न रहेगी। इसपर मुनिने उनके वस्त्र लौटा दिये। बालिकाओंने घर जा कर सब बातें अपने पिताजी से कहीं। देवदारुने एक विश्वस्त कर्मचारी द्वारा मुनिको कहला भेजा कि वे अपनी लड़कियोंको उन्हें अर्पण कर सकते हैं, यदि मुनिराज विद्युजिह्वको मार कर उनका राज्य उन्हें वापस दिलबा सकें। रुद्रने स्वीकार कर लिया, रुद्रको अपने अनुकुल देख देवदार उसे घर पर ले आया। राज्य-भ्रष्ट राजा पुनः राज्य प्राप्तिके लिये क्या नहीं कर सकता है ? ___रुद्र विजया पर्वत पर गया और विद्याओंको सहायतासे विद्युजिह्वको मारकर उसी समय देवदारुको सिंहासनपर बैठा दिया। राज्य प्राप्तिके बाद देवदारूने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी को। अपनी सर्ण लड़कियोंका विवाह आनन्द-उत्सवके साथ इनसे कर दिया। इसके सिवाय और भी बहुत सी कन्याओंसे उसने विवाह किया । दिवा-रात्रि उसके काम सेवनके फल-स्वरूप संकड़ों राज-कन्याएं अकालमें हो काल Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- धोपालको माताका श्रीपाल से मिलना। [. ...-..--- लगा लिया। परस्पर कुशल पूछने के बाद राजा पहपालने अपने अविचारितरम्य कृत्यकी निंदा की और पश्चात्तापा करने लगा। तब उस दम्पतिने राजाको विनयपूर्वक समझाकर धैर्य बन्धाया। रामाने पुत्रोमे उसकी पूर्व व्यथा और उसके दुर होनेका वृत्तांत पूछा । तव पुत्रीने माद्योपांत कह सुनाया । यद्यपि इसले राजाको बहुत कुछ शांति मिली, परन्तु मनको शल्यः निःशेष न हुई । ठीक है-कष्टसाध्य वस्तुके सहज सिद्ध हो बानेसे एकदम शंकाका परिहार नहीं हो जाता, जबतक कि ठोकर साक्षी न मिले ! इसलिये राजा अपनी शंका निर्मूल करने के हेतु श्रीगुरुके पास गये, और विनय सहित नमस्कार कर पूछने लगे हे धर्मावतार दयालु प्रभु ! श्रीपालके कोड़ हो जानेका वृत्तांत कृपाकर कहो । तव श्रीगुरुने सब वृत्तांत आद्योपांत अवधिज्ञानके बलसे सुना दिया । सुनते ही राजाको शल्य नि:शेष हो गई। इस प्रकार राजा पहुपाल अपनो पुत्री और जंवाई सहित गुरुको नमस्कार कर निज स्थानको गया, और दोनोंको स्नान कराकर अमूल्य वस्त्राभूषण पहिराये, तथा अनेक प्रकारसे पुत्री और जंवाईकी प्रशंसा व सुश्रुषा की । इस तरह वे परस्पर प्रेमपूर्वक अपना समय आनंदसे : बिताने लगे। हे सर्शज्ञ बीतराग दयालु प्रभु ! जैसे दिन बीपाल व मैनासुन्दरीके फिर ऐसे ही सबके फिरें । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र | उज्जैनीसे श्रीपालका गमन श्रीपालको प्रिया सहित उज्जैनी में रहते हुए बहुत दिन हो गये। क्योंकि आनन्द में समय जाते मालूम नहीं होता था । क दिन दोनों रात्रिको सुखनींद ले रहे थे कि श्रीपालकी नींद अचानक खुल गई. और उनको एक बड़ी भारी चिताने घेर लिया। वे पडे करवट बदलने लगे और दोघं उस्वास सेने लगे 1 भला ऐसी अवस्था जब पतिकी हो गई, तब क्या स्त्रीको निद्रा आ सकती थी ? नहीं कदापि नहीं । एक अंगकी पीडा दूसरे अंगको अवश्य ही होती है । १६ ] वह पतिपरायणा सती तुरन्त ही जागो और पतिके पैर पकड़कर मसलने तथा पूछने लगी- हे नाय! चिंताका कारण क्या है, सो कृपाकर कहीं। क्या राजाने कुछ कटुवचन कहा है ? या स्वदेशको याद आ गई है ? या किसीने आपके चित्तको चुरा लिया है ? अथवा ऐसा हो कोई और कारण है ? हे प्राणधार ! आपको चिन्तित देख मुझे अत्यन्त चिन्ता हो रही है । तव श्रीपालने बहुत संकोच करते हुए कहा-प्रिये ! और तो कोई चिंता नहीं है, केवल यही बिता है कि यहां रहने सब लोग मुझे राज-जंवाई कहते है और मेरे पिताका नाम कोई भी नहीं लेता है। इसलिये वे पुत्र जिनसे विनाकुखव नाम लोप हो जाय, यथार्थ में पुत्र कहलाने के योग्य नहीं है। इस बालक दु:ख मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ है । क्योंक कहा है सुना और सूतके विपे अस्तर इतना हो । वह परवंश बहावती, वह निज बंश हि साय ॥ जो सुत तज निज स्वजनपुर, रहे स्वसुर गृह जाय । •सो कुपूत जग जानिये, अति निर्लज्ज कहाय ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जोंनोसे 'श्रीपालका गमन । [६७ इसलिये हे प्रिये ! अब मुझे यहां एकर क्षण एक वर्ष बराबर बीत रहा है । बस, मुझे यही दुःख है । यह सुनकर मैनासुन्दरीने कहा-हे नाथ ! यह बिल्कुल सत्य है। क्योंकि कहा है-- भाई रहे बहिनके तीर, विन आयुध रण चढ़े जो धीर । "धन धिना दान देन जो कहे, अरु जो जाय सासरे रहे ।। हंस बसे पोखरो जाय, केहरि बसे नगर में आय । -सनो तने मन विकलप रहे, रण से सुभट भागवे कहै । बोले काग आमकी डाल, मान सरोबर बगुला बाल । कुजर ३६ सिंह का हि. वियों को हंसी कराहि ।। मूरख बांचे महापुराण, कुल भामिन मह खोटी बान । इतने जन जग निन्दा ल हैं, ऐसे बड़े सयाने काहें ।। इसलिये आपका विचार अति उत्तम है। प्रत्येक मनुष्यको अपने कुल, देश, जाति, धर्म व पितादि गुरुजनोंके पवित्र नामको सर्वोपरि प्रसिद्ध करना चाहिये, क्योंकि पुत्र ही कुलका दीरक कहा जाता है। जिन पुत्रोंने अपने जाति, कुल, धर्म, देश व पितादि गुरुजनोंके नामका लोप कर दिया यथार्थ में वे पुत्र उस कलके कलंक हैं, इसलिये हे स्वामो ! यहांसे चतुरंग सैन्य साय लेकर आप अपने देशको चलिये और चिता मेटकर सानन्द स्वराज्य भोगिये । अहा ! धन्य है मनाशुन्दरोको कि जिसने पति के सद्विचारमें अपने विचार मिला दिए ! यथार्थमें वे ही स्त्रियां सराहनीय है जा पतिकी अनुगामिनी हो । अन्यथा जो स्त्रियां स्वामीकी आज्ञाके प्रतिकूल हैं वे केबल बेड़ीकी सरहसे दुःखरूप भयानका बन्धन हैं । कहा है Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] श्रीपाल चरित्र | पति आज्ञा अनुसार जो, चले धन्य वह नारि । अरु पति विमुखा जे त्रियां, जैसे तीक्ष्ण कुठारि ॥ अपनी प्रिया के ऐसे वचन सुनकर श्रीपाल बोले- चन्द्र ने " आपने कहा सो ठीक है, परन्तु क्षत्रि कभी किसीके सामने हाथ नीचा ( ) कहा है करपर कर निशिदिन करें करतल कर न करे | जा दिन करतल कर करें। ता दिन मरण गिनेय ॥ इसलिए प्रथम तो मांगना ही बुरा है और कदाचित् यह भा कोई करे तो ऐसा कौन होगा जा अपने हाथ में आया हुआ राज्य दूसरोंको देकर आप स्वयं पराश्रित हो जोवन व्यतीत करेगा ? संसार कनक और कामनी कोई भी किसीको खुशीर नहीं सौंप देता । और यदि ऐसा भा हो तो मेरा पराक्रमः किस तरह प्रगट होगा ? पयार्थ में अपने बाहुबलिये प्राप्त किया हुआ हा राज्य सुखदायक होता है। दूसरे जहांतक अपनी शक्तिसे काम नहीं लिया अर्थात् अपने बलकी परीक्षा कर उसका निश्चय नहीं कर लिया वहतिक राज्य किस आधार पर चल सकता है ? www तीसरे शक्तिको काममें न लानेसे कायरता बढ़ जाती है। पान सई घोड़ा अड़े, विद्या बिसर जाय । बाटो जले अंगारपर किस कारण यह थाय ? उत्तर फेस नहीं । तात्पर्य विद्या अभ्यासकारिणी होती है। इसलिए पुरुषको सदैव सावधान हो रहना उचित है। घर में आग लगनंपर कुबा दाना वृथा है । ऐसे ही शत्रुके आ जानेपर शक्तिको परीक्षा करना व्यर्थ है । इसलिए है प्रियतमें ! मैं विदेश में जाकर निज बाहुबल से राज्यादि वेणव प्राप्त करूंगा। तुम आनन्दसे अपनी सासुकी सदा माताक समान करना और नित्य प्रति श्री जिनदेवका Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - अन्जनीसे श्रीपालका गमन | [६९ पूजन, बन्दन, स्तवन दानादि षट्कर्मों में सावधान रहना व पंचावत मन, वचन, कायसे पालन करना और किसी प्रकारको चिंता न करना । पति के ये वचन उस सतीको यद्यपि दुःखदायक थे और वह स्वग्नमें भी पति विरह सहन करने के लिए अत्यन्त कायर थी, परन्तु जब उपको यह निश्चय हो गया कि अब ये नहीं मानेंगे, और अवश्य ही विदेश जायेंगे, तो फिर इस समय इनको छेड़ने से कुछ भी लाम नहीं होगा, किन्तु यात्रामें "विघ्न आवेगा, इसलिये छेड़छाड़ करना अनुचित है, ऐसा सोचकर उसने धीमे स्वरसे कहा " प्राणधार । यद्यपि मैं आपका क्षणविरह करने को भी असमर्थ हूँ तथापि आपकी आज्ञा में शिरोधार्य करती हूँ परन्तु यह बताइये कि इम अत्रलाको पुग: आपके दर्शन कवतक मिलेंगे ? जिसके सहारे व आशापर चित्तको धेर्य देकर • सन्तोषित किया जाय । " तब श्रीपाल जीने कहा-"प्रिये ! तुम धैर्य रखो, मैं बारह वर्ष पूर्ण होते हो, पोछे आकर तुमसे मिलुगा। इसमें किचित् भी अन्तर न समझना" यह सुनकर मनासुन्दरोने कहा-"हे नाथ ! यद्यपि मैंने अपमान 4 आपका चित्त नेदित होने के भयसे बिना आनाकानी किये हो आपका जाना स्वीकार कर लिया है और स्त्रीका धर्म भी यही है कि पतिको इच्छा प्रमाण प्रवर्ते, परन्तु संगारमें मोह महा प्रबल है, इसलिए मेरा चित्त यारम्बार अधीर हो जाता है। अर्थात् आपके चरणकमल छोडनेको जो नहीं चाहता।। __इसलिए यदि आप इस दासीको भी सेवाके लिए ले चलें, तो बहा उपकार हो। कारण, बारह वर्ष क्या, दासी बारह अल भी विरह सहनेको असमर्थ है। ऐसो नम्र प्रार्थना कर, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] . . . . भोपाल चरिण . . ' ए । स्वामोकी ओर आशावता हो यह प्रतीक्षा करने लगी कि. स्वामो या तो मुझे साथ ले चलग, या अपने ज्ञानेका विचार बन्द कर दंग परन्न ऐमी आशा करना उसका निरर्थक या। क्योंकि बड़े पुरुष जो कुछ विचार करते हैं वह पक्का ही करते हैं, और उसे पूरा कर के ही छोड़ते हैं। कहा भी है-- यदि महज्जन निजवचन, करें न जो निर्वाह ।। तो उनमें अग लघुनमें, अन्तर सूझे नांह ।। निज प्रियाको मोहातुर देव श्रीपाल बोले-प्रिये ! तुम अधीर मत होओ, मैं अवश्य ही अपने कहे हर समय पर आ जाऊंगा । संसारमें जीवोंका परम शत्रु यह मोह हो है । जिसने इसको जीता है वे ही सनचे सुखा हैं । और अधिक . क्या कहा जाय ? निश्चयसे यदि देखो कि दुःख कोई वस्तु है, तो वह मोहके सिवाय और कुछ भी नहीं है । अर्थात् मोह हो दुःख है । यही इष्टानिष्ट चुद्धि कराकर प्राणियोंको माना प्रकार के नाच नचाता है । इसलिए इसका परिहार करना ही उत्तम पुरुषाका काम है । सो चिन्ता न करो। गै उद्यमके लिए जा रहा हूँ । उद्यम करना पुषका कलव्य है। उद्यमहोन पुरुष संसारमें निंद्य और दुःखका पात्र होता है । उद्यमसे हो नर सुर और क्रमपा: मोक्षका भी सुख प्राप्त होता है । जो उद्यम नहीं करते उनका जन्म संसार में -4 है। कहा है धर्मार्थकाममाक्षाणा, यस्यकोऽपि न विद्यते । ___ अजागलस्तनस्येव, तस्य जन्म निरर्थकम् ।। अर्थात्-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोमसे जिसने एक भी प्राप्त नहीं किया उसका जन्म बकरेके गले में लटकते हुए पयरहित स्तनके समान निरर्थक है । इसलिए मोह त्यागकर मुझे अनुमति दो। __ तब वह सती कुछ धैर्य धारण करके बोली-स्वामिन् । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जनोसे श्रीपालका गमन । [७१ मुझे भी खे चलो। तब श्रीपाल' बोल- प्रिय । परदेश में कि सहाय व बिना ठिकाने एकाएक स्त्रीको ले जाना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम तो लोग अनेक प्रकारकी आशंकाय करने लगेंगे और जिन देशोंसे हम लोग सर्वथा अपरिचित्त हैं वहां पर हमारा सहायी कौन ? दूसरे जब कि मैं उद्यमके अर्थ ही विदेश जाता है तो यहां स्त्रीको संग रखकर उद्यम करना " गधेके सींगवत ' असम्भव हैं। हां, तीर्थयात्रा इत्यादि। होता तो ठोक ही था । पुरुषको चाहिए कि परदेश में जबतक भली भांति परिचय हो जाय और उद्यम आदि निश्चित व स्थिर न हो जाया तथा जहाँपर स्वपक्ष न हो जाय वहांपर स्त्रियादिको कभी साथ न ले जाय । किन्तु उन्हें अपने माता पिता आदि बड़े जनोंकी रक्षामें छोड जाय, अथवा उसके माता पिताके घर (यदि अपने घरमें कोई न हो तो) भेज द । और पश्चात सक्त बातोंको निश्चय करके उसे बाल बच्चो सहित ले जाय ।। हां यह बात जरूरी है कि समयानुसार खबर देते लेते रहें । सो हे प्रिये ! मैं तो शोध्र हो आनेवाला हूं। तू चिन्ता मत कर । निदान मैनासुन्दरी उक्त सिखामन सुनकर बोली- स्वामीन् !! यदि आप जाते है और दासीको बिनती नहीं सुनते, तो जाइये;. परंतु एक प्रार्थना है कि इस दासीसे दासत्व करानेका विचार और पंचपरमेष्ठी का ध्यान स्वप्न में भा न भूलिये, क्योंकि वे ही पंचपरमेष्ठी लोक में मंगलोत्तम और शरणधार है। तथा सिद्धचक्रका आराधन भी सदैव कीजियेगा । अपनी माता दी मित्रोंको भी नहीं भुलाइयेगा । मिथ्या देव, गुरु और धर्मका विश्वास न कीजियेगा । ये ही जीवके प्रबल शत्रु हैं। पिनदेव, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ :] श्रीपाल चरित्र | निर्मम्यगुरु और अहिंसा धर्म हो तारनेवाले हैं। विशेष भरत यह और हैं कि, - " LP नारि जाति अति ही चपल, कीजो नहीं विश्वास । जेठो मा तरुणो बहिन, लघु सुता गिन तास ॥ " अर्थात् बडोको मरता बराबरवालीको बहिन और छोटो स्त्रियोको बेटी के समान समझियेगा। परदेशमें नाना प्रकार के होंगी, भूतं पो रहते हैं, इसलिए सोच विचारकर हो कार्य कीजियेगा । स्वामिन् ! में अज्ञान हूं, ढोठ होकर आपके सन्मुख यह वचन कहती हूं, नहीं तो भला मेरी क्या शक्ति जो आपको समझा सक्क? क्षमा कीजिये। एक बात यह और कह देती हूं कि यदि अपनी प्रतिज्ञावर बारह वर्ष पूर्ण होते ही आप न आए तो मैं दूसरे ही दिन प्रातःकाल जिनेश्वरी दीक्षा लेकर इस संसार के जालको तोड बविनाशो सुख के लिए इस पराधीन पर्याय टूटने के उपाय में लग जाऊंगी । अर्थात् जिनदीक्षा- प्राधिकार ग्रहण कर लू बी । तत्र श्रीपालीने कहा- "प्रिये ! बार कहने से क्या ? 'जो मेरा वचन है, उसे मैं अवश्य हो पालन करूंगा, इसके लिए सिद्धको साक्षी देता हूँ " ऐसा कहकर ज्यों ही श्रीपाला चलने लगे, त्योंही वह पुनः मोहवश स्वामीका पल्ला ( चद्दर खुंट ) पकडकर व्याकुल हो कहने लगी । सेना ! मैं तो जानती थी कि आप अबतक केवल विनाद को कर रहे हैं, परन्तु आप तो अब हंसीको सच्ची करने लगे । क्या आप सचमुच ही चले जायेंगे ? भला यह अवजा किस प्रकार कालक्षेप करेगो ? कृपा करो, दासोको अभय वचन दो, मैं आपके दर्शनको प्यासी हूं। आपके बिना मुझे यह सब Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जैनीसे श्रीपालका गमन । . सामग्री दुःखदायी है । यद्यपि मैनासुन्दरो सब जानती थी, - परन्तु दिन ऐसा ही होता है । जब थोपालजीने देखा कि स्त्रियां हठ पकड रही हैं, और इससे कार्यमें विघ्न होनेको सम्भावना है, तब उपरी ... मनसे कुछ क्रोध करके बोले स्त्रियोंका स्वभाव ऐसा ही होता है कि वे हजार "शिक्षा देनेपर अपनी चाल नहीं छोडती न कार्याकार्य ही विचार करतो हैं । बस, छोड दे मुझे ! " यह सुन नेत्र भरकर कांपते२ मैनासुन्दरीने पल्ला छोड दिया, और नीची दृष्टि कर स्वामोके चरणोंकी ओर देखने नगी ठीक है, इसके सिवाय वह और कर ही क्या सकतो थी ? धीपालजीको उसको ऐसी दीन दगा देखकर दया मा गई । ठीक है, दीनको देखकर फिसे दया न होगी ? पाषाण हृदय भी पिघल जायगा, जिसमें भी फिर अबलाओंका दोन झोना तो पुरुषोंको और भो विह्वल बना देता है। यद्यपि भोपालको दया आ गई थी, परन्तु पुरुषार्थका सुल कर लगा रहा था। इसलिए वे किसी प्रकार अपने विसारको बदल नहीं सके । किन्तु अपने विचार पर दृढ़ बने रहकर व स्वर से बोले प्रिये ! चिन्ता न करो। तुम यथार्थ में सतो शीलवती साध्वो हो । तुम्हारा रुदन करना, मेरे चित्तको व्याकुल कर रहा है जो कि मेरी यात्रामें विघ्न करनेवाला है, इसलिये मेरे मुहसे ये अयोर शब्द निकल गये हैं। तुम ऐसा कभी अपने मनमें नहीं विचास्ना कि तुमसे मेरा प्रेम भिसी प्रकार कम हो गया है, किंतु जिस प्रकार तुम मेरे जाने से दु:खित हो, भै भो ... जुम्हें छोडनेमें उससे किसी प्रकार कम दुःखी नहीं हूँ। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] श्रीपाल चरित्र "कहन सुननकी बात नहि: लिखो पढ़ी नहि जास' ।' अपने जियमे जानियो, हमरे स्पिकी बात ।।" परन्तु इस समय मुझे एक बार जाना ही उचित है। तुम . हठ न करो और हषित होकर मुम जाने के लिए अनुमति दो !. निदान मैनामुन्दराने हाथ जोड़ नमस्कार कर पति के चरणों में मस्तपा रख दिया । इस प्रकार श्रीपाल स्त्रोको समझाकर डरते डरते माताके पास आज्ञा लेनेको गये । मन में सोचते जाते थे कि क्या जान माता आज्ञा दगी या नहीं ? यहां से । तो किसी प्रकार निवटेरा हो गया है। इस प्रकार सोचनः जाकर माता चरणाम भस्तक अका दिया. दोनों हाथोंकी अंगुली जोडकर दीन हो खडे हो गये 1 माता पुश्मा बिना समय आगमन देखकर चितावतो होकर नाली पुत्र ! इस समय ऐसी भातुरतासे तेरे आनेका कारण क्या है ? तब श्रीपालने अपने मन का सत्र वृत्तांत कहकर विदेश जानेकी आना मांगी। सुनते ही माता अत्यन्त दु:खित होकर कहने लगी- पुत्र ! एक तो पूर्व असाता कमोन पहिले ही तुमसे वियोग कगया था सो. जमे तने बडे काटमें बहुत दिनाम तुमसे मिलकर अपने हृदयकी दाह पति को थी, परन्तु क्या अब भी निर्दबी कम न देख सका जो पुनः पुत्र से विछोह कराना चाहता है ! ये पुत्र! तुझे यह बसी पुद्धि उत्पन्न हुई है ? ऐ बेटा ! अभी तो मैं तुझे देखकर तेरे पिताम वियोग दुःखको भूली हुई है, सा तेरे बिना मैं कैसे दिन व्यतीत करूगी ?" ____ माता से बचन सुनकर श्रीपान बही नम्रतासे बोले - "हे माता ! मुझे इस समय जाना ही उचित है क्योंकि यहां रहने से यद्यपि मुझे कोई दुःख नहीं है, परन्तु मैं राजजंबाई कहकर बुलाया जाता है. और मेरे पिताका, कुलफा व देशका नाम कोई नहीं लेता है. इसीसे मेरा चित्त व्याकुल है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जैनीसे श्रीपालका गमन । [७५ क्योंकि जिस पुत्रसे पितादि गुरुजनों कुल व देशका नाम न चले वह पुत्र नहीं, किंतु कुलका कलंक है। उनका जन्म ही होना न होने के समान है। इसलिए माताजी ! मुझे सहर्ष आज्ञा व आशीष दीजिए, जिसमें मेरी यात्रा सफल हो । मैं शीघ्न ही । १२ वर्षमें ) लौटकर सेवामें उपस्थित होऊंगा । आप भी जिनेन्द्र का ध्यान कीजिए | और आपकी वध (मनासुन्दरी) आपको सेवामें रहेगो ही तथा सातसो आज्ञाकारो सुभट भी अपनी शरण में उपस्थित रहेंगे। ___ माता कुन्दप्रभा पुत्रका अभिप्राय जान गई, उसे निश्चय हो गया कि अब पुत्र जाने से न रूकेगा इसलिये हठकर रखना ठीक नहीं है और वह कोई बुरे अभिप्राय से तो जा नहीं रहा है इत्यादि, सब वह अपने मनको दृढ़ कर बोली "प्रिय पुत्र ! तुझे जानेको आज्ञा देते हुए मेरा जी निकलता हैं, परन्तु अब मैं तुझ रोकना भी नहीं चाहतो । इसलिये यदि जाते तो जाओ, और सहर्ष जाओ। श्री जिनेंद्रदेव गुरु और धर्मके प्रभावसे तुम्हारी यात्रा सफल होवे । परन्तु हे पुत्र ! विदेशका काम है बहुत होशियारीसे रहना । परधन और परस्त्रियाँ पर दृष्टि न डालना । सब जीवोंको आप समान जानना । कहा है - मातृवत् परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत् । आत्मबत् सर्वभूतेषु, य: जानाति स पण्डितः ।। तथा झूठे व दम्भी (छली) लोगोंका साथ कभी नहीं करना, किसी को भूलकर भी कुवत्रन नहीं कहना, मद्यपायो मांस भक्षक लोगोंके निकट न रहना न उनसे व्यवहार करना, जूना (हात) .. कभी नहीं खेलना, पानो ( नदो , ठग, कोतवाल. कृपण, हठो, स्त्री, हथियार, अंध पुरुष, नखी पशु, शृगवाले पशु, वेश्या, रोगी, ऋणी, बंधुबा (कैदी), शत्रु, ज्वारी, चोर, असत्यभाषी, .. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] श्रीपाल चरित्र | आदि किसका विश्वास नहीं करना, क्योंकि इतनो प्रीति गुड़ लपेटो छुरीकी तरह घातक है । नखखो, लक्खो, जटाधारी, मुड़े हुए भस्मधारी, भेषो व बनचर, कुब्जक बौना ( वापत ) काना केस (कंजा नेत्रवाला), छोटो गरदनवाला आदमी, डांकन, शकतो. दासी, कुट्टनी (दुर्ती) इनका भी विश्वास न करना । स्वस्त्री मित्राय अन्य स्त्रियां माता, बहिन बेटी के समान जानना अतिद्रव्य व ऐश्वर्य हो जानेपर भी अहंकार नहीं करना, निरन्तर पंचपरमेष्ठीका ध्यान हृदयमें रखना। भूलकर भी सिवाय जिनेंद्रदेव निग्रंथ गुरु और दयामय जिनवर कथित धर्म के अन्य कुदेव, कुधर्म व कुगुरको सेवा नहीं करना, और सिद्धनक व्रतका मन, वचन, कायसे पालन करते रहना ! ऐ पुत्र ! ऐ मेरे बचन दृढ़ कर पालना भूलना नहीं, ऐसा कहकर माताने आशीर्वाद दिया- धर्ममे नेह । न निज गेह || श्री बड़े अरु अतुल बल व नत्र रग दलको संग ले आवो धन्य महूरत धन बड़ी धन्य सुवासर सांय | जा दिन बहुरि कुरालसहित नेनन देख्नु तो ।। 71 } ऐसे शुभ वचन कहकर माता श्रीपाल के मस्तकार दही दूध और अक्षत डालती हुई, और मस्तक में मंगलाक कुमा तिलक करके ओफल दिना तथा निछावर को धायने भी आकर शुभ सूका दो सो पालने हर्षित होकर लो फिर सर्व स्वजनाने महरा दी। इसप्रकार उसी रात्रिके पिछले पहर में भोपालजाने सर्व उपस्थित जनोंको यथायोग्य धेयं देकर पंचक उच्चारण करते हुए, हर्षित हो, उत्साह सहित प्रयाण किया और सब स्वजन श्रीपालको विदाकर निज स्थानको पधारे। 3015 " Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याओंको सिद्धि । ७७ ....-minin..... - - -------- . Pi विद्याओंकी सिद्धि श्रीपालजी गरसे प्रस्थान कर अपने साथ चन्द्रहास खङ्ग और चमर आदि सम्पूर्ण आयुध साथ लिए हुए अति शीघ्रतासे अनेक वन, पर्वत, गुफा, सरोवर, खाई, नदी पुर. पदनादिकों उल्लंघन करते हुए पांव यादे चलते चलते वत्सनगर में आये। और मगरकी शोभा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुये क्योंकि उस नगर में नाना प्रकारके चित्रोंसे चित्रित बड़े२ उत्तंग महल यथाकमसे बने हुये थे। द्वारपर सुवर्ण कलश स्थापित थे। ___ नगर में चतुर्वर्णके नरनारो अपने योग्य स्थानों में निवास करते थे । बाग बगीचोंसे नगर सुसज्जित हो रहा था। उसी नगरके निकट नन्दन वनके समान एक सहारमणोक उपवन दिखाई पडा । सो श्रीपालजीने उसको स्वाभाविक सुन्दरता देखने की इच्छासे उसमें प्रवेश किया। म स्थानकी शोधाको देखते और मन्द सुगन्ध पवनसे चित्तको प्रसन्न करते हुए जब वे बहां फिर रहे थे कि उन्होंने उसी (पक) वन में एक वृक्ष के नीचे किसी कोर पुरुषको वस्त्राभुपणसे अलंकृत, क्षीण शरीर और फ्लेशयुक्त होकर मंत्र जपते हुए देखा । वे उसे देखकर सोचने लगे कि इतना क्लेश उठानेपर। भी मालूम हुआ है कि इसे मंत्र सिद्ध नहीं हुआ है। कदाचित् इसोसे उसका चित्त उदास हो गया होगा । तब . श्रोपालने उसके निकट जाकर पूछा___ "हे मित्र ! तुम कौन से मंत्रकी आराधना कर रहे हो कि जिससे तुम्हारे चित्तको एकाग्रता नहीं होती है ?" यह वचन सुनकर वह वीर चौंक उठा, और इनका रूप देखकर हषित हो बहुत आदरपूर्वक विनयसहित बोला--'हे पथिक ! मुझे मेरे गुरुन् विद्याका मात्र दिया था, सो मैं उसोका जाप कर रहा है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ) श्रीपाल चरित्र । परन्तु मेरा चंचल चित्त स्थिर नहीं रहता है, और इससे मंत्र भी सिद्ध नहीं होता है। हालि युगः . विक्षक, साधन करो। क्योंकि तुम सहनशील मालूम होते हो, सो कदाचित तुम्हें यह सिद्ध हो जाय । तब श्रोपालजी बोले भाई ! आपका कहना ठीक है, परन्तु सोना रत्नके साथ ही शोभा देता है, साधु क्षमासे शोभा देता है, जिनेन्द्रका स्तवन प्रात:काल ध्यानपूर्वक हो शोभा देता है, गजा सैन्य साहित ही सोहना है, श्रावक दयासे हो सोहता है, बालक खेलते हुए सोहता है, स्त्री शील होनेसे शोभा देती है, पंडित शास्त्र पढ़ते हुए ही शोभा देते हैं, दव्य दानसे शोभा पाता है. सरोवर कमलसे शोभता है, शूर युद्ध में शोभा देता है, हाथी सैन्यमें शोभता है, वृक्ष ठण्डी और सघन छायासे सोहता है, दूत कठिन वचनोंसे, कुल सुपुत्रसे घोर परोपकारसे, शरीर निर्भयतासे और तंत्र साधन स्थिर चित्तबालोंको हो शोभा देता है । इसलिए हे भाई ! मैं तो पथिक ( रास्तागीर } हूं मुझे स्थिरता कहां ? और मंत्रसिद्धि कसी ? " यह सुनकर बह वोर बोला- "हे कुमार ! आपका तेजस्वो मुखाविंद हो बता रहा है कि आप इसके योग्य हैं ! इसलिये मुझे अभय वचन दो । आप मेरे हो भाग्य से यहां आये हो । इसलिए अब आप अविलम्ब स्वस्थचित्त होकर इस मंत्रका आराधन करो। आपको श्रीगुरुको कृपासे यह विद्या सहज ही सिद्ध हो जाएगी । ऐमा कहकर बह मांत्र और विधि जसर उसके गुरुने बतलाया था जसने श्रीपालको बतला दी । तब श्रीवाल जी उसके बारम्बार कहने व आग्रह करनेगे मन वचन कायकी चचलताको छोड़कर शुद्धतापूर्वक निश्चय आसन लगाकर मंत्र जपने के लिये बैठ गये । जिससे एकाग्न चित्त होने के कारण उनको एक दिन में हो वह विद्या सिद्ध हो गई । तब Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याजोंकी सिद्धि । | ७१ ...- -.-=== 'सरसता हुई देखकर वह योर उठा और श्रोपालको प्रणाम व स्तुति करके कहने लगा कि धन्य हैं आपके साहस व धोरताको ' यह विद्या अब अपने पास रखिये और मुझे कृपाक र आज्ञा दीजिये कि मैं अपने घर जाऊ । तम् श्रीपाल जो प्रोले-भाई मुझे यह उचित नहीं हैं कि रास्ता चलते किसीको वस्तु छोन लू। पराये पुत्रसे स्त्री "पुत्र तो नहीं कहलातो है, पराये धनसे कोई नहीं धनी होता, त्यों हो पराई विद्या व बलसे बलो होना नहीं समझना चाहिये, • और फिर मैंने किषा ही क्या है ? केवल आपके कहने से अपनी शक्तिकी परीक्षा की है । सो आप अपनो विद्या लीजिये । ऐसा • कह वह विद्या उपो विद्याधर वोरको देकर आप अलग हो गये । तब विद्याधरने स्तुतिकर कहा- 'भो स्वामिन् ! यदि आप इसे स्वीकार नहीं करते तो ये जल-तारिणो व शत्रु निवारिणी • दो विद्यायें अवश्य हो भेट स्वरुप स्वीकार कोजिये, और मुझपर अनुग्रह कर मेरे गृहको अपने चरणकमलों से पवित्र कीजिये । ऐमा कहकर उक्त दोनों-जलतारिणी और शत्रु निवारिणी विद्यायं देकर बड़े आदर सहित वह थोपाल जीको स्वस्थान पर ले गया, और कुछ दिनत क अपने यहां र पछ उनको बहुत शुश्रुषा "को पश्चात् जनको इच्छानुसार विदाकर आप सानंद व्यतीत • करने लगा। इस प्रकार श्रीपाल जी ने घर से निकल कर वसनगर के विद्याधर को अपना सेवक बनाया और उससे उक्त दो विद्याय भेटस्वरूप ग्रहण कर आगेको प्रस्थान किया । ठाक है--- " स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।" । अर्थात्-'पूणका आदर ठौर सब, राजाका निज देश" तात्पर्म-प्रत्येक पुरुपको गुणवान होने का प्रयत्न करना चाहिए, न कि द्रव्यवान् होनेका, क्योंकि गुणवान के आश्रय ही द्रव्य रहला है, इसलिये गुणवान होना हो धेयस्कर है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्रीपाल चरित्र । धवलसेठका वर्णन श्रोपालजी विद्याधरसे जल-तारिणा और शत्रु-निवारिणी दो विद्याये नण कर वत्सनगरसे निकलकर और अनेक वन उपवनों की शोभा देखते हुए भृगुकच्छपुर (भडोंच) आये । वहा नगरको शोभा देखकर चित्त, प्रसन्न हुए । क्योंकि यह नगर समुद्रके तुल्य नर्मदा नदोके किनारे होने से अतिशय रमणीक भासता था । श्रोपाल घूमते२ उस नगर से किसी उपवनमें जा पहुँचे और वहां पास ही एक टेकड़ी पर श्री जिनमतनमें देख कर अति आनदित हुये और प्रभु की भक्ति वंदना कर अपना जन्म धन्य माना। इस प्रकार वे सिद्धचक्रका आराधन करते हुये कुछ काल तक उसी नगर में रहे। एक दिन कौशांबो नगरीका एक धनिक व्यापारी (धवल थेट्रि) व्यापार के निमित्त देशांतरको जाने के लिये पांचसो जहाज भरकर इसी नगरते समीप आया । पवनके योगसे उसके जहाज पासको खाडीमें जा पड़े । उस' सेठके साथ जितने आदमी थे उन सबने मिलकर अपनी शक्तिभर उपाय किया, . परन्तु वे जहाज न चला सके तब मेठको बड़ो चिन्ता हुई, . उसका शरीर शिथिल हो गया। निदान यह उदास होकर सोचते२ जब कुछ उपाय न बन - पड़ा तत्र लाचार हो नगरमें आया और किसी नगर निवासी निमित्त ज्ञानीसे अपना सब वृत्तांत कहकर जहाजके अटक . जानेका कारण पूछा । तब उस नगरवासीके निमित्त ज्ञानी - ज्योतिषी) ने कहा-सेर ! अपन: अशुभ कर्माको उदयसे ये जहाज अटक गये हैं। उनको जलदेवोंने कोल दिये हैं, सो या तो कोई महागुणवान्, लक्षणवंस, गमी र पुरुष, जो निर्भय हो. बह आकर इन जहाजोंको चलावेगा तो चलेंगे, अथवा यहापरा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलमेकका वर्णन । [१] एक ऐसे ही महापुरुषका बलिदान करना होगा। यह सुनकर सेठ अपने डेरे में आया, और मंत्रियोंसे मंत्र करके उस नगरके राजाके समीप गया और बहमूल्य भेट देकर राजाको प्रसन्न किया और मौका पाकर अपना सम्पूर्ण वृत्तांत कह राजासे एक आदमीके बलि देने की आज्ञा प्राप्त कर ली । तुरन्त ही ऐसा मनुष्य जो अला गुणवान और निभय हो उसे ढूढने के लिये चारों ओर आदमी भेजे । सो नौकर फिरते२ उसी बगीचे में, जहां कि श्रीपालजी एक वृक्षके नीचे शीतल छायामें सो रहे थे पहुंचे। उनको देखकर वे विचारने लगे कि हमें असा पुरुष चाहिये था, यह ठीक वैसा ही मिल गया है। बस, अपनाह काम बन गया । परन्तु उन्हें जमानेको किसी की भी हिम्मत नहीं पडती थी। सब लोग परस्पर एक दुसरेको जगाने के लिये प्रेरणा कर रहे थे कि इतने में श्रीपालजीका नींद अपने आप ही खुल गई। उन्होंने अखि खुलते ही अपने आपको चारों ओरसे घिरा हुआ देखा, तब वे निशंक होकर बोले___ "तुम लोग कौन हो? और मेरे पास किसलिये आये हो ? यह सुनकर वे नौकर छोले-" हे स्वामिन् ! कौशांबी नगरीका एक धनिक व्यापारी, जिसका नाम धवल सेठ है, व्यापार निमित्त पांचसो जहाज लेकर विदेशको जा रहा था, यहां किसी कारणसे उसके जहाज खाडी में अटक गये हैं सो उसने मंत्रियोंसे मंत्र करके विवेक रहित हो, जहाज चलाने के लिये एक आदमीकी बलि देना निश्चय कर हमको मनुष्यकी तलाश में भेजा है। अभीतक ऐसा मनुष्य हमको कोई मिला हो नहीं है, और बेठका डर भी बहुत लगता है कि खाली जायेगे तो वह हमें Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] धीपाल परित्र । मार डालेगा, और नहीं जावेंगे तो हमको ढूटकर अधिक कष्ट देवेगा । इसलिये अब आपका शरण हैं, किसी तरह बचाइये। यह सुनकर श्रीपाल बोलें-भाइयो ! तुम भय मत करो। तुम कहो तो क्षणभर में करोडों वोरोंका मदन कर डालू और कहो तो वहां चलकर सेठका काम कर दूं। । तब वे आदमी स्तुति करके गद्गद् वचनों से बोले स्वामिन् ! यदि आप वहां पधारेंगे तो अतीव कृपा होगी, और हम लोगोंके प्राण भी बचेंगे व आपका यस बहत फैलेगा। आप घोरवीर हो, आपके प्रसादसे सब काम हो जाएगा यह सुनकर श्रोषालजो तुरन्त ही यह विचार को अन्द दाई ? यार मौतुक होता है ? चलकर परीक्षा करू? यह विचार करके उन लोगोंके साथ चलकर शीघ्र ही घवलसेठके पास पहुँचे । " वे लोग सेठसे हाथ जोड़कर बोले --सेठ ! आप जैसा पुरुष चाहते थे, सो यह ठीक वैसा ही लक्षणवन्त है। अब आपका कार्य निःसन्देह हो जाएगा । यह सुनकर उस को मांध सेटने बिना ही कुछ साँचे और बिना पूछे कि तुम जौन हो ? कहाँसे आये हो ? भोपालको बुलाकर उबटन कराकर स्नान करवाया. इतर फुलेल चन्दनादि लगाकर उत्तमर वस्त्राभूषण पहराये, और बड़े बाजे-गाजे सहित उस स्थान पर जहां जहाज अटक रहे थे ले गये।'' अब वहां शरबीहोंने इन के मस्तक पर चलाने के लिए खम उठाया, तब श्रीपालजी कौतुकसे मनमें यह विचारते हए कि अब इन सबका काल निकट आया है। इसलिये वे बोले - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवसेदफ़ा कपंत | [ ८३ अरे सेऊ ! तुझे यहां बच करनेसे मतलब है या कि अपने जजोंको बलानेसे ? " r सेठने उत्तर दिया- हमको जहाज चलाना है यदि तू चला देवेगा, तो तूझे फिर कोई कष्ट देनेवाला नहीं है । तब श्रीपालजी बोले - " अरे मूर्ख ! तू लोभवश यहां नरबलि देने को तैयार हो गया, और दया धर्मको बिल्कुल जलांजलि दे दो ।" ठीक है" अर्थी दोषं न पश्यति " कहा भी है---- " लोभ बुरा संसार में सुध बुध सब हर लेय | , " बाप वखानो पापकों, शुभ्र पयानो देय || क्या तू यह जानता था कि मैं यहां तेरी इच्छानुसार बलि हो जाऊंगा ? बता तो तेरे पास कितने शूरवीर हैं ? देखूं कौन कायरों ! और मेरे उन सबको एक ही वार में चुरचूर कर डालूंगा | - साहस कर मेरे सामने वलि देने को आता है ? आओ ! शीघ्र ही आओ! देर मत करो! पुरुषार्थको देखो ! दुष्टों ! तुमको कुछ भी लज्जा भय व विवेक नहीं, जो केवल लोभके वश होकर अनर्थ करनेपर कमर बांध ली है। आओ, मैं देखता हूँ कि तुमने अपनी-अपनी Hate कितना दूध पिया है ? श्रीनरालजीने ऐमे साहस युक्त निर्भय वचन सुनकर धवलगेट और उसके सब आदमो मारे भयके कांपने लगे, और विनय सहित बोले - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1] घोषाल परिन। ___“स्वामिन् हम लोग अविवेकी है। आपका पुरुषार्था बिना जाने हो हमने यह खोटा साहस किया था। आप दयालु, साहसी, न्यायी और महान् मुगया है। आपको बड़ाई कहांतक कर ? क्षमा करो प्रसन्न होओ और हम लोगोंका संकट दूर करो । इस प्रकार अनुपम विनययुक्त वचनोंसे श्रीपालजीको दया आ गई । इसलिये उन्होंने आशा दी-अच्छा तुम लोग अपने जहाजोंको शीन तयार करो।" तुरन्त ही सब जहाज तैयार किये गये ! जहाजोंको तैयार देखकर श्रीपालजी ने पंचपरमेष्ठीका जाप करके सिद्धचक्रका आराधन किया । और ज्योंही उनको इकेला कि के सब जहाज चलने लगे । सब ओर जयजयकार शब्द होने लगा, खुशी मनाई जाने लगी, बाजे बजने लगे 1 सब लोग धोपालजीके साहस, रूप, बल व पुरुषार्थको प्रशंसा करने लगे, और सबने उदको अपने साथ ले जानेका विचार करके विनय की, कि यदि आप हम लोगों पर अनुग्रह कर साथ बलें, तो हमारी यह यात्रा सफल हो। तब श्रीपालबोने कहा-" सेठजी, यदि आप अपनी कमाईका वशांश भाग . मुझे देना स्वीकार करें तो निःसंशय म आपके साथ चलू' सेठने यह बात स्वीकार की. बोर श्रीपालजोने धवल से ठके साथ प्रस्थान किया । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलसेठको चोरोंसे छुड़ाना धवलसेठको चोरोंसे छुड़ाना 7 समुद्र में जब कि छवलसेठके जहाज चले जा रहे थे और सब लोग अपने रागमें लवलीन थे अर्थात् कोई श्रीजीकी आराधना करते थे, कोई नाचरगमें रंजित थे, कोई समुद्रको देखकर उसकी लहरोंसे भयभीत हो कायरसे हो रहे थे, कि उसी समय मरजिया ( जहाजके सिरेपर बैठकर दूर तक देखनेवाला ) एकदम चिल्ला उठो शूरवीरो ! होशयार हो जाओ । अब असावधानीका समय नहीं है। देखो, सामने से एक बड़ा भारी डाकुओंका दल आ रहा है । उनमें बढ़ेर वीर लोग दृष्टिगोचर होते हैं, जोकि हथियारबद्ध हैं । = [ ८५ उसके ऐसा कहतेर हो जहाज में एकदम खलबली मच गई । सामन्त लोग हथियार लेकर सामने आ गये और कायर भयभीत होकर यहां वहां छुपने लगे । देखते ही देखते लुटेरोंका दल निकट आ गया और उन्होंने आकर - शेठ शूरोंको ललकारा । अब तुम्हारा साथ स्वीकार अरे मुसाफिरो ! ठहरो, कहां जाते हो ? 'निकल जाना सहज नहीं है ! या तो हमारा - करो, या अपनी सब सम्पति हमें सौंपकर अपना मार्ग लो, अन्यथा तुम्हारा यहां से जाना नहीं हो सकता । यदि तुम में कोई . • साहसी है तो सामने आ जावे । फिर देखो, कंसा चमत्कार दिखाई पड़ता है। सेटके शूरवीर उन डाकुओं की ललकार सह न सके, तुरंत ही टोडी दलके समान टूट पड़े, और दोनोंमें घमसान युद्ध होने लगा । बहुतसे डाकू मारे गये, और कई पकड़े भी गये, जिससे वे भाग पड़े और सेठके में आनंद ध्वनि होने लगी, परन्तु इतने हीसे इस आपतिका .. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] भोपाल परित्र। अन्त नहीं हुला। डाक लोग कुछ दूरतक. आकर पुनः इकठ्ठ हुये और स्वस्थचित हो परस्पर सलाह कर निश्चय किया कि एक बार फिर धावा मारना चाहिये । बस, उन लोगोंने पुनः आकर रंगमें भंग डाल दी, और भूले सिंहको तरह सेठके अहाजों पर लूट पडे । इस समय । डाकूओंकी बाजी रह गई और वे लोग बातको कातमें. धवलसेठको जीता ही बांधकर ले गये । यह देख सेठकी सारी सेनामें कोलाहल मच गपा । यहांतक सो श्रोपालजी चुपचाप बैठे हुये यह सब कौतुक देख रहे थे, सो ठोक है, क्योंकि धीरवीर पुरुष छोटोर बातों पर ध्यान नहीं देते हैं, सुन पुरुषों पर उनका क्रोध नहीं होता है, चाहे कोई इस तरहका कितना ही उपद्रव क्यों न करे । जैसे हाथीके उपर बहससी मक्खियां भिनभिनाया करती है. परन्तु उसे कुछ नुकशान नहीं पहुंचा सकती हैं, ऐसा समझकर हायो उनको कुछ भो परवाह नहीं करता। क्योंकि वह जानता है कि मेरे केवल कानके हिला देने से हो सब दिशा विदिशाओंकी शरण लेने लगेंगी-भाग जादंगी बेसे ही वीरवीरोंको अपने बलका भरोसा रहता है । कहा भी है " गोदड़ आये गोद, सिंह नहि हाथ पसारे । महामत गजराज, देवकर कुम्भ विदारे ।। . तसे ही सामन्त, लडे नहि कायर जनसे । देख चली परचण्ड, भग नहिं कबहू रणसे ।। प्रबल मत्र मद परिहरें, तो लधुको क्या बात । '. रेणके दिवे, के बन की विपात ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - घवलसेठको चोरोस छुड़ाना । निदान सेठको बांधकर ले जाते हुए देखकर श्रीपालसे रहा न गया, इसलिये वे तुरन्त उठ खडे हुए। तब इन्हें सहा देख से टके आवमी रुदन करते हुए आये और करुणाजनक स्वरसे बोले स्वामिन ! बचाओ। देखो, सेटको डॉकू बांधे लिये जा रहे हैं । श्रीपाल उनको दीन-वाणी सुनकर और उन डांकु-- बोंकी निष्ठुरताको देखकर बोले "अरे धीरो! धर्म रक्खो! चिन्ता न करो ! मैं देखता हू चोरोंमें कितना बल है ! अभी बात की बातमें सेठको छुडाकर लाता है। श्रीपालजी के वचनोंसे सबको संतोष हुमा और धीपालने तुरन्त ही शस्त्र धारणकर चोरोंको सामने जाकर ललकारा___ अरे नीचो ! क्या तुम मेरे सामने सेठको ले जा सकते हो? कायरो! खडे रहो और सेठको छोडकर अपनी सम्मा कराओ, नहीं तो अब तुम्हारा अन्त हो आया बानो श्रीपारूको यह सिंहगर्जना सुनने मात्रसे ही डांफू लोम मृगदल के समान तितरबितर हो गये, और किसी प्रकारा. अपना बचाव न देखकर घर २ कांपने लगे। निदान यह सोचकर कि यदि मरना होगा तो इन्हीके हायसे मरेगे, सबब तो इनका शरण लेना ही बेष्ठ हैं । यदि इन्हे क्या भा गई तो बच भी जावेंगे नहीं तो ये एक एकको पकड२ कर समुद्र में हवाकर नामनिःशेष कर देंगे । यह सोचकर डांकु लोग बीपालकी शरण में आये और सेठका बन्धन छोड़कर नतअस्तक होकर बोले___ "स्वामिन् ! हम लोग अब आपकी शरण हैं, जो चाहो हो कीजिये !'' सब धीपालने. धवल से टसे पूछा-"ताद ! Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स] भोपाल परिष 1 लो!के लिए क्या आशा है ?" घबलसेठ तो कर-चित्त व अविचारी था, बोला-इन सबको बहुत कष्ट देकर मारमा पाहिये । तब श्रीपाल उसके कठोर वचन सुनकर भोल-तात ! उत्तम पुरुषोंका कोर क्षणमात्र होता है, और पारणमें आये हुयेको तो कोई नहीं मारता । दया मनुष्यों का प्रधान भूषण है । दयाके विना मनुष्य और सिंहादि कर जोवोंमें क्या अंतर हैं ? दयाके बिना अप सप शील सयम योग आचरण सब मुठे है, केवल कायस्लेश मात्र है। इसलिये दया कमी नहीं छोडना चाहिये । और फिर जब हम सरोम्छे पुरुष व्यापके साथ हैं तो पापको चिन्ता ही किस बातकी है? तब लज्जित होकर सेठने कहा-हे कुमार ! आपको इच्छा हो सा करो, मुझे उसी में संतोष है। तब श्रोगलजी उन धोरोंको लेकर अपने जहाजपर आये और सबके बंधन छोड़कर घोले-वारो ! मुझे क्षमा करो! मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया । आप यदि हमारे स्वामोको पकड़कर न ले जा तो यह समय न आता, इत्यादि । सबसे क्षमा कराकर सबको स्नान कराया, और वस्त्राभूषण पहिराकर सबको मिष्टान्न भोजन कराया, तथा पान इलायची इत्र फुजेनादि नयोंसे भले प्रकार सम्मानित किया । ये डांत भोपालजीके इस वापसे बड़े प्रसन्न हुये, सहस्र मुखसे स्तुति करने लगे और अपन! मस्तक श्रापालके चरणोंमें धरकर बाले हे नाथ ! हम पर कृपा करो ! धन्य हो आप! आपका -नाम चिरस्मरणीय रहेगा। इस तरह परस्पर मिलकर डांकू घोपालसे विदा होकर अपने घर गये और श्रीपाल तमा धवलसेठ मानदसे मिलकर अपनो आगामी यात्राका विचार कर प्रणाम करनेको उद्यमी हये । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाकुओंकी भेंट के डाँकु लोग श्रीपालसे विदा होकर अपने स्थान पर गये और श्रीपालके साहस व पराक्रमको प्रशंसा करने लगे कि धन्य है उस वीरका बल कि जिमने बिना हथियारके इतने डॉकू वांध लिए और फिर सबको छोड़कर उनके साथ बड़ा भारी सलूक किया। इसलिये इसका इसके बदले अवश्य हो कुछ - 'भेंट करना चाहिये । क्योंकि हम लोगोंने बहुतमे डांके मारे, और अनेक पुरुष देखे है। परन्तु ऐसा महान पुरुष आज तक कहीं नहीं देखा है। इसने पूर्व जन्मों में अवश्य ही महान सप किया है, या सुपात्र दान दिया है, इसीका यह फल है । 'ऐसा विचार कर वे लोग बहुतसा द्रव्य सात जहाजों में भरकर श्रोपाखके निकट आये । और विनय सहित भेंट करके विदा हो गये । ठीक है, पुण्यसे क्या नहीं हो सकता है ? कहा है" वने रणे शत्रजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा। मुप्तं प्रमत्त विषमस्थलं वा, रक्ष्यति पुण्यानि पुरा कृतानि ।। अर्थात् बनमें, रणमें, शत्रुके सन्मुख, जलमें, अग्निमें, : महासागरमें, पर्वतको शिखापर, सोते हो, प्रमाद अवस्थामें, अथवा विषम स्थल में पूर्ण पुण्य हो सहायता करता है। तात्पर यह है कि जीवोंको सदेव अपने भाव उज्जवल रखना चाहिये, सदा सबका भला और परोपकार करना चाहिये । क्योंकि पुण्यके उदयसे शत्रु भी मित्र और पापो• आपसे मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ ܘܢ श्रीपाल चरित्र | मंजू इस तरह श्रीपाल उन डाकुओं से रत्नोंके साथ जहांजा मट लेकर और उनको अपना आज्ञाकारी बनाकर धबल से ठके साथर रातदिन प्रयाण करते हुये बड़े आनंद और कुशलता से हंसदीपमें पहुँचे । यह दोष बत उपवनोंसे सुशोभित था । इसमें बड़ीर अठारह और छोटी रत्नोंकी अनेक खानें थीं। गजमोती बहुतायत से मिलते थे। सोने चांदी की भी बहुतसी खानें थीं । चन्दनके वनोंकी मन्द सुगन्ध पवन चित्तको बुरा लेती थी । केशरके बाग अतिशोभा दे रहे थे । कस्तूरीकी सुगन्ध भी मस्तकको तहस-नहस किये देती थी। तात्पर्य यह कि यह द्वीप अत्यन्त शोभायमान था । ऐसी वस्तु कवाचित् ही कोई होगी, जो वहां पैदा न होती हो । वहाँपरु रहनेवाले मनुष्य प्रायः सभी धन कण कंचनसे भरपूर थे । दुःखी दरिद्री दृष्टिगोचर नहीं होते थे । नगर में बड़े २ ऊचे महल बन रहे थे । इस द्वीपका राजा कनककेतु और रानी कंचनमाला थी । ये दंपति सुखपूर्वक काल व्यतीत करते और न्यापूर्वक प्रभाको पालते थे । राजाके दो पुत्र और रयनमंजूषा नामकी एक कन्या थी । सो जन वह कन्या यौवनवतो हुई, तब राजाको चिंता हुई, कि इस कन्याका वर कोन होगा ? यह पूछने के लिए राजा अपने दोनों पुत्रोंको लेकर उद्यानकी ओर मुनिराजकी तलाश में गया, तो एक जगह बनमें अचल मेश्वत् पानारूद्र परम दिगम्बर मुनिको देखा तोनों वहां जाकर भक्ति सहित नमस्कार कर तीन प्रदक्षिणा देकर बैठ गये और जब मुनिराजका ध्यान खुला तब वे विनयसहित पूछने लगे- 1 . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयनमजूषाकी प्राप्ति । हे प्रभो ! आप जगत पूज्य, करुणासागर, कुमतिषिनाशक शानसूर्य, शिवमगदर्शक, और समस्त दुःखहरण करनेवाले हो। हम स्पधुद्धि कहांतक की स्तुति करें ? निराश्रितको आश्रय देनेवाले सच्चे हितू आप ही है । हे दीन दयालु .. प्रभो ! मुझे एक चिता उत्पन्न हुई है। वह यह है कि मेरी पुत्री रयन मंजूषाका वर कौन होगा ? सो संशय दूर हो। तब वे परम दयालु समस्त शास्त्रों के पारंगत मुनिराज '. अधिशानसे विचार करके बोले-'हे राजन् ! सहस्रकूट चैत्यालयके वज्रमयी कपाट जो महापुरुष उघाडेगा वहीं इस . पुत्रीको वरेगा ।" तब राजा प्रसन्नचित्त हो नमस्कार कर अपने घर आया और उसी समय नौकरोंको आज्ञा दी कि तुम लोग सहस्रकट चैत्यालयके द्वारपर पहरा दो, और जो पुरुष आकर वहांके वजमई किवाड उघाडे उस पुरुषका भले .. प्रकार सम्मान करो और उसी समय आकर हमको खबर दो । राजाकी माज्ञा पालनकर नौकरोंने उसी समयसे वहां पहरा देना आरम्भ कर दिया । धवल सेदने यहाँको शोमा और व्यापारका उत्तम स्थान देखकर जहाजोंके लंगर डाल दिए, और नगरके निकट डेरा. किया, तथा धवलसेठ आदि कुछ बादमी बाजारकी हालचाल देखनेको नगर में गये । श्रीपाल भी गुरुवचन को स्मरण करके कि जहां जिन मंदिर हो वहांपर प्रथम ही जिनदर्शन करना, नित्य षट् आवश्यक क्रियाओंकी यथाशक्ति पूर्णतः करना, इत्यादि जिनमदिरको बोलमें गये । सो अनेक प्रकार नगरको शोभा देखते और मनको आनन्दित करते हुए वे एक अति ही रमणीक स्थान में बाये। वहां अतिविशाल उत्संग सुवर्णका बसा. · इवा :सुबर मंदिर देखा । देखते ही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ९२ ] श्रीपाल चरित्र ! आनंदित हो मंदिरके द्वार पर पहुँचे तो देखा कि दरवाजा क्यों बन्द है ? तब वे पहरेदार विनय सहित कहने लगे 4 महाराज ! यह जिनमंदिर है। वज्रके कपाटोंसे बन्द कराया गया है। इसमें और कुछ विकार नहीं है, परीक्षा निमित्त हो बन्द किये गये है । सो अरज तक तो ये किवाद : किसीसे नहीं उघाड़े गये हैं। अनेकों योद्धा माये और अपना २ बल लगाकर थक गये, परन्तु किवाड न उघडे ।" — श्रीपाल द्वारपालोंके बचन सुनकर चुप हो रहे और .. मन में हर्षित होकर सिद्धचक्रका आराधन कर ज्यों हो किवाड हाथ से दबाये त्यों ही वे खटसे खुल गये । तब श्रीपालने हर्षित होकर "ॐ जय, जय, जय, निःसहि, निःसहि. निःसहि ।" इत्यादि शब्दोंका उच्चारण करते हुए भीतर प्रवेश किया। और श्री जिनके सन्मुख खड़े होकर नीचे लिखे अनुसार स्तुति करने लगे -- श्री जिनबिंब लखी मैं सार मनवांछित सुख लहो अपार । जय जय निष्कलंक जिनदेव, जय जय स्वामा अलख अमेव ॥ जय जय मिथ्यातम हर सूर, जय जय शिव तरुवर अंकूर 4 जय जय संगमवत धन - मे, जय जय कंचनसम छ ति देह || जय जय कर्म विनाशन हार, जय जय भगवत् जग आधार | जब कंदर्प गज दलन मृगेश, जय चारित्र जय जय क़ोध सर्प हत मोर, जय अज्ञान जय जय निराभरण शुभ सत, जय जय बिन आयुध कुछ शंक न रहे, रागद्वेष जिराकरण तुम हो जिन चन्द्र, अव्य कुमुद विकावन कंब ॥ धुराधर दोष 1 रात्रिहर मोह | मुक्ति कामिनोत ॥ तुमको नहि चहे । 1 I - Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसमजूषाकी प्राप्ति । आज ध वासर तिथि पार, आज धन्य मेरो अवतार । . आज धन्य लोचन म सार, तुम स्वामी देखे जु निहार 10 . मस्तक धन्य आज भो भयो, तुम्हरे चरण कमलको नयो । .. धन्य पवि मेरे भये मब, तुम तट आय पहुँचो जब 11 आज धन्य मेरे कर भये, स्वामी तुम पद परश न लये । . आज हि मुख पवित्र मुझ भयो, रसना धन्य नाम जिन लयो !! . आज हि मेरो सब दुख गयो, आज हि मो कलंक क्षय भयो ।। . मेरे पाय गये सब आज, आज हि सुघरो मेरो काज ।। अति ही मुदित भयो मम हियो, पणविध नमस्कार जब कियो। . धन्य आप देवनके देव, श्रीपालको निजपदं देव ।। . इस प्रकार स्तुति करके फिर सामायिक, बन्दन, आलो. चना, प्रत्या ख्यान, कायोत्सगादि षट् आवश्यक कर स्वाध्याय करने लगे । और वे द्वारपाल जो वहां पहरेपर थे, ऐसे विचित्र शक्तिधर पुरुषको देखकर पाश्रर्यवंत हो. कितनेक तो यहाँ हो रहे, और कितनेक राणाके पास गये । और सम्पूर्ण वृतांत राजासे कह सुनाया, कि महाराज ! एक बहुरूपवान, . मुणनिधान, सम्पूर्ण लक्षणोंका धारी महापुरुष जिनालयके द्वारपर आया और द्वार बन्द होने का कारण पूछा और "* नम: सिद्धम्" इस प्रकार उच्चारण कर निज करकमलों से सहजहीमें किवाड खोल दिये । इसलिये हम लोग बापकी आज्ञानुसार यह शुभ समाचार कहने आये हैं । राजा यह समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ, और समाचार देनेवालोंको बहुत कुछ पारितोषिक दिया । पश्चात . बड़े उत्साह व गाजेबाजे सहित सहस्रकूट चैत्यालय पहुँचा । . प्रथम ही श्री विमको नमस्कार कर स्तुति करने लगा-- Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल परित्रा नमो तुम जिनवर देव, भव : F मिले तुम्हारो सेव । .. तुम जिन सर्व दुःख परन, पोलंका. तुम भविमन सनं ॥ .. तुम बिन जीव फिरे संसार, जोगो संकट सहे अपार । तुम बिन करम न छोड़े संग, तुप बिन उपजे मन भ्रमभंग ॥ तुम बिन भव प्रातापहि सहे, तुन विन जन्म बरा मृतु दहे । तुम बिन कोऊ न लेप उबाल, तुम बिन.कर्म मिटे न लगार || .. तुम बिन दुरिय दुःखको हरे, तुप बिन.कोन परम सुख करे। • तुम बिन का काटे यमर, तुम बिन को पुजवे .आनन्द ॥ तुम बिन उरज कुमति कुमात्र, तुम बिन कोई न और सहाव । तुम बिन हितू न दुना कोय, तुम चिन शुभ गति कबहुं न होय ।। तुम बिन मैं पापो जा श्रन्यो, तुम बिन कालबाद सब गयो । तुम बिन मैं दुःख पायो घों, वेदन शूल कहां ला भनों । तुम अबतक जिन लखो न कोय, दोनो आयु व्ययं सब खोय । तातें अर्ज करू सुनि लेव, कर्म अनादि काट मम देव । सेवकको ओर तनिक निहार, जन्म मरण दुःख कोजे क्षार ।। राजा इस प्रकार प्रभु की वंदना करने के पश्चात् धीपालके निकट आया, और यथायोग्य सत्कारके पश्चात् । कुशलक्षेम ओर आगमन का कारण पूछने लगा- .. . - हे कुमार ! आपका देश कोन हैं ? किस कारण आपका यहां शुभागमन हुआ है ? इत्यादिक प्रपन बब राजाने किए तब श्रीपाल मनमें विचार करने लगे, कि यदि मैं अपने अपना वृत्तांत कहूंगा, तो राजाको खातिरो (निश्वय) होता कठिन है, क्योंकि इस समय अपने कथनको साक्षो करनेवाला कोई नहीं है, और बिना साक्षो, सच भो. झूठ हो जा सकता -.- Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयनमंजूषाकी प्राप्ति है। इसलिये में राजाको किस प्रकार उत्तर दूं ताकि इनको विपास हो। - पुरुषको चाहिए कि जो कुछ भी कहें, उसके पहिले ; उसकी सत्यताको सिद्धिके लिए साक्षी तुहले अथवा चुप हो रहे । इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि पूर्व पुण्यके योगसे दो अवधिज्ञानी मुनिराज विहार करते हुए कहींसे वहां मा गये। सो ये दोनों उन मुनिको देखकर परम आनन्दित हो उठ खड़े हुए और बड़ो विनयसे स्तुति करने लगे। अहा ! धन्म भाग्य हम सार, भयो दिगम्बर गुरु निहार । धनि तुम धर्म धुरंधर धीर, महस बीस दो परिषह धीर ॥ धन्य मोहतम हरन दिनन्द, भव्य कुमुद विकसावन चन्द । कर्म बली जगमें परधान, ताह हतनको आप कृपाण ॥ सुर हूँ सकहि न तुम गुण गाय, तो हमसे किम वरणे जाय । हे प्रभु ! हमपर होहु दयाल, धर्मबोध दीजिये कृपाल ।। इस प्रकार गुरुकी स्तुति करके वे दोनों निज २ स्थान पर बैठे। श्री गुरुने उनको 'धर्मवृद्धि' देकर इस तरह उपदेश दिया - "ऐ जिज्ञासुओं ! सर्व धर्म और सुख का मूल सम्यक्त्व है। इसके बिना कुछ क्रिया कर्म जप तप संयम सब ही निमल हैं। इसलिये सबसे पहिले जोबोको यह सम्यमत्व - ग्रहण करना चाहिये । वह सम्यक्त्व दो प्रकार है-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार । निजस्वरूपातुभव स्वरूप निश्चय सम्यक्त्व है, और तत्व निश्चय सम्यक्त्व के लिये साधनरूप प्रधान कारण है। इसलिये कारण में कार्यका उपचार होनेसे इसे व्यवहार सम्यक्त्व कहते हैं। . . . . . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल परिष। . तथा इसीप्रकार तत्वज्ञानके सामनभूत सच्चे देव दुर और शास्त्र हैं। इसलिये इनके श्रद्धानको भी व्यवहार सम्यक्रव कहते हैं। कारणसे कार्य होता है, इसलिये कारणकी उत्तमतापर हा कार्यको उत्तमता समझनी चाहिए । तात्पर्य सर्ग दोषोंसे रहित हो (धीतराग) लोकालोकका माता सर्वज्ञ और स; जीवोंका हित करनेवाला (हितोपदेशी) ऐसा तो देव महंत ही है। अथवा समस्त कर्म रहित सित परमेष्ठी देव ।। कहाते हैं । तथा ऐसे ही देवके द्वारा प्रतिपादित अनेकांत. स्वरूप धर्म तथा द्वादशांगरूप शास्त्र तथा परम जितेन्द्रिय अट्ठाईस मूल गुण और ६४०००८. उत्तर गुणकि धारी आजार्थ, उपाध्याय और सर्वसाधु गुरु इन तीनोंका भो सम्यक् श्रद्धान करना चाहिये । स्वप्न में भी इनके सिवाय अन्य भेषो कुलिंगोदेव, गुरु व बैनाभास मत तथा जेनेतर मत स्वरूप धर्मको कदापि अंगीकार नहीं करना चाहिये। ये ही पंचपरमेष्ठी (अहेत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु) भव्य जीवोंको भवसागरसे पार करने में समर्थ कारण स्वरूप होते हैं । इसलिये हे वत्स ! तुम मन, वचन, कायसे इन्हींका आराधन करो। . जिससे उभय लोकमें सुख पाओ। ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन पूर्णक सप्त व्यसनोंका त्याग करो तथा पंच अणुव्रत और . सप्त शीलका पालन करो। हे वत्स ! बे इन सब व्रतोंका धारण करने का मुख्य तात्पर्य विषय और कषायों को कम करना अथवा सर्वथा बभाव करना है । क्योंकि आस्माका अहित करनेवाले विषय कषाय ही हैं । “ आतमके अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न आय।" सो ओ भव्य जीव इन मूल बातोंपर .-- - -..- --. - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयममंजाकी प्राप्ति [ ९७ -G दृष्टि रखकर व्रताचरण करते है, उन्हींका व्रत करना सफल है, क्योंकि जो जड़को काटकर वृक्ष व फलोंकी रक्षा करना चाहता है वह मूर्ख है । 'मूली कुतः शाखा बाय मोहसे उत्पन्न ये राग द्वेषादि कषाय ही आत्मा के परम शत्रु है इन्हीं निमित्तते कर्मोंका आस्रव और बन्ध होता है । जैसे जीव कर्म करता है जैसे ही शुभाशुभरूप होकर पुद्गलको कर्मबर्गणायें आत्माको ओर आती हैं जिससे तीव्र च मन्द कषाय भावोंके अनुसार तीव्र व मन्द रूप स्थिति व अनुभागको लिए हुबे कर्मोका बन्ध होता है। इसी प्रकार यह जीव अनादिकाल से कर्म बन्ध करता हुआ, संसार में जन्ममरणादि अनेक दुःखोंको भोगता है। यह संसारो मोहीजीव पुद्गलकर्मोंके वश हो जानेके कारण शुद्ध आत्माके स्व रूपको भूला हुआ चतुर्गति में ८४००००० योनियों में १९९॥ कोटि कुलरूप स्वांग धरकर विषयवासनाओं में ही सुख मान रहा है । - इसलिये धर्मके स्वरूपको जानकर श्रद्धापूर्वक जो पुरुष विषय और कषायोके दमन करनेवाले दो प्रकार ( सागार और अनगार) धर्मको धारण करते हैं ये स्वर्गादिके सुखोंकों भोगकर अनुक्रमसे सच्चे (मोक्ष के सुखको प्राप्त होते है । परन्तु जो लोग धर्मका स्वरूप समझें बिना केवल बाह्य चारित्र में हो रंजित हो जाते हैं वे संसारके पात्र ही बने रहते हैं। उनकी यह सब क्रिया काययलेश मात्र हो रहती है । इसीसे जिनदेवने प्रथम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही चारित्रको सम्यक्चारित्र कहा है । इसलिये यथाशक्ति चारित्र भी धारण करना चाहिये । गुरुका यह उपदेश उन दोनोंको अमृत के समान हितकारी प्रतीत हुआ । सो उन्होंने ध्यानपूर्वक सुना । पश्चात् राजा 6 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीपाल चरित्र । कनककेतु, विनयपूर्वक पूछा--"हेप्रमो! यह पुरुष कौन है ? और किस कारण यहां आया है ?" तब श्रीगुरुने कहा यह अंगदेश चम्पापुर नगरके राजा अरिदमन तथा उसकी रानी कुन्दप्रभाका पुत्र भोपाल है। जब इसका पिता कालवा हो गया, तब यह राजा हुआ परन्तु इसको पूर्वसंचित अशुभ कर्मोके योगसे सातसो सखों सहित कोढ रोग हो गया, जिससे प्रजाको भो दुर्गधिसे बहुत पोडा होने लगी। सो जब प्रजाकी पीडाका समाचार इसके कान तक पहुँचा, जब इस दयालु प्रजावत्सल धीरवीरने अपने काका वीरदमनको राज्य देकर सब सखों समेत बनका मार्ग लिया, और फिरते२ उज्जैनो नगरी मालवदेशमें आया। वहां नगरके वाहिर उद्यानमें डेरा किया। सो वहांके राजा पहपालने इसके पूर्व पुण्यके उदयसे इससे संतुष्ट हो, अपनी -पुत्रो मौनाकुमारोके भाग्यको परीक्षा करने के लिये वह गुणरूपवती सुशील कन्या इससे ब्याह दी। बह कन्या सच्ची सती और धर्मात्मा थी, इसलिए उस विदुषो कन्याने अपने पिताके द्वारा पसंद किये हुवे इस कोढी बरको सहर्ष स्वीकार कर लिया, और अपने शुद्ध चित्तसे अतिसेवा तथा उपचार कर स्वकर्तव्बका पालन किया, तथा अष्टान्हिका (सिद्धचक्र) नत भी किया जिसके प्रभावसे इसको शीघ्र आराम हो गया । अर्थात् हे भव्य ! वह नित्य श्री जिनदेवको पूजनाभिषेक करके गंधोदक लातो, और सात सौ वीरों सहित इस पर छिड़कती थी, और निरन्तर सिद्धचकका आराधन करती हुई शीलगत की भावना भाती धो, जससे इसका कोढ़ थोडे ही दिन में चला गया। और इसका वरोर जैसा तुम देख रहे हो सुन्दर स्वरूपवान हो गया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमनमंजूषाको प्राप्ति | [ ९९ पश्चात् कुछ दिनोंके पीछे इसे विचार हुआ कि मैं राज्यजवाई कहलाता हूं, और मेरे पिता, कुल व देशका कोई नाम तक भी नहीं लेता हैं यह बडी लज्जाकी बात है | इसलिए पिछली रात्रिको घरसे निकलकर फिरतेर एक वनमें आया । वहां पर एक विद्याधरको विद्या साधते और सिद्ध न होते देखकर इसने उसे सिद्ध करके सोंप दो, जिससे उसने 'प्रसन्न होकर दो अन्य विद्यायें इसे भेंट को । ✓ फिर वहांसे आगे चलकर वह वत्स नगर में आया । सो वहां पर घबलसेठ के पचिसो जहाज समुद्र में अटक रहे थे, उनको ढकेलकर चलाया । तब उसने अपने लाभका दशमां भाग इसे देना स्वीकार कर अपने साथ ही ले लिया । पश्चात् रास्ते में आते हुए डाकुओंने जहाज घेर लिये, और सेठको बांधकर ले चले। तब इस बोरने निज भुजबल से उन सबको बांधकर सेठको छुड़ा लिया, और फिर उन सब हाकुओं को छोड़कर उनका बहुत सम्मान किया, जिससे उन्होंने प्रसन्न होकर अमुल्य रत्नोंसे भरे हुए सात जहाज भेंट किए । इस प्रकार बहांसे यह महापुरुष उस धवलसेट के साथ चल कर यहां आया है, और जिनदर्शन के निमित्त ये वज्रमय कपाट उघाड़े हैं | इस प्रकार श्रीपालका चरित्र सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और मुनिवरोंको नमस्कार कर श्रीपालको साथ ले अपने महलको आया, और शुभ घड़ी मूहूर्त विचारकर अपनी पुत्री रयनमंजुषाको व्याह इनके साथ कर दिया । इसप्रकार ओपाल रयन मंजूषाको व्याह कर वहां सुखसे काल व्यतीत करने लगे और धवलसेठ भी यथायोग्य वस्तु बेचने और खरीदने रूप अपना व्यापार करने लगा | Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोपाल परित्र । श्रीपालजीकी विदा इस प्रकार सुखपूर्वक समय व्यतीत होते हुए कुछ भो मान्नुम नहीं होता था । सो इसप्रकार जब बहुत समय बोत गया, और धवल सेट भो अपना व्यापार कार्य कर घुक, तब एक दिन भालजीने सहक राज : साये और विनती करके बोले- 'हे नरनायक ! प्रजावत्सल स्वामिन् ! हमको आपके प्रसादसे बहुत आनंद रहा और बहुत सुख मोगा | अब आपको आज्ञा हो तो हम लोग देशांतरको प्रसाद प्रस्थान कर ।' राजाको यद्यपि ये वियोगमूचक वचन अच्छे नहीं लगे, क्योंकि संसार में ऐसा कौन कहोरचित है, जो अपने स्वजनोंको अलग करना चाहे, परन्तु यह सोचकर कि यदि हठकर रक्खेंगे तो कदाचित् इनको दुःख होगा और परदेशीको प्रीति भी तो क्षणिक ही होता है इसलिये जगी इनकी इच्छा हो सा ही करना उचित है। इससे वे उदास होकर बोले-- "आप लोगोंकी जैसी इच्छा हो और जिस तरह आपको हर्ष हो, सो हो हमको स्वीकार है ।" ठीक है. सज्जन पुरुषोंकी यही रीति होतो है कि वे परके दुःख में दुःखा और परके सुख में सुखी होते हैं, अर्थात् वे किसीको उचित कामनाका विघात नहीं करते । फिर तो ये राजाके स्वजन हा थे इसलिए राजाने इनका वचन स्वीकार करके जाने के लिए आज्ञा प्रदान की और बहुत धन, धान्य, दासी, दास, हिरण्य, मुवर्ण आदि अमूल्य रत्न मोंट देकर निज पुत्री रयनमंजुषाको भी साथ में विदा कर दिया । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालीको पिता । [१०१ चलते समय राजा बहुत दूर तक पहुँचानेको गये, और 'निज पुत्रीको इस प्रकार शिक्षा देने लगे-ए पुत्री ! तुम अपने कुल के आचारको नहीं छोड़ना कि जिससे मेरी हंसी हो । तुमसे जो बड़े हों उनको भूल करके भी कषाय युक्त होकर सन्मुख उत्तर नहीं देना, और सदा उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना । छोटोंपर करुणा और प्रेमभाव रखना, दोनों पर दया करना, स्वप्न में भो और विरोध नहीं करना । तुम अपने से बड़े पुरुषोंको मुझ (पिता) समान, समवयस्कको 'भाई के समान और छोटोंको पुत्रवत् समझना । मन, वचन, कायसे पतिकी सेवा करना, और उससे कभी भी विमुख नहीं होना । कैसा भो समय क्यों न आवे, परन्तु मिथ्यादेव, गुरु और धर्मको सेवन नहीं करना, निरन्तर पंचपरमेष्ठीका आराधन किया करना । सच्चे देव-गुरु धर्मको कभी नहीं भूलना । और हे पुत्री ! नरनारियोंका जो प्रधान भूषण शीलवत हैं सो मन, बचन, कायमे भले प्रकार पालन करना।" इस प्रकार पुत्रीको शिक्षा देकर राजा श्रीपालके निकट आये और मधुर शब्दोंमे कहने लगे-कुमार ! मुझमे आपकी कुछ भी सेवा सुश्रुषा नहीं हो सकी सो क्षमा कीजिये, और यह दासो आपकी दो हैं सो इससे भलेप्रकार सेवा कराईये । मैं आपको कुछ भी देनेको समर्श नहीं हूं । केवल यह गुण, बुद्धिहीन, एक कुरुप कन्यारूपी लघु भेट दी है। पहो मेरी धौनताकी निशानी हैं। इसके मिवाय मैं आपका किसी प्रकार . भी सत्कार नहीं कर सका हूँ सो क्षमा प्रदान कीजिये । तब श्रीपालजी बोले-"हे राजन् ! आपने जो स्त्रीरत्न प्रदान किया हैं वही सब कुछ हैं। इससे और अधिक सम्पत्ति व सन्मान संसारमें हो हो. कमा सकता है ? मुझे तो आपके Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र । प्रसादसे अर्थ और काम दोनोंकी प्राप्ति हुई है, इसलिए आपका मुझपर बहुत उपकार है। मैं आपकी चढ़ाई कहांतक करू?" ऐस परस्पर सुश्र षाके वचन कहे। पश्चात राजा बोले-हे कुमार! यद्यपि जो नहीं चाहता है कि आपको मैं पहांसे विदा होते हुए देखा परन्तु रोकना भी अनुचितः समझता स्योंकि इससे पदाचित हा चितको पक्षमा उत्पन्न हो और प्रस्थानके समय अपशुकन तथा यात्रामें विघ्न समझा जाय, इसलिए मैं बारसे केवल यह वचार कहता चाहता हूँ साठ पाव सौ आगरे, सेर जास चालीस । ता विच मुझको राखियों, यह चाहत बखगोस ।। अर्थात्-मुझे 'मन' में रखिये, भूलिये नहीं । तथा-- चक्रवर्तके तट रहे, चार अक्षरके माह । पहिलो अक्षर छोडकर, सो वोजो मुह आह ।। अर्थात्-'दर्शन' भी देते रहिये । और-- मुह अवगुण लखिया नहीं, लखियो निजकुल रोति । ऐसी सदा निवाहियो, मासा घटे न प्रीति ।। अर्थात्-मेरे गुण सबगुणोंको कुछ भी न चिन्ताकर केवल अपने कुलकी रोतिको हो देखिये, और ऐसा निर्वाह कीजिये. जिससे किचित् मात्र भी प्रीति कम न होने पावे। तब श्रीपालजीने कहा--- कहन सुननकी बात नहि, लिखो पढ़ी नहिं जात । अपने मन सम जानियो, हमरे मनको बात ।। अर्याद-हे रामन् ! जितना प्रेम आपका मुझपर रहेगा। मेरी बोरसे भी उससे कम कमी नहीं हो सकता । देखिये-- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपालजोको विदा। [१०३ सिन्धुपार अण्डा घर, भ्रमै दिशान्तर जाय । टटहरी पक्षी कबहुँ, अण्डा नहीं भुलाय ।। अर्थात्-टटीहरी पक्षी समुद्रके किनारे अंडे रखकर दिशा तरमें चले जाते हैं, परन्तु अपना अण्डा नहीं भूलते है । उसी प्रकार मैं आपको भूल नहीं सकता। क्योंकि यद्यपि चन्द्र आकाश में, रहे पयिनी ताल । जो भी इतनी दूरने, विमानत रग्ड स्याल ।। अर्थात-दूर चले जानेसे भी सज्जनोंकी प्रीति कम नहीं हो सकती है। जैसे चन्द्रमा आकाशमें रहते हुए भी कुमुदि. नोको प्रफुल्लित करता रहता है । और दुर्जन सेवा कोजिये, रखिये अपने पास । तोहू होत न रंच सुख, ज्यों जल कमल निवास ।। अर्थात् दुर्जनको नित्य सेवा भी कीजिये और सदा पास रखिये तो भी प्रीति नहीं होती। जैसे जलमें रहकर भी कमल उससे नहीं मिलता है। इसलिए हे राजन् ! हम पक्षी तुम कमल दल, सदा रहो भरपूर । मुझको कबहु न भूलियो, क्या नीरे क्या दूर ।। इत्यादि। इस प्रकार अवसुर जंवाईका परस्पर प्रेमालाप हुमा और पश्चात् श्रीपालजीने रयनमंजूषाको साथ लेकर हँसतीपते प्रस्थान किया। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] श्रोपाल चरित्र । समुद्र-पतन श्रीपाल रयन मंजूषाको लेकर जच धवलसेठके साथ जलयात्राको मिकले, तर सद्वीपके लोगोंको, इनके वियोगसे बहुत दुःख हुआ, परन्तु वे विचारे कर हो क्या सकते थे? परदेशी की प्राति त्यों, ज्या वालको भोत । ये नहिं टिके बहुत दिवस, निश्चय समझो मौत ।। श्रीपालको श्वसुरके छोड़नेका तथा रयनमंजषाको भो माता-पिता को छोयोका उतना ही रंज हुआ, जितना कि उनको अपनो पुत्रो और जंवाईके छोड़ने में हुआ था, परन्तु ज्यों २ दूर निकलते गये, और दिन भी अधिक २ होते गये, त्यों २ परस्परको याद भूलने से दु:ख भी कम होता गया। -ठीक है__ नयन उधार सब लखे, नयन झनै कछु नांहि । नयन बिछोहो होते हो, सुख बुध कानुन रहाहि ॥ __ वे दम्पति सुखपूर्वक काल व्यतीत करते और सर्ग संघके मनोंको रंजायमान करते हुए चले जा रहे थे कि एक दिन विनोदार्थ श्रोपालजोने रयन मंजषासे कहा-हे पिये ! देखो, तुम्हारे पिताने बिना विचारे और बिना कुछ पुछे, अर्थात् मेरा कुल आदि जाने बिना हो मुझ परदेशीके साथ तुम्हारा ब्याह कर दिया, मो यह बात उचित नहीं की। रयनमंजूषा पतिके ये वचन मुनकर एकदम सहम गई, मानों पद्मिनी चन्द्र के अस्त होते ही मुरझा गई हो। यह नीची दृष्टि कर बड़े विचारमें पड़ गई कि देव ! यह क्या चरित्र है ? यथार्थ में क्या यह बात ऐसी ही है ? कुछ समझमें रही बाता । जो यह बात सत्य है तो लिताने बडो भूल Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पतन | (१०५ 'को। चाहे जो हो, कुसान कन्या अकुलोनसे प्रसंग कभी नहीं कर सकती है । क्योकि कहा है पहुप गुम्छ शिरपर रहे, या सूखे वन माह । तैसे कुलवंतन् सुता, अकुलोन घर नहि जाह ।। देब ! तेरी गति बिचित्र 1 तु क्या २ खेल दिखाता है । इत्यादि विचारोंमें मग्न हो गई और मुंह से कुछ भी शब्द न निकला । तब श्रापालने अपनी प्रियाको इस तरह चितित देखकर कहा प्रिये ! सन्देह छोडो। मैंने यह वचन केवल तुम्हारी परीक्षा करने के लिए ही बहे थे। सुनो, मेरा चरित्र इस प्रकार है । ऐसा कहकर आद्योपांत कुछ चरित्र कह सुनाया। तब रयनमंजूषाको सुनकर सन्तोष हुआ। और उन दोनोंका प्रेम पहिलेसे भो अधिक बढ़ गया । जहाजों के सभी स्त्री पुरुषों में इन दोनोंके पुण्यकी महिमा ही गाई जाती थी। _ ये दोनों सबको दर्शनीय हो रहे थे, परन्तु दिनके पीछे रात्रि और रात्रि के पीछे दिन होता है । ठोक इसी प्रकार शुभाशुभ कर्मोका नत्रा भो चलता रहता है। कर्मको उन दोनोंका आनन्द दौमव अच्छा नहीं लगा 1 और उसने बीचही में बाधा डाल दी, अर्थात् वह कृतघ्नी धवलसेठ जो इनको धर्मसुत बना कर और अपने लामका दशवां भाग देने का वादा करके साथ लाया था, सो रबनमंजूषाके अनुपम रूप और सौन्दर्सको देखकर उस पर मोहित हो गया, और निरंतर इसी चितामें उसका शरीर क्षोण होने लगा। एक दिन वह दुष्टमति उसे देख कर मूछित हो गिर 'पडा, जिससे सब जहाजोमें कोलाहल मच गया! तथा *श्रीपाल जो भो वोन ही वहां आये। उन्होने सेठको तुरंत Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपाल परित्र । गोद में उठा लिया । शोतोपचार कर जैसे तैसे मूळ दूर की, तो भो उसे अत्यन्त वेदनासे व्याकुल पाया। तब श्रीपालने मधुरः बोल पूछा-है तात ! आपको क्या वेदना है ? कृपाकर कहो । तब दुष्टने बात बनाकर कहा-हे धीर पुरुष ! मुझे वायुका राग है। सो कभी २ उठकर मुक्त पीडा देता है । और कोई विशेष कारण नहीं है। साधारण औषघोपचार हो ठोक हो जायगा । तब धीपाल उसे धैर्य देकर और अंगरक्षकों को ताकीद करके अपने मुकाम पर चले गये। पश्चात् मंत्रियोंने पूछा हे सेठ ! कृपाकर कहो कि यह रोग कैसे मिटे, और क्या उपाय किया जाय? तब सेठ निर्लज्ज होकर बोला-- मंत्रियो ! मुझे और कोई रोग नहीं है। केवल कामविरहकी पीड़ा है, सो यदि मेरे मनको चुरानेवाली वह कोमलांगी मगनयनी रयनमंजूषा नहीं मिलेगी, तो मेरा जीना कष्टसाध्य होगा। ___मंत्रियोंको सेठके ऐसे वचन घणित शब्द सुनकर बहुत दुःख हुआ। वे विचारने लगे कि सेठकी बुद्धि नष्ट हो गई हैं। इस कुबुद्धिका फल इसको और समस्त संघको भयकारी प्रतीत होता है। यह सोचकर उन्होंने नाना प्रकारको युक्तियों द्वारा मेठको समझाया। परन्तु उस दुष्टने एक भी न मानी।. वह निरन्तर बही शब्द कहता गया । निदान लाचार होकर मंत्रियोंने कहा कि सेठ ! यदि आप अपना हठ न छोड़ेगे, और इस घृणित कार्यका उद्यम करेंगे तो स्मरण रखिये, परिणाम अच्छा न होगा। क्योंकि रावण जैसा त्रिखण्डी प्रतिनारायण और कोचक सादिको कथाएं शास्त्रोंमें प्रसिस है। परस्त्री सपिणीसे भी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पतन । [१०७ अधिक विठलो होती है। देखो इसका हट छोड़ो ! हम लोग आज्ञाकारी है, जो आज्ञा होगी सो करगे, परन्तु स्वामीकी हानि और लाभकी सूचना कर देना यह हमारा धर्म है | आप हम लोगोंकी बात पीछे याद करेंगे । इत्यादि बहुत कुछ समझाया, परन्तु जब देखा कि वह मानता ही नहीं हैं तब वे लाचार होकर बोले महष्ट प्रबल है । सेठजी ! इसका केवल एक ही उपाय है कि मरजियाको बुलाकर साध लिया जाये, कि जिससे वह एकाएक कोलाहल मचा दे कि 'आगे न मालूम कोई जानवर है, या बार है, या कुछ ऐसा ही देवी चरित्र है दोड़ो, उठो, सावधान होओ" सो इस आवाज को सुनकर जब श्रीपाल मस्तूलपर चढ़कर देखने लगे तब मस्तूल काट दिया जाय। इस तरह के समुद्र में गिर जायेंगे और आपका मनवांछित कार्य सिद्ध हो जायगा । अन्यथा उसके रहते उसकी प्रियाका पाना मानों अग्निमें से बर्फ निकालना हैं । मंत्रियोंका यह विचार उस पापीकों अच्छा मालूम हुआ । और इसलिए उसने उसी जगह मरराजवाको बुलाकर बहुत प्रकार प्रलोभन देकर साध लिया । ठीक है, पुरुष स्वार्थवश आनेवाली आपत्तियोंका विचार नहीं करते । निदान एक दिन अवसर पाकर मरजियाने एकाएक चिल्लाना आरम्भ किया कि-बोरी! सावधान होमी ! सामने भयके चिह्न दिखाई दे रहे है । न मालूम कोई बड़ा जल जन्तु हैं, या चोरवल हैं, अथवा ऐसा ही और कोई देवी चरित्र है, तूफान हैं, या भंबर है, कुछ समझ में नहीं जाता । इस प्रकार चिल्लाने से कोलाहल मच गया। सव लोग यहां तहां क्या हैं? क्या है। करके चिल्लाने और पूछने 4 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D श्रीपाल चरित्र। लगे। इतने ही में श्रीपालजीको खबर लगो, सो वे तुरन ही उठ खड़े हुए और कहने लगे-" अलग होओ ! यह क्या है ? क्या है ? कहने का समय नहीं । चलकर देखना और उसका उपाय करना ही चाहिये। ऐसा कहकर वे आगे बढ़कर शीघ्र ही मस्तुलपर जा खड़े हुए और बड़ी सावधानीसे चारों ओर देखने लगे, परन्तु कहीं भी कुछ दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इतने में नोचेसे दुष्टोंने मस्तूल काद दिया. जिससे वे जातको दो समुद्र में माप, और लहरा में नीचे होने लगे। यहां जहाजों में कोलाहल मब गया, कि मस्तूल टूट जानेमे श्रीपालकुमार समुद्र में गिर पड़े है। और न जाने कहां रह गये? उनका पता नहीं लगता, जोषित है या मर मये? इस प्रकार सबने शोक मनाया, और धवलसेठने भो बनावटो शोक करना आरम्भ कर दिया । __वह कहने लगा – 'हाय कोटो मट्ट श्रोपाल ! तुम कहां चले गये ? तुम्हारे बिना यह यात्रा कैसे सफल होगो ? हाय ! इन भारी जहाजोंको मिन भुजबलसे चलानेवाले, लक्ष चारोंको बांधकर मुझे उनके बन्धन से छुड़ाने वाले, हाय ! कहां चले गये । है कुमार ! इस अलर वयमें असीम पराक्रम दिवाकर क्यों चले गये ? तुम बिना, विपत्तामें कौन रक्षा करेगा ? हा देव ! तूने हमको अनमोल रत्न दिखाकर को छोन निया ? इत्यादि उपरो मनसे वनावटा रोना रोने लगा। अन्तरङ्गमें तो वह हर्ष के मारे फूलकर कुप्पा हा रहा था परन्तु सघमें और बहुतोको तो सचमुच हो बहुत दुःख हुआ। सो ठाक है । कहा भी है___ " जिसका छो गिर जाय, सो हो लूखा जाय ।" सो औरोंको सच्चा दुःख हो या झूठा, परन्तु धवलसेठको - बनावटो शोक था परन्नु औरों का सच्चा था, क्योंकि उनका Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पतन । [११ तो श्रीपालसे बिगाड़ ही क्या था, वह तो धबल जैसे कृष्टहृदय स्वाथियोंका कांटा ही थे सो निकल गये । अस्तु । ___किसीको कुछ भी हो, परन्तु स्त्रियोंको तो शरण-आधार पति के बिना संसार अधकारमय ही हो जाता हैं, पति के बिना सुन्दर सुकोमल तेज भी विषम कंटक समान चुभती है । सुन्दर २ वस्त्र और आभूषण कठिन बन्धनोंसे भी अधिक दुःख देनेवाले प्रतीत होते हैं। संगीत आदि मधुर स्वर सिंहको भयानक गर्जनासे भी भयानक मालूम होते हैं, षट्रसपूरित सुगंधित मिष्ट भोजन हलाहल विष तुल्य मालूम पड़ता है । यथार्थ में पतिविहोन स्त्रियों का जीवन पृथ्वी पर अर्धदाच जेवरीके समान है। हाय ! जिस समय उस सुकुमार अबला पंचनामा पह सुना, कि मामी समुद्र में गिर गये हैं, उसी समय वह बेसुध हो भूछित होकर भूमिपर गिर पडो । मालूम होता था कि कदाचित् उसके प्राणपखेरुः ही इन विनाशोक शरीररूपी घोंसले से विदा लेकर सदाके लिये चले गये हैं, परन्तु नहीं अभी आयु कर्म निःशेष नहीं हुआ था ! और कर्मको पुछ अपना और खेल भी दिखाना था इसीसे वह जोवित रह गई। ___ सखा जनोंने शीतोपचारकर मुळ दूर को तो सचेत होते ही स्वामिन् ! इस अबलाको छोड़कर तुम कहाँ चले गये ? तुम्हारे बिना यह जीवनयात्रा कैसे पूरी होगी ? हे नाथ ! अब यह अबला आपके दर्शनकी प्यासी पपोहाको नाई व्याकुल हो रही है । हे कोटीभट्ट ! हे कामदेव ! हे कुलकमल दिवाकर ! तुम्हारे बिना मुझे अब एकर पल भी जैन नहीं पड़ती हैं । हे जीवदया-प्रतिपालक प्राणेश्वर ! दासीपर दयारष्टि करो । मेरा चित्त अधीर हो रहा है । हे नाथ ! Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र । सिद्धचक्रका वर्णन कौन होगा ? हां निर्दयो कर्म ! तूने कुछ भी विचार न किया ! मुझ "निरपराधिनीको क्यों ऐना दुःखद दुःख दिया ? हाय ! यह आयु स्वामोको गोदमें हो पूरी हो गई होतो, तो ठोक था • अब यह संसार भयानक वन सरोखा दिखता है। हे त्रिलोको. · नाथ ! सर्वज्ञ प्रभो ! हे वोत राग स्वामिन् ! मेरे पति को सहायता कांजिये ! हे सिद्ध भगवान् ! आपके आराधन मात्र वनमयो किवाड खुल गये थे, सो इस संकट में भी .. स्वामोको रक्षा कोजिये ! स्वामो के निमित ये प्राग कुछ भो वस्तु नहीं है । हाय ! मुझे नहीं मालूम कि मैंने ऐसे कोन कर्म किए थे कि जिससे स्वामांका वियोग हुआ? क्या मैंने पूर्व जन्ममें परपुरुषकी इच्छा को थी ? या पति-आज्ञा ‘मंग को थो? या किसोका व्रत भंग करवाया था ? जिनधर्माको निन्दा को थी ? या गुरुको अविनय को थी? या किसोको पतिवियोग कराया था ? या हिमामय धर्मका सेवन किया था ? या कुगुरु या कुदेवको भक्ति को थी ? या अपना व्रत भंग किया था? या असत्य भाषण किया था? . या कन्दमूल आदि अभक्ष्य भक्षण किया था? हाय ! कौनसा अशुम उदय आया कि जिससे प्राण प्यारे पतिका वियोग हुआ? हे स्वामिन् ! आओ, दासीको खबर लो। देखो, मैनासुन्दरीसे आपका वायदा था कि बारह वर्षामें आऊगा, सो क्या भूल गये ? नाथ ! मुझपर नहीं तो उन्हींपर सहो, दया करो ! क्या करू', और किस तरह धैर्य धरू ? अरे, कोई भी मेरे प्राणप्यारे भारको कुसल मुझे लकर सुनाओ? हे समुद्र ! तू म्यामीके बदले मुझे ही लेकर यमपुर पहुँचा देता तो ठोक था ! स्नामोके विता मेरा जोवन व्यर्थ है। मैं जाकर अब क्या करूंगा? इच्छा होती है कि मैं सेवन कियातवियोग कराया गुरुको अविना था ? जिन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र पतन । गिरकर प्राण दे दूं, परन्तु आत्मघात महापाप है। यदि मुझसे सेवामें कुश कमी हो गई थी तो मुझे उसका दण्ड देते । अपने आपको क्यों दुःखसागरको डुबोया। अब बहुत देर हुई । प्रसन्न होओ और अबलाको जीवनदान दो, नहीं तो अब ये प्राण आपको न्योछावर होते है ! अब, हे प्रभो ! आपकी ही शरण है, पार कीजिये । _इस प्रकार रयनमंजूषाने घोर बिलाप किया। उसका शरीर कांतिहीन मुरझाये फूल सरीखा दिखने लगा, खानपान वट गया, शुगार भी स्वामी के साथ समुद्र में डूब गया । इस प्रकार उस संताsil दु.खस विहल देखकर सब लोग यथायोग्य धैर्य बंधाने लगे और पारो धबलसेठ शोकाकूल होकर समझाने लगा ।। है सुन्दरी ! अब शोक छोडो ! होनी अमिट है । इस पर किसीका वश नहीं । संसारका सब स्वरूप ऐसा ही है । जो उपजता है वह नियमसे नाश होता हैं। अब व्यर्थ शोक करनेसे क्या हो सकता है ? अब यदि तुम भी उनके लिए मर आओ तो भी वे तुम्हें नहीं मिल सकते हैं। ससिको अनेक दिशाओंसे पक्षी आकर एक स्थानमें ठहरते हैं और भौर होते हो अनी २ अवधि पूरी कर अपनीर दिशाको चले नाते हैं। इस पृथ्वीपर बड़े२ चक्रवर्ती नारायणादि हो गये पर कालने सबको अपना ग्रास बना लिया, कर्मवश 'विपत्ति सत्र के उपर आती है । कविश रामचंद्र लक्ष्मणका वनवास हुआ । कर्मवश गीता पतिसे दो बार विद्रोह हुआ। कर्मवश ही भरत चक्रवर्तका मान भंग हुआ । कम वसा हो आदिनाथ लोहश्वरको छ: मास तक भोजनका अंतराय हआ। तात्पर्य -कर्मने जगजीवनको जीत लिया है इसलिए शोक छोड़ो । हम लोगोंको भी असीम दुःख हुआ है, परन्तु किससे झहें और क्या करें ? कुछ उपाय नहीं है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - श्रीपाल चरित्र । इस प्रकार सबने समझा कर रपनमंज्याको धैर्य दिया है. तब वह भी संसारफे स्वरूपका विचार कर किसी प्रकार धैर्य धारण कर सोचने लगी यथार्थमें शोक करनेसे असाताः वेदनो मादि अशुभ कर्मोका बंध होता है । सो यदि इतने ही समयमें जितने में शोक कर रही हूं श्री पंचपरमेष्ठीका आराधन करूंगो तो अशुभ कर्मी निर्जरा होगी और यह भी आशा हैं कि उससे कदाचित् प्राणपतिका भी मिलाप हो जाय । क्योंकि सीताको इसो परमेष्ठी मन्त्रको आराधनासे पतिका मिलाप और अग्निका जल हो गया था । ____ अंजनाको इसी मंत्र प्रभावसे उसके प्राणप्रिय प्रतिको भेंट हुई थी। आर तो क्या पशु और पक्षियों को भी इसी मन्त्रके प्रभावसे शुभ गति हो गई है, सो मेरे मो इस अशुभ कर्मका अन्त इसीकी आराधनासे आवेगा । और कदाचित् . इसी मंत्रकी आराधना करते हुए मरण भी हो गया तो भी इस पर्यायसे छुटकारा मिलते ही सद्गति प्राप्त हो जायगो । वास्तव में यह महामंत्र तोन लोकमें अपराजित हैं अनादि-. निधन है, मंगलरूप हैं, लोक में उत्तम हैं और शरणाधार है। अब मुझे-इसोका शरण लेना योग्य हैं। बस, वह सतो इसो विचारमें मग्न हो गई। अर्थात् मनमें पंचपरमेष्ठी मन्त्रको आराधना करने लगी । उसे खानपानको भो सुध न रहीं । . दो चार दिन यों ही बीत गये। स्नान, विलेपन और वस्त्राभूषणका ध्यान ही किसे था? वह किसी से बात भी नहीं करती थी, न किसोकी ओर देखती थी। नोंद, भख प्यास, तो उसके पास ही नहीं रहे थे। उसको मात्र पंचपरमेष्ठीका स्मरण और पतिका ध्यान था। वह पतिव्रता उन जहाजों में इस प्रकार रहती थी जैसे जलमें कमल भिन्न रहता है। वह परम वियोगिनी इस प्रकार काल व्यतीत करने लगी । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलसेठका रयन मंजूषाको बहकाना । ११३. धवलसेठका रयनमंजूषाको बहकाना धवलसेठके ये दिन बड़ी कठिनतासे जा रहे थे । इस-- लिए उसने शीघ्र हो एक दूतोको बुलाकर रयनमंजूषाको फुसलाने के लिए भेजा । सो ठीक है-- कामलुब्धे कृत्तो लज्जा, अर्थहीने कुतः क्रिया। सुरापाने कुतः शौचं, मांसाहारे कुतो दया । अर्थात्-कामीको लज्जा कहाँ ? और दरिद्र के क्रिया कहाँ ? सपायोके पवित्रता का ? और मासहरीके दया कहां, सो पापिनी दुती व्यभिचारकी खानि लोभके वश होकर शीघ्र ही रयनमंजुषाके पास गई और यहां वहां की बातें बनाकर कहने लगी "हे पुत्री ! धैर्य रक्खो। होना था सो हुआ, गई बातका बिचार ही क्या करना है ! हो यथार्थ में तेरे दुखका ठिकाना नहीं है कि इस बालावस्था में पति वियोग हो गया । अब इस बातकी चिंता कहां तक करेगी ? अभी तो तेरी नवीन अवस्था है, इसमें कामका जीतना बड़ा कठिन हैं। सो बेटो । तू कसे उस कामके बाणोको सहेगो ? जिस कामके वशीभत होकर साधु और सात्रोने रुद्र व नारदकी उत्पति की, जिस कामसे पीडित होकर रावणने सीता हरण की, जिस कामके वशमें और तो क्या देव भो हैं, उस कामको जीतना बहता काठन है । और ठोक ही कहा हैं घास फूसको खात है, तिनहिं सतावे काम । षट्रस भोजन जो करें, उनकी जाने राम || Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीपाला सो मम इस योवनको पाकर व्यर्थ नहीं खो देना चाहिये, यौवन गया हुआ फिर नहीं मिलता है। केवल पछतावा हो हाय रह जाता है। जिन्होंने तरुण अवस्था पाकर विषय नहीं सेषा, उनका नरअन्म न पानेके बराबर है। तू अब 'बीपाल का शोक छोडकर इस परम ऐश्वर्यवान, रूपवान और धनवान सेटको ही अपना पति बना । ___परेके पीछे कोई मर नहीं जाता । मर गया तो जोका कंटक शूटा । ऐसी लाजसे क्या लाभ, जो जीवनके गानंदपर पानी डाले । और वह तो धवन से ठक} नौकर था, सो जब माझी मिल जाय. तो नौकरको क्या चाह करना ? मुझे तेरी दशा देखकर बहुत दुःख होता हैं। अब तू प्रसन्न हो, और सेठको स्वीकार कर तो मैं अभी जाकर उसको भी राजी किये आनो हूं। ___मैं वृद्ध हुई हूं इसलिए मुझे संसारका अनुभव भलेप्रकार है। नु अभी भोलीभाली नादान लड़की है, इसलिए मेरे वचन मानकर तू मुखसे काल विता। इत्यादि अनेक प्रकारसे उस क्लिा दामीने समझाया, परन्तु असे काले कम्बलपर और कोई रंग नहीं चढ़ता है उसी प्रकार जरा सतोके मनपर एक बात भो न जंची, अर्थात् उस पापिनो दुतोका जादू इसपर न चला। वह कुलवंती सती उसके ऐसे निंद्य वचन सुनकर को से कांपने लगी, और डपटकर बोली-चुन रह, दुष्टा पापिनी ! Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घवलसेठका रपनमंजूषाको बहकाना । ११५ शेरी जोमके सौ दुकडे क्यों नहीं हो जाते ? धरलसेठ तो मेरे पतिका धर्म-पिता और मेरा श्वसुर (पिताके समान ) है । श्या पुत्री और पिताका संयोग होता हैं ? पापिनी ! हुने जन्मांतरोंमें ऐसे २ नोच कर्म किये हैं जिससे रण्डा कुट्टिनी हुई हैं और न मालूम अब तेरी और क्या गति हो ? इस जन्ममें रयनमंजूषाका पति केवल श्रीपाल ही है । और पुरुष मात्र, उसको पिता व भाई तुल्य हैं। हट जा यहाँसे, मुझे अपना मुह मत दिखला नहीं तो इसका बदला पावेगी । इस प्रकार सुन्दरीने अब उसे धुडकाया तब बह अपनासा मुह लेकर कांपती हुई पापो सेठके पास आई, और बोली "हे सेठ ! वह मेरे वशको नहीं हैं मुझे तो उसने बहुत अपमान करके निकाल दिया। जो थोड़ी देर और ठहरती, तो न मालूम यही मेरी क्या दशा करतो ? इसलिए आप जानो व आपका काम जाने । मुझसे यह काम तो नहीं हो सकता । दूती ऐसा उत्तर देकर चली गई। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोषाल चरित्र । धवल सेठ रयनमंजूषाके पास और देवसे दंड __ जब धवलसेठने दूतोको: कृतकार्य हुआ न जाना और निराशाका उत्तर मिल गया, तब उस निर्लज्जने स्वयं रयनमजूषा पास उसे फुसलाने का विचार किया । ठीक हैं कहा हैं य: कश्चिन् मकरध्वजस्य वश गः, कि ब्रमहे तत्कृते । नो लज्जा न च पौरुषं न कुलं, कुत्रास्ति पापान्विते ।। नो हौयं च पितुगुरोन महिमा, कुत्रास्ति धस्थिति। नो मित्रं न च बांधवा न च गृहं, वस्त: स्त्रियं पश्यति ॥ अर्यात-जो पुरुष कामके वश हो रहा है, उसकी क्या कथा है। उसको न लज्जा , न बल, न कुल न धंयं, न धर्म, न गुरु, न पिता, न मित्र, न माई, और न घर आदि कुछ भो नहीं दिखता ! केवल एक स्त्री ही स्त्री उसे दिखा. करती हैं । और भी कहा है .. कामार्तानां कुत: पापं, पापार्थीनां कुतः सुखं । नास्ति तत्प्राणिनां कम्भ, दुःखदं यन्न कामजम् ।। यथा माता यथा पुत्री, यथा भगिनी च स्त्रियः । कामार्थी च पुमानेता, एकरूपेण पश्यति ।। अर्थात्-कामी नरको क्या पाप नहीं लगता ? और पापीको क्या सुख हो सकता है ? नहीं, कभी नहीं देखो, कामी मर माता बहिन और पुत्री सबको स्त्री के ही रूपमें देखता हैं। इसी प्रकार शीघ्र ही वह पापी कामांध सेठ निर्लज्ज होकर उस सती के निकट पहुँचा । वह धर्मधुरन्धर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घवलसेठ रयनमंजुषाके पास और देवसे दंड। [११७ अबला उसे सन्मुख आते देखकर अत्यन्त ही भय और लज्जासे मुरझाये फलकी नाई हो गई, और अपना मुंह वस्त्रसे ढोक लिया और मनमें सोचने लगी कि हा देव ! तु क्या क्या खेल दिखाता है ? एक तो मेरे प्राणवल्लभ भारका वियोग हुआ। दूसरे यह दुर्बुद्धि मेरा शील भंग करनेके लिए सन्मुख आ रहा हैं । हो न हो, मेरे पति को इस पापीने ही समुद्र में गिराया होगा। हाय ! एक दुःखका तो अन्त नहीं हुआ, और दूसरा सामने आया। क्या करू' । इस समय मेरा कौन सहायो होगा ? वह दासी भी इसी पापीने भेजो होंगी । इन जहाजोंमें मेरा कोई हितू नहीं दिखता हैं । हे जिनदेव ! अब आपहीका मारण है । मझे किसी प्रकार पार उतारिये, लज्जा रखिये, तुम अशरणके शरणाघार और निरपेक्ष बन्धु हो । इस प्रकार सोच रही थी कि वह पापी निकट आकर बैठ गया। और विषलपेटी छुरीके समान मीठे शब्दों में हंस हसकर कहने लगा-- हे प्रिये स्थनमंजूषे! तुम भय मत करो। सुनों, में तुमसे धीपालकी बात कहता हूं। वह दास था, उसको मैंने मोल' लिया था। वह कुलहोन और वंशहोन था। बड़ा प्रपंची, झूठा और निर्दयीचित्त था । ऐसे पुरुषका मर जाना ही अच्छा है । तुम व्यर्थ उसके लिए इतना शोक कर रही हो, अब उसका डर भी नहीं रहा है, क्योंकि उसको गिरे हुए कई दिन भी हो चुके हैं सो जलचरोंने उसके मृतक शरीर तकको खा लिया होगा। इसलिये नि:शंक होओ। जब कांटा निकल जाता है, तब दुःख नहीं रहता । मुझे ससके साथ तुमको रहते हुए देखकर दुःख होता था कि क्या Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र | TEPUL कुल और क्या होलीको सेवे । सो यह अन्याय विधि भी न देख सका और उसने तुम्हारा पल्ला उससे छुड़ा दिया। अब तुम प्रसन्न होओ मेरी ओर देखो। तुम मेरी स्त्री बनो और मैं तुम्हारा भर्तार बनूं में तुमको अपनी सब स्त्रियों में मुख्य बनाऊंगा, और स्वप्न में भी तुम्हारी tear विरुद्ध कमी न होऊंगा । अब तुम डर मत बरी । शीघ्र ही अपना हाथ मेरे गले में डालो, और अपने अमृतमई वचनों से मेरे कानों व मनको प्रफुल्लित करो घित तुम्हारे बिना व्याकुल हो रहा है । ११५ ] हे कल्याणरूपिणी ! मृगनयनी ! कोमलांगी ! आओ और अपने कोमल स्पर्शसे मेरा शरीर पवित्र करो । देखों, ज्योंर घड़ी जाती हैं, त्यों योवनका आनन्द कम होता जाता है। कहा भी है कि मनुज जनमको पाय कर, व्यर्थ गमायो जन्म तिन खबर नहीं हैं पलककी जिन छोडे सुख हालके, उनसे मूरख कौन || सदा न फूले केतकी, सदा न श्रावण होय ॥ सदा न यौवन थिर रहें, सदा न जावं काय ॥ कियो न भोग विलास । कर आगाधी माथ ॥ कलको जानें कौन । इसलिए है प्यारी ! मुझे प्यासेको प्यास बुझाओ । हम जानते हैं कि नारी बहुत कोमल होती हैं, पर तुमको क्यों दया नहीं आती? क्यों तरसा रही हो ? तुम तो अतिचतुर व बुद्धिमती हो। तुम्हें इतना इठ करना उचित नहीं है । जो कुछ कहना हो दिल खोलकर कहो मैं सब कुछ कर संकता हूं, मेरे पास द्रव्यका भी कुछ पार नहीं हैं। राजाओं के यहां जो सुख नहीं, सो मेरे यहां है, मेरे ऐश्वर्य के सामने इन्द्र Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलसेठ रयनमंजूषाके पास मोर पेषसे दंड। [१९ भी तुच्छ हैं । भिन्तु प्यारी ! केवल तुम्हारी प्रसन्नता को कमी है सो पूर्ण कर दो, बामओ, दोनों दृष्यसे मिल लेवें।" । इत्यादि नाना प्रकार से वह तुष्ट बकने लगा। । परन्तु इस समय उस सतीका दुःख नहीं जानती थी, क्योंकि शीलवती स्त्रियोंको शीलसे प्यारी बस्तु. संसार में कुछ भी नहीं हैं। वे शीलकी रक्षा करने के लिए प्राणोंको भी न्योछावर कर देती हैं। इसीसे ये वचन उसको तीक्ष्ण बाणसे भो अधिक चुभ रहे थे जब उसने देखा कि यह पापी अपनी 2 द समाये ही जा रहा हैं और किंचित भो लज्जा भय व संकोच नहीं करता, तब उसने नीति और धर्मसे संबोधन करनेका उद्यम किया । वह बोली " हे तात ! आप मेरे स्वामीके पिता और मेरे श्वसुर हो, श्वसुर और पितामें कुछ अन्तर नहीं होता। मैं आपकी पुत्री हूं। चाहे अचल सुमेरु चल जाय, पर पिता पुत्रा पर कुदृष्टि नहीं कर सकता । प्रथम तो अशुभ कर्मने मेरे भारका वियोग कराया और अब दूसरा उससे भी कई गुणा, दारण दुःख यह तुम देने को उच्चत हो रहे हो। यदि और कोई कहता तो आपसे पुकार करतो, परन्तु आपको पुकार किससे कहूं ! अपने कुल व धर्मको देखो, हाडमांस व मलमूत्रसे भरी घृणित देहको देखकर क्या प्रसन्न हो रहे हो? चमडेको चादरसे ढकी हुई हैं जिसमें दशों द्वारोंसे दुर्गन्ध निकलती है ऐसे घृणित देहपर क्यों मुग्ध हो रहे हो ? इसके अतिरिक्त आपके यहां देवांगनाओंके सदृश स्त्रियां हैं, तो उनके सम्मका बासीवान है। बरे कुलवामका धर्म है कि अपने और परकेसीलकी रक्षा करें। बच्चे, सवण व जीवनमा परस्त्रीसम मानी गरेको कम्पनर मोरनापाले गये Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र। इसलिए पिताजी ! आप अपने स्थान पर जाओ, और मुझ दोनको व्यर्थ ही सताफर दुःखी मत करो। मुझ असहाया पर कृपा करो और यहांसे पधारो । परन्तु जैसे पित्तज्वरचालेका मिठाई भी कडवी लगतो है उसी तरह कामज्वरचालेको धर्मवचन कहां रुच सकते हैं ? वह दृष्ट बोला-"प्राणवल्लभे ! यह चतुराई रहने दो। ये सब ना तो मैं हूँ। यह विचार बूढ़े पुरुषों को जिनके शरीर में पौरुष नहीं हैं, करना चाहिए। हम तुम दोनों तरुण हैं। भला, अग्निके पास घी बिना पिघले फैसे रह सकता है ? सो इस व्यर्थको बातोंसे क्या होगा? आयो, मिललो, नहीं तो ये प्राण तुम्हारे न्योछावर हैं। अब भी वो कृपा न करोगो, तो मेरी हत्या तुम्हारे सिर होगी। अब तुम्हारी इच्छा ! मारो चाहे बचाओ।" ऐसा कहकर उस पापीने अपना माथा भूमिपर रख दिया। जब उस सतीने देखा कि यह दुष्ट नीतिसे नहीं मानता । और अवश्य ही बलात्कार कर मेरा शरीर स्पर्श करेगा, तब उसने क्रोधसे भयंकर रूप धारण कर कहा- रे दुष्ट पापी निलज्ज ! तेरी जीभ क्यों गल नहीं जाती ? बरे नीच दुर्बुद्धि निशाबर ! तुझे ऐसे घृणित शब्दोंको कहते शर्म नहीं आती है ? रे धोठ अधम क्रूर ! पशुसे भी महान पशु है । तेरी क्या शक्ति है जो शोल धुरंधर स्त्रोका शोल. हरण कर सके ? . . "यह पतिव्रता अपने प्राणोंको जाते हुए भी अपने शोलको रक्षा करेगी। तू मेरे प्राण हरण तो कर सकता है, परन्तु मेरे शीलको नहीं बिगाड़ सकता | एक वे (श्रीपाल) हो इस Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलसेठ रयनमंजुषाके पास और देवसे दंड । [१२१ भवमें मेरे स्वामी है । और उनकी अनुपस्थितिमें संयम ही मेरा रक्षक हैं । रे निर्लज्ज ! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अब तेरी भलाई नहीं है ।" ___ वह पापी इससे भी नहीं हगा और आगेको बला । यह देख उस सतीको चेत न रहा । कुछ देरतक वह कठ-पुतली सी रह गई, परन्तु थोड़ी देर में पुनः जोरसे पुकारने लगी-हे दीनबन्धो ! दयासागर प्रभो ! मेरी रक्षा करो! शिवनारी भर्तार प्रभु, तुम लग मेरी दौरू । जैसे काग जहाजका, सूझत और न ठौर ।। दीनबन्धु करुणानिधि, धन्य त्रिलोकीनाथ । शरणागत पाले घने, कीन्हें अनाथ सनाथ ॥ सोता, द्रोपदि, अंजनी, मनोरमादिक नास । बिपति समय सुमरी तुमहि, लीनो तिनहिं उबार ।। अबकी वार पुकार मुझे सुन लीजे महाराज । ढील न कीजे क्षणक हूँ, राखो मेरी लाज । धवलसेठ हो कामवश, लाज दई छूटकाय । आयो शील बिगाड़ने, यहां नहि कोई सहाय ।। शील नसे जो आज मुझ, तो मैं त्यागू प्राण । यामें शंक न रच हूँ, यही हमारी आन ।। इत्यादि।। इस प्रकार वह भगवानकी स्तुति करने लगी । अहा ! जिसका कोई सहायक न हो, और वह सच्चा शीलवान, चतवान, दृढ़चारित्री हो तो उसकी रक्षा देव करते हैं । उस सत्तीके अखंड शीलको कौन खण्डन कर सकता था? एक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] पौवाल परिव । धवला तो क्या कोट धवला भी उसका कुछ नहीं कर सकते ये । इसीलिए उसके दृढ़ शोलके प्रभावसे वहाँ तुरन्त ही जलदेव आकर उपस्थित हुआ और उसने धवलसेठको मुश्के बांध लों तथा गदासे बहुत मार लगाई। बालुरेत आंखों में मर के मुंह काला कर दिया, और मुहमें मिट्टी भर दी, तथा और भी अनेक प्रकारसे निंद्य कुवचन कहे । तात्पर्य-उसको बड़ी दुर्दशा की, और बहुत दण्ड दिया। सब लोग एक दूसरेका मुह ताकने लगे, परन्तु बतायें किससे? क्योंकि मार ही मार दिख रही थी, परन्तु मारनेवाला कोई नहीं दिखता था, गाता मंत्री लोग यह सोचकर कि कदाचित् यह देवी चरित्र है और इस सतीके धर्मके प्रभावसे हुआ है, अतएव रयनमंजूषाके पास आये, और हाथ जोड़कर खड़े हो प्रार्थना करने लगे। हे कल्याणरूपिणी पतिव्रते ! धन्य है तेरे शोलके माहात्म्यको! हम लोग तेरे गुणोंकी महिमा कहनेको असमर्थ है। तू धर्माको घोरी और सच्ची जिनशासनकी भक्त और व्रतोमें लवलीन है। तेरे भावको इस दुष्टने न समझकर अपनी नोचता दिखाई । अब हे पुत्री दया कर! इस समय केवल इस पापीका ही विनाश नहीं होता है, परन्तु हम सबका भी सत्यानाश हुमा हैं । हम सब तेरे ही शरण है, हमको यचा, उन लोगों के दीन बचनोंको सुनकर सतीको दया आ गई । इसलिए वह क्रोधको छोड़ खडी होकर प्रभुको स्तुति करने लगी "हे बिमनाय ! पत्य झे! जो ऐसे कठिन समयमें भापके प्रभावसे इस मामाकी धर्मरक्षा हुई। हे प्रमो! तुम्हारे Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवलसेठ रयन मंजूषाके पास और देवसे दंड । [ १२३ बसरदसे जिस किसीने मेरी सहायता की हो, वह इन्हें दया करके छोड़ दे । यह सुनकर उस जलदेवने उसे शिक्षा देकर छोड़ दिया, और रमनमषाको धेर्य देकर बोला- "हे पुत्री ! तू चिन्ता मत कर थोडे ही दिन में तेरा पति तुझे मिलेगा, और वह राजाओंका राजा होगा । तेरा सम्मान भी बहुत बढ़ेगा | हम सब तेरे आसपास रहनेवाले सेवक है, तुझे कोई भी हाथ नहीं लगा सकता है । 1 इस तरह वह देव घवलसेठको उसके कूकमका दण्ड देकर और रयनमंजूषाको धेर्य बंधाकर अपने स्थानको गया । और सतीने अपने पतिके मिलनेका समाचार सुनकर, व शील रक्षा होनेसे प्रसन्न होकर प्रभुकी बड़ी स्तुति को, मौर अनकर, कनोदर का उतीत करने लगी। वह पापी धवलसेठ लज्जित होकर उसके चरणों में मस्तक झुकाकर बोला- हे पुत्री ! अपराध क्षमा करो। मैं बडा अधम पापी हू और तुम सच्ची शोलघुरन्धर हो । तक सतीने उसको भी क्षमा किया । सत्य है 'उत्तमे क्षणिकः कोपो, मध्यमे महरद्वयं । अधर्मस्य अहोरात्र, नीचस्थ मरणान्तकम् ॥' अर्थात् -- उत्तम पुरुषोंका को क्षणमात्र (कार्य होने तक ), मध्यम पुरुषोंका दो प्रहर ( भोजन करने तक ), जघन्य पुरुषोंका दिन रात और नीचोंका मरने तक तथा जन्मान्तों तक भी रहता हैं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - .. भोपाल चरित श्रीपालका गुणमालासे ब्याह अब इस वृत्तांतको यहां छोड़कर श्रीपालका हाल कहते हैं। वह महामति जब समुद्र में गिरा, सब हो उसने धवलसेठके मायाजालको समझ लिया, परन्तु उस उत्तम पुरुष 'बिना साक्षो या निर्णय किये बिना कमी किसोपर दोषारोपण नहीं करते. किन्तु वे अपने उपर आये उपलगोको अपने पूर्ण. वत् कर्मोका फल समझकर हो समभावोंसे भोगने का उद्यम करते है । इसलिये उक धोर वीर पुरुषने अपने भावोंको किंचित भी मलोन नहीं होने दिया और पंचारमेष्ठो मंत्रका आराधन करके समुद्र से तिरने का उद्यम करने लगा । ठोक है "जो नर निज पुरुषार्थसे. निजको करे सहाय । देव सहाय करै तिनहि, निश्चय जानो भाय ।" देवयोगसे उनको उस समुदकी लहरोंमें उछलता हुआ . एक लकडाका तख्ता दृष्टिगत हुआ। सो उसे पकड़कर वे उसों के सहारे तिरने लगे । इनको दिनरात तो समान हो था। खानापोनाके ठिकाने केवल एक जिनेन्द्रका नाम ही शरण था, और वहो लोको प्रभु उन्हें माग बतानेवाला था। वह महापली मम्मोरता और साहसमें समुद्र से किसी प्रकार भो कम न था। सो भला समुद्रको शक्ति कहां जो उसे बुबा दे? दूसरी बात यह थो, कि पत्थर पानो पर नहीं लिर सकता है, परन्तु यदि काठको नावमें मनों पत्थर भर दीजिए तो भो न डूबेगा । इसी प्रकार वह एक तो चरमशरोरी था । दुसरे जिनधर्महरा नांव पर सवार था, सा भला जो नांव इस अनादि बसन्त पंसारसे पार उतार सकती हैं, उस नासे इतना सा समुइ तिरन तो कुछ भो कठिन न था। कहा है - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका गुणमालासे ब्याह | १२५ जेल थल वन रण शत्रु ढिंग, गिरि गृह कन्दर मांहि । चोर अग्नि और वनचरोंसे, पुण्य हि लेय चचाहि || 1 इस प्रकार महामंत्र के प्रभावसे वे तिरते२ कुम्कुमद्वीपमें जाकर किनारे लगे । सो मार्गके खेदसे व्याकुल होकर निकट ही एक वृक्षके नीचे अचेत सो गये। इतनेही में वहां के राजा के अनुचर वहां पर आ पहुंचे और हर्षित हो परस्पर बतलाने लगे कि धन्य है ! राजकन्याका भाग्य, कि जिसके प्रभावसे यह महापुरुष बने गुरुबल अथाह यहुद्र पाकर यहाँ आ पहुंचा है। अब तो अपने हर्षका समय आ गया, यह शुभ समाचार राजाको देते ही वे हम सबको निहाल कर देवेंगे। अहा ! यह कैसा सुन्दर पुरुष है ? विधाताने अंग अंगकी रचना बडी सम्हाल करके की है । यह यक्ष है कि नागकुमार ? या इन्द्र है, कि विद्याधर ? या गंधर्व है ? इत्यादि परस्पर सब बातें कर ही रहे थे कि श्रीपालजोकी नींद खुल गई। वे लाल नेत्रों सहित उठकर बैठ गये और पूछने लगे ' तुम लोग कौन हो ? यहां क्यों आये ? मुझसे डरते क्यों हो ? और क्यों मेरी स्तुति कर रहे हो ? सो निःशंक होकर कहो ।" तब ये अनुचर बोले - "महाराज ! इस कुकुमपुरका राजा सत्तराज और रानी वनमाला है। जो अपनी नोति और न्याय से सम्पूर्ण प्रजाके प्रेमपात्र हो रहे हैं। इस नगर मैं कोई भो दीन दुःखी दिखाई नहीं देते । इस राजाके यहां एक रूप और गुणकी निधान, सकल कलाप्रवीण सुशीला गुणमाला नामकी कन्या है। किसी एक दिन राजाने कन्याको यौवनवती देखकर अवधिज्ञानी श्रीमुनिराज से पूछा था कि "हे देव ! इस कन्याका वर कौन होगा ? तब श्रीगुरु अवधिज्ञान के बल से जानकर यह कहा था कि जो पुरुष Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६) श्रोपाल चरित्र । समुद्रको निज भुजाओंसे तिरकर यहां आयेगा, वहीं इसका वर होगा।" उसो दिनसे राजाने हम लोगोंको यहां पहरे पर रक्खा है । सो हमारे पुण्योदयसे आज आप पधारे हो, आपका स्वागत है ! हे प्रभो ! चलिर और अपनी नियोगिनीको प्रसन्नतापूर्वक विवाहिये । इस तरह अनुनय विनयकर कितने ही अनुचर श्रोपालजीका नगरकी ओर चलनेको विनती करने लगे। और कितनोंने जाकर शीघ्र ही राजाको खबर दी ! सो राजाने हर्षित होकर उन लोगोंको पारितोषिक दिया पश्चात् राजा स्वय उनकी अगवानीके लिए गये और उबटन तेल, फुलेल आदि भेजकर श्रीपालजीको स्नान कराया, और सुन्दर वस्त्राभूषण धारण कराकर बडे उत्साह और गाजे-बाजेसे मंगल गान पूर्वक उनको नगरमें लाये । घरोंघर मंगल गान होने लगा। तथा राजाने शुभ मुहूर्तमें निज पुत्री गुण मालाका पाणिग्रहण श्रोपालजोसे विनायक यंत्रकी पूजा अभिषेक और हवन संस्कारादि कराकर अग्नि व पंचोंकी साक्षी पूर्वक करा दिया तथा बहुतसा दहेज नगर, ग्राम, हाथी, घोड़ेसवार, प्यादे और वस्त्राभूषण आदि देकर कहने लगे___हे कुमार ! मैं आपकी कुछ भी सेवा करनेको समर्थ नहीं हूँ । मैंने तो आपकी सेवाके लिए मात्र यह सेविका (पुषीको दिखाकर) दी हैं सो अथं और कामसे इसका पालन काजिये और तथा मुझते कुछ सेवामें कमी हुई हो, सो क्षमा कोजिये और सदैव मुझपर कृपादृष्टि बनाये रखिये ।" तब श्रीपालने कहा-हे राजन ! मैं तो एक विदेशी पानी में बहता हुआ निराधार, कर्मोदयसे यहां आया था ! सो आपने Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका गुणमालासे पाह । १२७ पया करके जो यह कन्यारत्म मुझे दिया, और सब तरहसे मेरा उपकार किया है सो मैं भूल नहीं सकता, सदैव आपकी सेवा करने को तैयार हूं राजा इस प्रकारका उत्तर सुनकर प्रसन्न हुआ और श्रीपालजी भी वहाँ गुणमाला सहित सुखसे समय बिताने लगे, परन्तु जब भी कभी रयनमंजूषा व मनासुन्दरीकी सुध आ जाती तो चिन्तित हो जाते थे। एक दिन श्रीपालजी इसी विचार में बैठे थे कि वहां -गुणमाला आ गई, और बातों ही बातोंमें पूछने लगी-- प्राणनाथ ! आपका कुछ वंश जाति आदिका वर्णन तथा यहां तक पहुँचानेका कारण भी सुनना चाहती हूँ, सो कृपाकर कहीं । यह बात सुनकर श्रीपालको हंसी आ गई, और मनमें सोचने लगे कि अपना वृत्तांत इससे कहूँ तो इसको उसका निश्चय कसे होगा ? ऐसा चुप रहे । तब गुणमालाकी यह इच्छा और भी बढ़ गई । इसलिए वह और भी आग्रहपूर्वक पूछने लगी कि प्रभो ! बताईये तो सही, राज्य आदि विभति क्यों छोडा ? और समुद्र में कैसे गिरे ? और मगरमच्छादि जीबोंसे बचकर किस प्रकार ग्रहातक आये ? आपका चरित्र बहुत विचित्र मालूम होता है, इसीसे सुननेको इच्छा बढ़ रही है । तब श्रीपालजी बोले प्रिये ! पानी मेरा पिता, कीचड़ मेरी माता, बडवानल मेरे भाई, और तरगे मेरा परिवार है, सो उनको छोड़कर तुम्हारे पास तक मिलनेको चला आया हैं। बस यही मेरा चरित्र हैं, क्योंकि इससे अधिक और जो मैं कहूँ तो बिना साक्षी यहां कौन मानेगा ? यह Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] श्रीपाल चरित्र | सुनकर गुणमाला विस्मय में पड़ गई और वह लज्जित नीचा सिर करके बैठ रही । निज प्रियाकी यह विचित्र दशा देख श्रीपालजी बोले--- प्रिये ! यदि तुमको मेरा विश्वास हो, और सुनना चाहतो हो तो सुनो ! मैं अंगदेश चंनापुरके राजा अरिदमनका पुत्र हूं । पूर्णकर्मत्र रोगाक्रांत हो जानेसे अपने काकाका राज्यभार सौंपकर सातसौ सखों सहित उज्जैन भाया। और वहां के राजा पहूपालको कन्या मैनासुन्दरीसे विवाह किया। उस सतीकी पवित्र सेवा और सिद्धचक्र व्रतके प्रभाव से मेरा और सब. वोरोंका वह रोग मिटा । वहांसे चलकर मैंने एक विद्याधरको उसकी विद्या साधकर दे दी, और उससे जलतारिणी तथा शत्रुनिवारी दो विद्यायें भेटस्वरूप स्वीकार कर, मैं आगे चला । पश्चात् धवलसेठके पांचसो जहाज समुद्र में अटक रहे थे सो चलाये, तब उसने लाभका दशांश भाग बचन देकर अपने साथ चलनेको आग्रह किया सो उसके साथ चल दिया। रास्ते में एक लक्ष चोरोंको वश किया, और उनने रत्नसहित सात जहांज भेंट किये सो लेकर हंसद्वीपमें आया । वहां पर जिनालय के वज्रमयी कपाट खोले और वहांके राजाकी कन्या रवनमंजूषाको परिणकर तथा उसे साथ लेआगे चला सो कर्मयोगसे समुद्रमें गिर गया | परमेष्ठी मंत्रका आराधना करता हुआ जिनधर्म के प्रभाव से यहाँतक आ पहुंचा हूँ । हे प्रिये ! यही मेरी कथा है । तब पच .. गुणमाला स्वामी के मुखसे उनका सब वृत्तांत जानकर बहुत प्रसन्न हुई और ये (श्रीपालजो) अपनी चतुराई से थोड़े ही समयमें राजा तथा प्रजाके प्रिय हो गये । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुकुमद्वीप में सेठ | ZATH 1. कु. कुमद्वीपमें धवलसेठ [135% ● it 174 15.-. rr. कुछ दिनों बाद धवल सेठ के जहाज भी चलते२ कु. मी प आये । तब वह वहां डेराकर बहुत मनुष्यों सहित अमूल्यर वस्तुऐं लेकर राजजन करनेके लिए गया। और यथायोग्य सत्कार कर वे चीजें भेंट की । इससे राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने भी सेठका बहुत सम्मान किया जब इत्र, पान, इलायची बगेरह हो चुकीं तब सेठको दृष्टि यहां पर बैठे हुए गजा श्रीपाल पर पडी । सो देखते ही वह फूलकी नांई कुम्हला गया। दीर्घ निःश्वास निकलने लगे और चित्तामै प्रस्वेद निकलने लगा । सुधि बुधि सब भूल गये परंतु यह भेद प्रकट न हो जाय इसलिए शीघ्र ही अपने आपको सम्हाल कर वह राजासे आज्ञा मांगकर अपने स्थान पर जाया और तुरन्तं ही मंत्रियोंको बुलाकर विचारने लगा कि अब क्या करना चाहिए ? क्योंकि जिसने मेरे साथ बहुत उपकार किये थे, और मैंने उस ही को समुद्र में गिराया था, वह तो अपने बाहुबल से तिरकर यहां आ पहुँचा है और न मालूम कैसे राजासे उसकी पहिचान भी हो गई है । . तब तक वोर बोला "हे सेठ ! पुण्यसे क्यार नहीं होता हैं ? वह समुद्र भो तिर आया और राजाने उसे अपनी गुणमाला कन्या भी विवाह दी है ।" यह सुन सेट और भी दुःखो हो गया। ठीक है, दुष्ट मनुष्य किसीकी बढ़ती देखकर सहन नहीं कर सकते है । तिस पर यह तो श्रीपालजीका चोर है सो चोर साहुसे सदा भयभीत होता ही है। वह मारे भय बीर निवासे त्रिकल हो गया और भोजन पान सब भूल ९ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाया । मनमें सोम राजाके यहांसे अलग करा सक्सो ही मैं बन सकगा मन्यमा पद का मुमत नहीं होगा, इसलिए मीत्रयो ! अछ ऐसा ही जमा करनी चाय मंत्री बोले सेठ चिन्ता छोड़ी और उसी दयालु कुमार चौपालों 'म लो तो तमको कुछ भी कष्ट न होगा और यह भेद भी कोई नहीं जानेगा, परन्तु यह बात. सेठको अच्छी न लगी। इतने में उनमें से एक दुष्ट मंत्री बोला:- सेठ ! सिंहके सामने क्या मृग जाकर रक्षा पा सकता है। जिसके साथ बापने मलाईके बदले बुराई को है, सो क्या वह अवसर मलने पर तुमको छो डेगा । नहीं, कभी नहीं छोड़ेगा ! . लिये हमारो रायमें यह आता है कि भांडोंको बुलाकर उन्हें कुछ लच्यका लालच देखकर चबार में भेजो,. में वे श्रीपाल को देखकर बेटा, भाई, पति आदि कहकर . लिपट जाब, जिससे गजा उसे भाड़ोंका पुत्र जानकर प्राणदल है देगा और हम सब बच जावेंगे। कारण यहां तो उसकी शनि पहिचान कुछ है ही नहीं, इसलिये यह बात जम जावेगा। सेठको यह विचार अच्छा मालूम हुआ, इसलिए उसने इसे पसन्द कर लिया, और वह उस मंत्रीको बुद्धिकी सराहना कर कहने लगा-बम, ठोक है । अब इस काम में देरी मत करो कि जिससे शत्रु को अवसर मिल सके, नहीं तो वह न मालूम क्या कर डाले ? यद्यपि साथवालों या अन्य मंत्रियोंने सेठको बहुत समझाया कि देखो, ऐसा काम न करो, नहीं तो पीछे बहुत पछताभोगे, और जो उसका शरण ले लोंगे तो तुम्हारा बाल भी बांका न होने पावेगा। परन्तु कहा है-"जाकी विधि दारुण दुःख देई, ताकि मति पहिले हर Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेई", अर्थात् बुद्धिमान है, इसलिए किसीके कहने का समझानेसे क्या हो सकता था? . . .. ठीक है आपत्ति आने पहिले हो बुद्धि नष्ट हो जाती है, धर्म श्रद्धा छूट जाती है. कायरता बढ़ जाती हैं, सत्य चधन नहीं निकलता, विषमकवायें बढ़ जाती है. सोल, संथम, स्था, सन्तोष, विक, साहस आदि गुग और धन आदि सब चला पाता है । सो सेठको भी यही दशा हुई। उसने किसीफा कहना न माना, और मांडों को बुलाकर उन्हें बहुत अव्यका लालच देकर समझा दिया कि तुम राजसभा में जाकर अपना खेल दिखाये. बाद श्रीपालजीके गले लगकर मिलाप करने लगना, और अपना२ सम्बन्ध प्रकट करके अपने साथ घर चलने का आग्रह करना, और राजाके कहने पूछने पर इस प्रकार कहना__महाराज ! हम जहाजमें बैठे आ रहे थे, सो तुफानसे जहाज कट गया, और हम लोग किसी सरह किनारे लगें, सो और सब तो मिल गये, परन्तु केवल दो लड़के रह गये थे । सो छोटा तो यह आज आपके दर्शनसे पाया और एक बेटा इससे वर्ष बडा था अब तक नहीं मिला है। ऐसा राजाको बहुत धन्यवाद देने लगना । इस प्रकार समझाकर जुन भोडोंको सेठने राजसभा में भेज दिया । ~ - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] श्रीपाल पास्त्र । ...... भाँडोका कपट . . . . पश्चात् वे सब मांड़ मिलकर राज्य समा गये, और राजाको यथायोग्य प्रणामकर उन लोगोंने पहले तो अपनी नकल खेल इत्यादि करके राजासे बहुतसा पारितोषिक प्राप्त किया, पावाद चलते समय सब परस्पर मुहीमुह देखकर अंगुलियोम श्रीपालको ओर इशारा करके बतलाने लगे। यहीं ढंग बनाकर, पोडी देर में ज्यों ही राजाकी बोरसे श्रोपाल लोगोंको पानका बीड़ा देने के लिए गये, और अपमा हाप उठाकर बोडा वेने लगे, त्यों ही सबके सब भाप अहहा । घाय भाग्य ! बिछुड़े मिल गये, कहकर उठ पड़े, और श्रीपालको चारों ओर से घेर लिया । कोई बेटा, कोई पोता, कोई पड़पोता, कोई भतीमा, कोई पति इस तरह कह-कहकर कुशल पूछने लगे । और राजाको आशीर्वाद देकर बलया लेने लगे, कहने लगे-- ____ अहा ! आज बड़ा ही हर्शका समय मिला जो हमारा बेटा हाथ लगा । हे नरनाथ ! तुम युग युगतिरों तक जीओ! धन्य हो महाराज, प्रजापालक हो ! तुमने हम दोनोंको आज पुत्रदान दिया है। मह चमस्कार देखकर, राजाने उन मांडोंसे कहा "तुम लोग सच्चार हाल मेरे सामने कहो! नहीं तो सबको एकसाथ शूलीपर चढ़ा दुगा । नीच तिर्लज्जो ! तुम लोगोको कुछ भी ध्यान नहीं है कि किस कुलोन पुरुषको अपना पुत्र कह रहे हो । तब वे मांड हाथ जोड मस्तक मुका दीन होकर बोले-'महाराज दीनानाष अन्नदाता ! यह लडका हमारा ही है । मेरी स्त्रीके दो बालक थे, सो एक तो यही है और दूसरेका पता नहीं है । हम सब लोग समुद्र में एक नावमें गैठे आ रहे थे, सो तूफानसे जहाज फट कम कुलोन 6 रहे हो। तब वे भुका दीन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांडोंका कृपट ! | १३३ गया, और हम लोग किसो प्रकार लकड़ी के पटियोंके सहारे कठिनता से किनारे लगे सों और सब तो मिल गये, परन्तु एक लडका नहीं मिला है। हे महाराज हो! आपके दर्शनले सम्पत्ति और संतति दोनों ही मिले। : = भांडोंके कथनको सुनकर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ कि हाय ! मैंने बिना देखे और कुल जाति आदि बिना ही पूछे कन्या ब्याह दी। निःसन्देह यह बडा पापी है, कि जिसने अपना कुल जाति आदि रुछ प्रगट नहीं किया और मुझे धोखा दिया। फिर सोचने लगा- नहीं, इस बात में कुछ भेद अवश्य होना चाहिए, क्योंकि श्री गुरुने जिस भांति कहा था, उसी भांति यह पुरुष प्राप्त हुआ है, और हीन पुरुष कैसे ऐसे अथाह समुद्रको पार कर सकता है ? इसके सिवाय इन भांड़ोंका और इसका रंग रूप और वर्ताव भी तो बिलकूल नहीं मिलता है । देव जाने क्या भेद है ? फिर कुछ सोचकर ओोपाल से पूछने लगे- " अहो परदेशी ! तुम सत्य कहो कि तुम कौन हो ? ओर भांडोंसे तुम्हारा क्या सम्बन्ध है ?" तब श्रीपालजीने सोचायह मेरे वचनकी साक्षी क्या है ? यह बहुत और मै अकेला हूं। बिना साक्षी कहने से न कहना ही अच्छा है । यह सोचकर वह धीश्वीर निर्भय होकर बोला- महाराज ! इन लोगोंका ही कथन सत्य है । ये ही मेरे मां बाप और - स्वजन सम्बन्धी हैं । - राजाको श्रीपाल के इस कथनसे क्रोध उबल उठा, और उन्होंने तुरन्त ही बिना विचारे चांडालोंको बुलाकर इनको garपर चढ़ा देने को आशा दे दो। सत्य हैं, समय किसको कौन कर्म, उदय आकर दुःख क्यार चमत्कार दिखाता है । न जाने किस देता है, और Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tax] श्रीपाल फेरि। मूली होरी 13 राजाकी अशा पांडालोंने श्रीपालकी बांध लिया, और सूली देनेके लिये ले चले। सर्व श्रीपाल सोचने लगे कि मैं चाहूँ तो इन सबकी क्षणभरमै संहार कर डालू, परन्तु ऐसा करने से भी क्या सुकुलीन कहा जा सकता है? कदाि नहीं, इसलिए अब उदयमें बाये हुए कर्मो को सहन करना ही उचित है, जिससे फिर मानेके लिए ये शेष न रहें । दे अभी और क्या होता हैं ? इस तरह सोचते हुए के पांडालो साथ आ रहे थे कि किसी राजमहलकी दासीने यह संब समाचार गुणमालासे जाकर कह दिया। सुमसे ही वह मूर्च्छित हो भूमिपर गिर पड़ी। जब सखियोंने शीतोपचार करके मुख दूर की तो हे स्वामिन्! हे प्राणधार ! करकर चिल्ला उठी, और दीर्घनिश्वास डालती हुई तुरन्त हो श्रीपाल निकट पहुंचा और उन्हें देखते ही पुन मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। जब मुर्छा दूर हुई तो भयनीत मृगोको नाई सजल नेत्रोंसे पतिकी ओर देखने लगी, और आतुर हो पूछने लगी 12 स्वामिन् ! मुझ दासीपर कृपा कर सत्य कहो कि आफ कोन और किसके पुत्र है ? और इन भांहोने आपपर कैसे। यह मिथ्या आरोप किया है ? तब श्रीपाल बोले- "प्रिये ! मेरा पिता भांड और माता मांडिनो और सब कुटुम्दी भांड है और इसकी हाल में साक्षी भी हो चुकी हैं फिर इसमें सन्देह भी क्या है ? तब गुणमाला बोली- 'हे नाथ ! यह समय हास्य करनेका नहीं हैं। कृपय यथार्थ कहिये । पहिले तो मुझसे और हीं कहा था और मुझे उसीपर विश्वास है, परन्तु यह आज में कुछ कुछ विचित्र Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tv शूली नहीं त दे रही है। ताडित भांहों के प्राका चारुरूपहिल साहस, दया, क्षमा, सन्तोष धीरज, स आदि गुण कुछ भी उनमें नहीं हो सकते हैं। फिर आपको उनकी संतान कैसे कहा जाय जिनदेवकी दुहाई है सत्यर कहिये, क्योंकि कहा है 1 या पुंसि देदीप्यमानसुभगे झारोग्यता जायते ।. गम्भीरं भववजित गुणनिधि सन्तोषजात चिरं । विख्यात शुभनामजातिमहिमा श्रर्या दारक्षमं ॥ नेत्र करो न भूमिपति होने कुले जायते ! अर्थात- सुन्दर, रूपवान, निरोगी, यरक्षीर स गुणनिधि, सन्तोषी, शुभ्र नामद्वाला कीविया और क आनंद देनेवाला ऐसा पुरुष नकुल में कैसे जन्म ले सकता है ? कदापि नहीं ले सकता। 1 वनश्रीभवजी बोले- प्रिये ! तम चिंता मत 7 अपना दूर करो। समुद्र किनारे जो जहाज ढहते हैं जनमें एक मनमंजूषा तम्मकी मुन्धी है, जिसकी पहिले तुमसे कह चुका हूं सो तुम जाकर मे सत पूछ लो । वह जानती है, वही तुमसे सब कुड़ेगी 1. यह सुनते ही वह सती शीघ्र ही समुद्र किनारे गई, और! रथनमंजूषा !! कहके वहां पुकारने लगी। तब ज सुनकर विधारा .... हां प्रदेश में मुझसे कौन हैं ? देखो, सही कोट है ? कोही ? बह ब्रहान के ऊपर आकर सुकुमार स्त्रीको स्थाई ले सा Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६॥ श्रीपाल बरि । 'वन कर रही है, और जिसका शरीर धूल धूसरित हो | तथा अस्तव्यस्त बनायें खड़ी हैं। उसे देख रमनमं मंजूषा करुणामय स्वर से बोली -- 'हे बहिन ! तू क्यों रो रही हैं, और क्यों इतनी अधीर हो रही है ? तू कौन ? और यहां कैसे आई ? गुणमालाको इसके कुछ : हुआ। वह अपने को सम्हाल करके बोली- 'स्वामिनी ! मेरे पिलाने मुनिराज से पूछा था कि जो पुरुष निज बाहुबलसे समुद्र तिरकर यहां आये, वही तेरी कन्याका पति होगा, सो ऐसा ही हुआ कि यहां कुछ दिन हुए एक पुरुष श्रीपाल नामका महातेजस्वी रूपमें कामदेव के समान धीरबीरे, महाबली, निजबाहुबल से समुद "तिरकर आया और मेरे पिता (यह राजा ) ने उसके साथ मेरा पाणिग्रहण भी करा दिया। इस प्रकार बहुत दिन हम दोनों आनन्दले रहे परन्तु आज बहुतसे भांड राज्यसभा में आगे, - और अपनी चतुराईसे राजाको प्रसन्नकर पारितोषिक प्राप्त किया। पश्चात उन्होंने मेरे पतिको देखकर पकड़ लिया | और 'पुत्र-पुत्र' कहकर चुम्बन करने लगे, बलया लेने लगे, और राजासे कहने लगे कि यह तो हमारा पुत्र है ! तब राजाको बहुत दु:ख हुआ, और उन्हें हीनकुलीन जानकर शूलीकी आज्ञा दे दी हैं। इसलिए स्वामिनी ! तुम इसके विषय में जो कुछ जानती हो तो कृपाकर कहो, ताकि "मेरे स्वामीकी प्राणरक्षा हो । मुझ अनाथको पति भिक्षा देकर सार्थ करो !" तब रयनमंजूषां बोली- हे बहिन ! तु शोक मत कर वह पुरुष परमशरीरी महाबली है, उत्तम राज'वंशीय है मरनेवाला नहीं हैं ! ल, मैं तेरे पिता के साथ है और वही सब वृतांत कहूंगी । f Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f रनमंजूषाका श्रीपालको छुड़ाना। रनमंजूषाका श्रीपालको छुड़ाना रमनमंजूषा श्रीपालका नाम सुनते ही हर्षसे रोमांचित हो गई, और लम्बे‍ पांव बढ़ाती हुई शीघ्र हो राजसभायें आकर पुकार करके प्रार्थना करने लगी कि हे महाराज ! प्रजापालक ! दीनबन्धो ! दयासागर ! न्यायावतार ! कृपा करके हम दोनोंकी प्रार्थना पर भी कुछ ध्यान दीजिये । अन्याय हुआ जा रहा है। बिना विचारे ही एक निर्दोष व्यक्तिकी हत्या कर हम दीन अबलाओंको आप अनाथ बना रहे हैं। राजाने उनकी पुकार सुनकर सामने बुलाया और : १३७ : पूछा हे सुन्दरियों ! तुम क्या कहना चाहती हो? तुमको 'निःकारण निरसता हूँ ? कहीं। सब दोनों हाथ ओडकर बोली... "महाराज ! हमारे पति श्रीपालको निष्कारण खुली हो रही है इसका न्याय होना चाहिये ।" राजाने कहा सुन्दरियों ! यह राजवंशका अपराधी है। वह वंशहोन मांडोंका पुत्र हो करके भो यहां वंश छिपाकर रहा और मुझे धोका दिया है, इसलिये उसे अवश्य ही मूली होगी । 1 रयनमंजूषा बोली - "महाराज ! यह एक अंगो न्याय है, एक ओरकी बात मिश्री से भी मीठो होती हैं, परन्तु प्रति•वादीके लिए तीक्ष्ण कटारी है. इसलिए पहिले विचार कीजिये । और फिर जो न्याय हो सो फीजिये। हम तो न्याय चाहती है। राजाने रयनमंजूषासे कहा-"अच्छा! तुम इस विषय में कुछ जानती हो तो कहो।" सब रयनमंजूषाने कहा- हे नरनाथ ! यह अंगदेश पुरीके राजा अरिदमनका पुत्र है। और उज्जैन के चंपा - राजा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ._१३८] ......श्रीमान् अनि ..... पहपालकी रूपवती गुणवतोन्या मनामन्दराका पति हैं। यह वहसि चला तमाम जलेको क रता हुआ। इंसाया, और शाम का नकारतको पुन, मुझ SENHERIONEY किया सामागे अला, सोः पाहावामी वासाठको मुशायरा कूषित हुई। जितसं उसने छलकार मेरे पतिका प्रमुख गिरा बिमातिम्रा त्रा जीम भंा करनेका अश्चम किया, सो मील के प्रभावको विती देवने आकर मेरा कासगै दूर किया और सेठको बाब दिया। उस समय देयले मुलकाहा पाकिसुनी सुचिता मत कर, गीत हो तेरा स्वामो मुझे मिलेगा, और वह बड़ा राजा होगा सो महाराज, अबतक मेरे प्राण इसी माशापर ही विक रहे हैं। अब आपके हाथकी बात है, सोर बनाकर कालो हसारे पतिको रक्षा कोलिये मा हमाल भी अन्त निजविकोंसे देखिये। राजा, रयत्नमंजूषा यह वृत्तांत सुनकर बहुत प्रसन्न हमा और अपने विचारीपनपर पश्चात्ताप करता हुआ तुरन्त होलीपल के पास गया और हाथ जोड़कर विनती करने खगा-'हे कुमार ! मेरी बहुत भूल हुई, सो मुझपर क्षमा करो! में अधम है, जो बिना ही विचारे यह अनर्थ कार्य किया । अब मुझपर दया करके घर पधारो । . . . तब धोखाल ने कहा- महासज ! मंत्राइमें. सह कर्म-रही जीवोंको अमविकाससे कभी सूख और कमी मा दिलाकारका है। इसमें आपाठ छ बोल नहीं है । मेरे ही पूसामन कार कर्मोन अमराना है। साकिया सफाया अझ हुआ, जो वे कर्म छूट गये । मेरा इझना हो भार कम इना। से तो कुछ भी कलम विपर-नहीं होना सो श्रीक ही हुला। गई बाताब मलाबारीमा हाहानी। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रनमंजुषाकडाना । बात अवश्य है कि बाएं जैसे समीधीन पुरुषोंको प्रत्येक कार्य संदेव विचारक ही कहा है किकरना ये किं विद्याधराणाकृत कि योगीश्वर काननं कुपितं ध्यानं घृतं केवलम् ।। कि राज्य सुरनाथतुल्य भक्तो सुरनाथतुल्यभवतो भूमंडलै विद्यते । यतिं च विवेकहीनमनि दुःख व पुसोधिकम् ॥ अर्थात, विद्याधरकी गंधर्वादि विधाएं, योगी अचल ध्यान और स्वर्ग समान समस्त पृथ्वीका विवेक विना निष्फल है । . " का वनमें राज्य भी राजाने लज्जासे शिर मचा कर लिया और श्रीपालकों गजारूढ कर बड़े उत्साहसे राजमहलको ले आये। नगर में घर मंगलनाद होने लगा और ह मनाया जाने लगा । श्रीपाल जब महल में आये, तो दोनों स्त्रिोंने प्रेमपूर्वक पतिकी वंदना की और परस्पर कुशल पूछकर अपना सब वृतांत कहा तथा उनको सुनंकर विसको शांत किया, और वे आनन्दसे समय बिताने लगे . राजाने सेवकोंको भेजकर धवलसेटको पकर बुलाया, सो 'राजकीय नोकर उसे मारते पीटते तथा नही दुर्दशा करते हुए राजसभा तक लाये। तब राजाने उस समय श्रीवासजीको भी बुलाया और कहा-'देवी इस दुष्टमे अपने महोपकारी आप जैसे धर्मात्मा नररत्नको निष्कारण बहुत सताया है इसलिए अब इसका सिरछेद करना चाहिए ।" यह सुनकर और सेटको दुर्दशा किरको दुःख तु वे राजासे बोले- 'महाराज ! वह मेरा कृमाकर झो. छोट दजिये ।। इसने मेरे साथ जो भी अवगुण लिए तो गुण ही हो गये है। मेरे किए है ये मेरे ही सा न Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.] -श्रीमान सारित ।.. .... आपके दर्शन हुए और अतुल,सुख प्राप्त किया । यदि ये मुझे समुद्र में न गिराते तो मैं यहां तमा न बाता और न गुणमाला अंसी महिलाभूषणको विवाहला । __इस प्रकारसे राजाने श्रीपालके कहने मेट उपके सब माथियोंको छोड दिपा, तथा सादरपर्गक पंचामृत भोजर कराकर बहुत सुश्रूषा को। धवलोठने श्रीपालजोको यह · उदारता, दयालुता तथा गंभीरता देखकर लज्जित हो नावा सिर कर लिया, और श्रीपालको बहुत स्तुति की। मन हो मन पश्चाताप करने लगा-हाय मैंने इसको इतना कष्ट दिया, परन्तु इससे मुझ पर मलाई हो को। हाय ! मुझ पापोको अब कहां ठौर मिलेगा? इस प्रकार पछना कर ज्योंही उसने - एक दोघं उन्लास लो कि उसका हाय फट गया, और तस्कान प्राणपंखेरू उड गये । और वह मरकर पापके उदयसे न चला गया। यहां श्रीपालको सेठके मरनेका वहा बुख हुमा । उन्होंने सेठानोको पास जाकर बहा शोक प्राषित किया। परत्रात उसे धर्य देकर कहने लगा माताजी ! होनी अमिट है, तम दुःख कत करा, मैं तुम्हारा आज्ञाकारी पुत्र है, जो आज्ञा हो सो ही कई । यहां रहो तो सोत्रा करू और देश व मह पधारो सो पहुंचा हूँ, मब द्रब्ध बापहोका है, शंका मतकरो, मैं तुम्हारा पुत्र है। तब सेहाना बोली-हे पुत्र ! तम अस्पंस वयानु मौरविधी हो। जो होना पा सो हमाः मम आशा वो तो मैं पर जा। तब श्रीपालने उपको इन्काप्रमाण. बसको, मवायोग्य व्यवस्था करके विद्या किया और आप वहाँ खुबसे दोनों स्त्रियों सहित रहने लगे। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका वितरणास त्याह । [१४ श्रीपालजीका चित्ररेखासे व्याह . . एक दिन श्रीगलजी अपनी दोनों स्त्रियों सहित निंदमें मग्न हुये बैठे थे कि दरवाने आकर खबर दी कि महाराज ! द्वार पर एक राममनो हद कर रहा है बाझा हो तो तलाव । श्रीपालजीने उसे आनेकी आज्ञा दो, तब वह दूत भातर आया और नमस्कार कर विनयपूर्वक बोला है महाराज ! यहाँसे थोड़ी दूर धन, कण, कंचनसे परि. पूर्ण एक कुण्डलपुर नामका बहुत बड़ा नगर है। यहांका : राजा मकर केतु अत्यन्त दयालु और ऐसा प्रजापालक है कि जिसके राज्यमं कोई दीन दुःखो मिलते ही नहीं है । उस राजाके यहां कपूरतिलका नामको रानाके गर्भसे उत्पन्न चियरेख। नामका एक अत्यन्त अपतती व पोलवती काना! है। सो राजाने एक दिन कन्याको विमवती देखकर श्री. मुनि से पूछा था कि इस कन्याका पर कौन होगा ? तब गुरुने उसका सम्बन्ध आपसे होना बताया है, इस.. लिये कृपाफर आप वहां पधारिये और अपना नियोगिनी कन्याको विवाहिये । मैं बीमानको लेने के लिए ही आया है यह सदेश सुनकर श्रीपालको बड़ा हर्ष हुआ और दूतको बहतसा पारितोषिक दिया । पश्चात् आप अपनी दोनों स्त्रियोंसे विदा होकर कुण्डलपुर गये । दूतने इनको नगर बाहर ठहराकर राजाको समाचार दिया, तो राजा बड़ी सजधबके साथ इनकी अगवानीको आया, और बादरसे नगर में ले गया। पश्चात् इनका कुछ गोत्रादि पूछकर अपनी चित्ररेखा नामकी सुन्दर गुणवती कन्याका विवाह शुभ मुहूर्त में उनके साथ परमेष्ठीयंत्रकी पूजा विधि पुरस्सर बग्नि व पंचकी साक्षीसे कर दिया। सब Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [**3] R नगर में चित्ररेवासे व्याकर नन्द सहित वहां रहने लगे । बोपाल जो श्रीपालका अनेक राजपुत्रियोंसे व्याह 10. [. D एक दिन श्रीपाल चित्ररेखा सहित मधुर भाषण करते हुए बैठे थे, कि कंचनपुरका राजदूत आया और श्रीपाल । जीसे नमस्कार कर बोला "हे स्वामिन्! सुनो, कंचनपुरके राजा वज्रसेन और उनकी रानों कंचनमाला है जिसके गर्भसे सुशील, गन्धवं यशोधर और विवेक ऐसे चार पुत्र बड़े गुणवान और साहसी हुए है । तथा बिलांसमतो आदि नवसी पुत्रियां रूप लावण्यताकार पूर्ण है, सो एक दिन जब राजाने निमित्त ताने सपूछा उसने उनका विवाह आपके साथ होना बताया था, इसलिए आप कृपाकर शीघ्र ही पधारिये । यह सुन श्रीपाल प्रसन्न होकर श्वसुरकी आज्ञा ले कथमपुर गये और वहाँ उन नबसौ कन्याओंके साथ आनंदसे रहने लगे। वहां पर कुछ दिन हो दिन हुए थे कि कुकुमपुरका एक दूत बाया और बोला 1. महाराज ! हमारे यहांका राजा यशसेन महास्वी और पुण्यदान है। उसके गुणमाला आदि चौरासी स्त्रियां हैं और स्वर्णबिम्ब आदि पांच पुत्र तथा शृङ्गारगौरी आदि सोलहसो कन्यायें है उनमें आठ कन्यायें मुख्य है, जो समस्यायें कहतो है। इसलिये जो कोई उनकी समस्याओं की पूर्ति करेगा सो ही उन सबको विवाहेगा | आजतक अनेकों राजपुत्र आये, परन्तु वे उनकी समस्याओ को पूर्ति यथोचित नहीं कर सके इसलिये आप वहां पधारिये यह कार्य कदाचित आपसे हो 1 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका अनेक राविधीसे ब्याह । [" सकेगा। यह सुन बोपालजी प्रसन्न हो. "विसुरा आजा लेकर कुकुमपुरमें पहुँचे, सौ बही संघात सेनने "इनका आदर सहित स्वागत किया और अच्छे स्थान डेरा • कराया। सब नंगेरमैं मगरगाने होने लगा। औरं । जब इन राजकन्याओंने गई चार पाया तो मोह सहित उत्तार वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होकर इनसे पिलाने बाईब इनका अनुपम रूप देखते ही मोहित हो गई । श्रीपालजीने उनको आते देखकर यथायोग्य सन्मान सहित . बैठने को आज्ञा दी और कहा-'हे सुन्दरियो ! आप अपनीर · समस्यायें कहिये । तब प्रथम ही शृङ्गारगौरी बोली समस्या-'जई साहसं सह सिद्धि' ॥१॥ पूर्ति-अवसरं कठिन विलोकके, यही राखिये बुद्धि । कत्र हूं न साहस छोडिये, जहं साहस तहं सिद्धि ॥१॥ तब दूसरी सूवर्णगौरी बोली समस्या-मीप खंतह सव्व' ॥२॥ " पूर्ति-धम्म न विलमो धननि, कृपण है संचय दन्न । जूवा सयपले बो, गोगे पवनह सत्र ॥२॥ त सासरी पौलोमदेवी बोनी -. समस्का-'ते पंचायण सीई' ।।३।। । पति-शील बिहना जे' विनर, तिनकी मैली देह । ते चारित्ता निर्मला, ते पंचायण सीह ॥३॥ तल चौथो महाग शौरी बोली -- समस्या-'तासुकांचरा मीठ ॥४॥ पूर्ति-रयनागर छोडो वे, दादुर कुबे वईठ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति वा सोमवा बोलो ... १४४] ..... भोपाल पारित: . . . ... जिह्न भोफल नहीं चाखिया, तान काचरा मोठ ॥४॥ . .तर पांचवीं सोमकला बोली. लमस्या-'काम पियाऊ बोर' ॥ पूर्ति-रावण विद्या साधियो, दशमुख. एक शरार। भाई संशय. पड़ रहा, कास. पिवाऊ खोर ॥५॥ त छठ ममिरेखा बोलो ममस्या - सो मैं कह न होट' ।।६।। पुति साता सागर हूं फिरा, जम्बूदीप पईछ । शांत पराई. जा करे, सो मैं कहूँ न दीठ ।।६।। तब सातवों संपदादेवा बोली समस्या-'काई विठियो तेण' ।।७। पूति-कुन्तो जाये पंच सुत, पांचों मंत्र सयेण । गंधारी सो जाइया, काई विठियों सेण ॥७॥ तब आठवीं पद्मावती बोली समस्या-'सो त काय करेय' ।। पूर्ति-सत्तर जासु च उगणी, परी पावलो पेय । अक्षर पास बइठड़ी, सो तसु काय करेय ||5| + इस प्रकार जब आठों समस्याओं की पूर्ति हो चुकी तर सब कुटुम्बका बड़ा आनंद हुआ। और तुरत ही शुभ मुहूर्त में । राम यमसेनने अपना सोलहसो गुणवती कन्यायें विधिपूर्वक श्रीपालजीको विवाह दी। श्रीपालजी कुछ दिन तक विवाहके - बाद वहां हो रहे, और सुख से समय व्यतीत किया। पश्चात +उक्त समस्यायें हनारी समझमें ठीक नहीं आई इसलिये ।। कवि परिमल्लकृत पच ग्रंथों के अनुसार जैसीको तेस्रो ही यहा: बखत कर दी हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका अनेक राजपुत्रियों से माह 1 [ M एक दिन कुछ सोच विचारकर राजाके पास आकर आशा ली और सोल हसौ स्त्रियों को विदा कराकर वहां आये अहो नवसौ स्त्रियां थीं, और वहाँके राजासे भी घर जानेकी आज्ञा मांगी। तब राजाने कहा--कहा 'हे गुणधीर ! आपके प्रसंगसे मुझे बडा आनन्द होता है इसलिये कृयाकर कुछ दिन और भी इस स्थानको पवित्र करो।" तब धोपालने श्वसुरका कहना मानकर कुछ दिन और भी वहां निवास किया । पश्चात् वहांसे भी सब स्,ि यो विदा कारगर आप, और वहाँसे चित्र रेखाकी विदा कराई और पुण्डरीकपुर आकर कोकण देशकी दो हजार कन्यायें विवाही, फिर मेवाड (उदयपुर) को सौ कन्याएं विवाही, फिर तैलंग देशकी एक हजार विवाही, पश्चात् कुकुमद्वीपमें आये, और गुणमाला तथा रयनमंजषासे मिलकर वहींपर कुछ समय तक विश्राम किया 1 सुखमें समय जाते मालूम नहीं पड़ता है. सो बहुतसो सनियों सहित क्रीडा करते हुए सुखसे काल व्यतोत करने लगे। श्रीपालका उज्जैनको प्रयाण एक दिन राजा श्रीपाल रात्रिको सुखसे नींद से रहे थे कि अचानक नींद खुल गई और मैनासुन्दरीको सुधमें बेसुध हो गये। वे सोचने लगे-"ओहो ! अब तो बारह वर्षमें योगे ही दिन शेष रह गये हैं। सो यदि में अपने कहे हुए समय पर नहीं पहुँचूगा, तो फिर वह सती स्त्री नहीं मिलेगी इसलिये अब शीघ्र ही वहां चलना चाहिये, क्योंकि इतना Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] श्रीपाल चरित्र | वो ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हुआ है, यह सब उसीके कारणसे हुआ है सो मैं यहां सुख भोगू और यह वहां मेरे विरहसे संतप्त रहें! यह उचित नहीं है इसी विचारमें रात्रि पूरी हो गई । प्रातःकाल होते ही नित्यक्रियासे निवृत्त होकर वे राजाके पास गये और सब वृत्तांन कहकर घर जानेकी आज्ञा मांगी। अब राजा सोचने लगे कि जाने की आज्ञा देते हुए तो मेरा जो दुखता है. गरन्तु हटकर रखना भी अनुचित हैं। ऐसा विचारकर अपनी समेत श्रपालका अन्य समस्त स्त्रियों को बहुत वस्त्राभूषण पहिराकर उन्हें विदा करते समय इस प्रकार हिन शिक्षा दी - " हे पुत्रियो ! यह वडा तेजस्वी, बीर, कोटी भट्ट है । तुम्हारे पूर्व पुण्यसे ऐसा पति मिला है। सो तुम मन, वचन, कायसे इन सेवा करना, सासु आदि गुरु जनोंको आज्ञा पालन रना, परस्पर प्रीति से रहना, छोटों और दीन दुखियोंपर सदा करुणाभाव रखना ! कुगुरु, कुदेव और कुधर्म स्वप्न में भी आराधन न करना । जिनदेव जिनगुरु और जिन धर्मको कमो भव भूलना। इस प्रकार से दोनों कुलकी लाज रखना " इत्यादि शिक्षा देकर विदा किया । यहांसे चलते चलते वे सारट देश में आये और वहां के राजाकी कन्यायें विवाही । महांसे चलकर गुजरात देश में आये और बहांके राजाकी भी पांचसौ कन्यायें विवाहों । फिर महाराष्ट्र देशमें आये और वहां भारसों कन्यायें विवाहीं । फिर वैराट देशमें आकर दोपी कन्यायें पाही । P इस प्रकार धोपालजी बहुतती रानियों और बड़ी सेन्या सहित उज्जैन के उद्यान में आये, जहां इनका कटक नगर के Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका उज्जैनको प्रयाण । [१४७ चारों ओर ठहर गया। वहां घोडोकी हीस, हाथियोंकी चंघाड़, बलोंको डकार, ऊंटोंकी बलबलाहट, रथोको गड़-गडाहट, प्यादोको खटखटाफ, बाजाकी भनभनाट और भेरोकी भीमनाद आदिसे बड़ा घमसान कोलाहल होने लगा। जलचर भयके मारे जल में छिप रहे और बनचर स्थान छोडर कर भाग गये । नभचर भो आकाश में स्थान भ्रष्ट हुए इधर उधर शब्द करते डोलने लगे । नगर में मो बड़ी हलचल मच गई । कायर पुरुपोंके हृदय कांपने लगे। वे सोचने लगे कि अवसर पाकर चपके से हमलोंग निकल चलें । ऐसी नामवरी में क्या रखा है जो प्राण जाय ? वही जगल में 'छिपहिलपाकर दिन बिता दंगे । वृषण पुरुष धन को बांधर जमीनमें गाड़ने लगे । चोर लुटेरे लुटका अवसर देखने लगे, विषयो भावी विरहके दुःखका अनुभव करने लगे। शूर बोर अपने हथियार निकालर मांजने लगे। वे सोचने लगेहमारे आज राज्यक नमक खाने का बदला देनेका शुभ दिन आन पहुंचा है। विद्वज्जन तो संसार के विषयकषायोंसे विरक्त हो वादशा• नुप्रेक्षाका चिन्तब न करने लगे। वे सोचने लगे उपसर्ग दूर हो तो संयम लें और सदैव के लिए इस जंजाल से छूट । बहुतसे लोग सचन्त होकर राजाके पास दौडे और पुकारने लगेहे महाराज ! न जाने वहांका कौन राजा अपने नगर पर चढ़ आया है, सो रक्षा करो। राजा भी बड़े विचार में पड गये और मंत्रियों को बुलाकर सलाह करने लगे। मंत्रो भी अपनी अपनी राय बताने लगे । इसी प्रकार सोचते२ संध्या हो गई इसलिये राजा भी सेनाको तयार रहने की आज्ञा देकर आप अन्त:पुरको चले गये । __ -* Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल परित्र। श्रीपालको कुटुम्ब-मिलाप अब रात्रि हो गई, और सब लोग सो गये, तन श्रीपालजीने सोचा, कि मैंने १२ वर्षका वादा किया था, सो आज हा पूर्ण होता हैं । यदि मैं इमो समय मनासुन्दरीसे नहीं मिलता हूं तो वह भोर होते ही दीक्षा ले लेगी और फिर निकट आकर भी वियोगका दुःख सहना होगा। इसो विचारमें उसे क्षण२ भारी मालूम होने लगा। और इसलिये वह महा. बली पिछलो रात्रिको अकेला हो उठकर चला, सो शीघ्र ही माता कुन्दप्रभाके महलके पास पहुँचा, और द्वारपर जाकर खडा हो गया, तो क्या सुनता है कि प्राणप्यारी मौनासुन्दरी अपनी सासुके समीप बठी हुई इस प्रकार वाह रहा है - माताजी ! आपके पुत्र तो अबतक नहीं आये, और १२ वर्ष पूर्ण हो गये । इसलिए मैं अब प्रातः काल ही श्री जिनेश्वरी दीक्षा लुगो। मुझे आज्ञा दोजिये । इतने दिन मेरे आशा ही आशामें बोन गये। अब व्यर्थ समय बिताना उचित नहीं है । न पतिका हो सम्मेलन हुआ और न संयम ग्रहण किया तो नरजन्म व्यर्थ ही गया समझो और उनका दिया हुआ भी वचन पूर्ण हो गया है । कहा है "प्रसरी या संसारमें, आशा पास अपार । वन्धे प्राणी छूटे नहीं, दुःख पावें अधिकार ।। सो उनके आने की अब कुछ आशा नहीं दिखती हैं क्योंकि परदेश की बात है । न जाने स्वामो राह भल गये या किसी स्त्रीके वश होकर मेरी याद भुल गये, अथवा अन्य हो कोई कारण हुआ, क्योंकि अबतक कुछ संदेशा भो तो नहीं मिला है। इसीसे और भी चित व्याकुल हो रहा है। माताजी ! अबतक परदेशकी बात मेरी याद भुल भी तो नहीं Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमालको कुटुम्ब मिलन । आपको जो सेवा बन सकी सो यदि उसमें मेरी भूल व अज्ञानतासे जो त्रुटि हुई हो सो क्षमा करो और दयाकर आज्ञा दो कि मैं शो न ही सकल संयम धारण करू । अब न विलम्ब करनेसे मेरी आयुका अमूल्य समय व्यर्थ ही जाता दीखता है। तब कुन्दप्रशा बोली- "पुत्री! दो चार दिनतक और भी वैर्म र वखो। यदि इतने में वह (मेरा पुत्र) न आवेगा, तो मैं और तू दोनों हो साधर दोक्षा ले लेवेंगे, परन्तु मुझे आशा ही नहीं किन्तु पूर्ण विश्वास है कि वह धीर, बीर अवश्य ही इतने में आवेगा। तब सुन्दरी बोली--- माताजो ! यह तो सत्य है कि स्थानी अपने वचनके पक्के हैं परन्तु कम बड़ा बलवान हैं। क्या जाने स्वामोको कौनसो पराधीनता आगई है इससे नहीं आये । बिना संदेश मैं कैसे निश्चय करू ? कि वे इतने दिनों में आ ही जावेंगे ।" तब माताने कहा- "हे पुत्री ! तू इतनी अधीर मत हो। निश्चय हो तेरा पति २-४ दिनमें आवेगा । सो यदि वह आया और सूना घर देखेगा, तो बहुत दुःखी होगा, इसलिए जैसे तुम इतने दिन रहो हो, जैसे भी २-४ दिन सही । फिर हम तुम दोनों ही दीक्षा लेंगे।" मैनासुन्दरी बोली माताजी ! अब माहवा समय बिताना व्यर्थ है। आप भी मोहको छोड़कर चलों, और प्रभूके चरणोंकी सेवा करो। अब रहना उचित नहीं है। जो रहूगो तो बहुत दुःख उठाना पड़ेगा ! माताजी! आप तो उनकी जननो हो । सो पुत्रको विभूती भी देखोगी और मेरे जैसा तो उनके अनेकों दासियां होंगी। सो अब व्यर्थ ही अपमान सहने के लिए रहूँ और इ.पपर भी सनके आने की कुछ खबर नहीं है रव क्यों अपना समय विताया जाय। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १५० ] थोपाल चरित्र | इस प्रकार सासु बहूकी बात हो रही थीं कि श्रीपाल जी धीमे स्वरसे किवाह स्वटखटाकर बोले- माताजी! किवाड़ खोलिये, आपका प्रिय पुत्र श्रीपाल द्वार पर खड़ा है । इस प्रकारको आवाज सुनकर दोनों सासु बहू सहम गई, उनका वियोगका शोक हर्षमें परिणत हो गया, उनके हर्ष रोमांच हो आए और इसलिये शीघ्रताशीघ्र उन्होंने किवाड़ खोल दिये । किबाड खुलते हो वे भीतर गये और माताको प्रणाम किया। माताने हृषित हो आशीर्वाद दिया हे पुत्र ! तुम विरंजीवी होकर प्राप्त को हुई लक्ष्मीको सुखपूर्वक भोगा और तुम्हारा यश सर्वत्र फले । पश्चात् श्रीपालांकी दृष्टि मैनासुन्दरीकी ओर गई. तो देखा कि वह कोमलांगी अत्यंत क्षोणशरीरी हो रही है तब उसके महल में गये । वहां पहुँचते हो मेनासुन्दरी पांवपर गिर पडी । कुछ कालतक सुखमूर्च्छित होनेसे चुपकी ही रहो, फिर नम्र शब्दों में चित्तके हर्षको प्रकाशित करने लगी- 'अहा ! आज मेरा धन्यभाग्य हैं, जो मैं स्वामीका दर्शन कर रही हूं । हे प्राणवल्लभ ! इस दासीपर आपको असीम कृपा है, जो समय पर दर्शन दिये ! धन्य हो ! आप अपने बचनके निर्वाह करनेवाले है, मैं आपको प्रशंसा करनेको असमर्थ हूं ।' तत्र कोटीभटने अपनी प्रियाको कंठसे लगाकर उसे यं दिया ! पश्चात् परस्पर कुशल वृत्त पूछने के, श्रीपालजी माता और मैना सुन्दरीको अपने कंटकमें ले गये, और वहां जाकर माताको उच्चासनपर बैठाकर निकट ही मैना सुन्दरी को उनही के आसनके पास ही स्थान दिया पश्चात् रयनमंजूषा आदि समस्त स्त्रियोंको बुलाकर कहा - "यह उच्चासन पर विराजमान हमारी पूज्य माता और तुम्हारी सासुजी हैं और उनके - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालको कुटुम्ब मिलन । [ १५१ पारा हो मेरी प्रथम पत्नी पट्टरानी मैतासुन्दरी है। इन्हीं प्रसादसे तुम सब आठ हजार रानियां और ये सब संपत्तियां मुझे प्राप्त हुई हैं। तब उन स्त्रियोंने स्वामीके मुख से यह राम्वन्ध जानकर यथाक्रम सासु कुन्दप्रभा और मैना सुन्दरीको यथायोग्य नमस्कार करके बहुत विनय सत्कार किया | इस प्रकार परस्पर सम्मिलन हुआ । पश्चात् श्रीपालीने माता और मैना सुन्दरीको अपना सब कटक दिखाया माताकी आज्ञा लेकर मैासुन्दरीको आठ हजार रानियोंको मुख्य पट्टरानीका पद प्रदान किया और बोले 'हे सुन्दरी ! यह सब कुछ जो विभूति दीखती है सो तेरे ही प्रसाद में है । में तो विदेशी पुरुष हुँ, जो विपत्तिका मारा यहां आया था। तब मैनामुन्दराने विनययुक्त हो नीचा मस्तक कर लिया और बोली 1 'हे स्वामिन ! मैं आपको चरणरजके समान हूं। मैंने अपने पूर्व पुण्यके योगसे ही जैसा भर्तीर पाया है। आप तो कोटीभट्ट, साहसी, धीर बोर, पराक्रमी और महाबली हो । लक्ष्मी तो आपकी दासी है। आपकी निर्मल कीर्ति दशों दिशाओं में व्याप्त हो रही हैं।' इस तरह मैनासुन्दरीका पट्टाभिषेक हो गया और वे रयन मंजुषा गुणमाला, चित्ररेखादि समस्त आठ हजार Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] - ग-. भोपाल परिम। रानियां मैनासुन्दरीको सेवा सुश्रुषा करने लगी। पश्चात एक समय मौनासुन्दरोको अपने पिताके पूर्वकृत्यका स्मरण हो आया सो वह बदला लेने के विचारसे पतिसे बोली_ 'हे स्वामिन् ! आप तो दिगंत-विजयी हो इसलिये मेरो इच्छा है कि आपके द्वारा मेरे पिताका युद्ध में मान भंग होने और जब वे कांधेपर कुल्हाडी धरे हुए, कम्बल ओढ़कर और लंगोटी लगाकर सन्मुख आव तभो छोडना चाहिये ।' यह सुनकर कोटीभट्ट चुप हो गये और कुछ सोच विचार कर बोले-हे कांदे ! तम्हारे पिलाने मेरा बड़ा उपकार किया है, अर्थात कोढीको कन्या दी है । जिस समय में स्वयं स्वजनोंसे वियोगी हुआ यत्र तत्र फिर रहा था तब उनने मेरी सहायता की थी सो ऐसे उपकारीका अपकार करना कृतज्ञता और घोर पाप है । अत: मुससे यह कार्य कठिन हैं ।' तब मैनासुन्दरी बोली ___ 'हे स्वामिन् ! में कुछ द्वेषरूपसे नहीं कहती है, परन्तु यदि कुछ चमत्कार दिखाओंगे तो उनकी जिनधर्म पर दृढ श्रवा हो जायगी यही मेरा अभिप्राय है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ पीपालका पहुपालमे मिलाप । श्रीपालका पहपालसे मिलाप श्रीपाल प्रिया के ऐसे वचन सुनकर अत्यंत हर्षित हुए और तुरंत ही एक दूतको बुलाकर उसे मब भेद समझाया, और राजा गहुपाल के पास भेजा । यो इन स्थानकी आज्ञानुमार मीठा ही राजामी उचौडोर जा पहुँचा और दरबानके हाय अपना संदेश भेजा। राजाने उरो आनेकी आज्ञा दो, सो उस दुतने सन्मुख जाकर राजा पहुनाल को यथायोग्य नमस्कार किया । राजाने कुशल पूमी, मब दुन बोला___ 'महाराज ! एक अत्यंत बलवान पुल कोटोभट्ट अनेक देशोंको विजय करके. और बहाके राजाओंको वश करता 'हुआ आज यहां बा पहुंचा है उसको मैया नगरके चारों ओर पड़ रही है। उसके सामने किसीका गब नहीं है । सो उसने आपको भी आजा की लंगोटी लगा कम्बल ओढ़ माथे पर पडीका भार और कधि कह दो मकर मिलो तो कुशल है. अन्यथा क्षण भर में विवस भर दुगा । इसलिये हे गजन् । आप जो कुशल चाहते हो, तो इस प्रकार मे जाकर उससे मिलो, नहीं तो आप जानों । पानी में रहकर मगरसे वर भार. काम नहीं चले।" ___ जा पहुपालको कूल के बचनोंसे कोन आया, और वे बोने"इस दुष्टका मस्तक उतार लो, जो इस प्रकार अत्रिनय कर रहा हैं।" तब नौकरोंने आकर दूतको तुरंत ही पकड़ लिया और राजाको आज्ञानुसार दंड देना चाहा. परंतु मंत्रियोंने कहा- 'महाराज ! दूतको मारना अनुचित है, क्योंकि वह बेचारा कुछ अपनी ओरसे तो कहता ही नहीं है। इसके स्वामी ने कहा होगा. पेसा हो तो कह रहा है, इसमें इसान कुछ अपराध नहीं है, इसलिये इसे गुपबा देना ही योग्य है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रोपाल चरित्र और हे महाराज ! यह राजा बहुत ही प्रबल मालूम पडता है, इसलिये युद्ध करने में कशलता नहीं दीखती हैं, किन्तु किसो प्रकार उससे मिल लेना ही उचित हैं। तब राजाने मंत्रियोंक, “लाहके अनुसार दूतको छुडवाकर कहा कि तुम अपने स्त्रामोसे कह दो कि मैं आपको आज्ञा मानने को तत्पर है । यह सुनकर दुत हर्षित होकर पीछे श्रीपालके पास गया, और यथावत् वात कह दी कि राजा पहपान आपसे आपकी आज्ञानुमार मिलने को तैयार हैं । ___तब श्रीपाल ने मोना मुन्दसे कहा-प्रिये, राजा तुम्हारे हे अनुसार बिल के तौर : ॐनस अभयदान देना हो योग्य हैं। मैनासुन्दरी ने कहा 'आपकी इच्छा हो सो कीजिये ।' तब श्रीयाल ने पुनः दूतको बुलाकर राजा पहुपाल के पास यह संदेशा भेजा कि पिता न करे और अपने दल बल सहित जैसा राजाका पवार है उसी प्रकार से आकर मिन । सो दुतने जाकर पढ़पालका यह संदेशा सुनाया । सुनकर राजाको बहुत हर्ष हुआ औः दूत को बहु-सा पारितोषिक देकर विदा किया । तथा आर का निशान, हय, गव, रथ, वाहनादि सहित बड़ी धूमधामसे मिलनेको चला । जब पाम पहुं वा तब राजा पहूपाल हाथीसे उतरकर पांच प्यादे हो गया। यहां श्रीपालजो भी श्वसुरको पांच प्यादे आते देखकर आप भी पांव प्यादे चलकर सन्मुख गये, और दोनों परस्पर कंठसे कंठ लगाकर मिले । दोनोंको बहुत आनंद हुआ। राजा पहपालके मनमें एकदम कुछ अनोखे भाव उत्पन्न हुए, इसलिए वह श्रीपालके मुहकी ओर देखकर बोले Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका पहुपालसे मिलाए । १५५ 'हे राजराजेश्वर ! आपको देखकर मुझे बहुत मोह उत्पन्न होता है, परंतु मैं अबतक आपको पहिचान नहीं सका हूं कि आप कौन हैं ?' तब श्रीपाल हंसकर बोले- महाराज ! मे आपका लघु जंवाई श्रीपाल ही तो हूं, जो मैनासुन्दरी से वारह् वर्णका वायदा करके विदेश गया था, सो आपके प्रसादसे आज पीछे आया हूँ।' यह सुनकर राजाने फिरसे श्रीपालजोको गले लगा लिया, और परस्पर कुशल क्षेम पूछकर हर्षित हुये । नगर में आनंद मेरो बजने लगी। फिर राजा अपनी पुत्रीके पास गया, और क्षमा मांगने लगा - "हे पुत्री तू क्षमा कर । मैने तेरा बड़ा अपराध किया | तू सच्ची धर्मधुरंधर शीलवती सती हैं । तेरा बडाई कहां तक करू ?" मेनासुन्दरीने नम्र होकर पिताको सिर झुकाया । पश्चात् राजा रयनमंजूषादि सब रानियोंसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ, और सर्व संघको लेकर नगर में लौट आया । नगरकी शोभा कराई गई । घर मंगल वधावे होने लगे । राजाने श्रीपालका अभिषेक कराया और सब रानियों समेत वस्त्राभूषण पहिराये। इसप्रकार श्वसुर जंबाई मिलकर सुखपूर्वक काल व्यतीत करने लगे । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीपाल चरित्र । श्रोपालका चंपापुर जाना इस प्रकार सुखपूर्वक रहते हुए श्रीपालका बहुत समप बोत मया। एक दिन बैठे२ उनके मनमें वही विचार उत्पन्न हो गया, कि जिस कारण हम विदेश निकले थे. वह अभी पूर्ण नहीं हो पाया हैं । अर्थात् पिनाके कुलको प्रख्याति तो नहीं हूई और मैं वहीं राज-जवाई हा बना हुआ हूँ इसलिए अब अपने देश में च नकर अपना राज्य प्राप्त करना चाहिये । यह सोचकर श्रीपाल जो राजा पहलके निकट मये, और देश जानेको आज्ञा मांगो। तब राजाको 'भो उनको इच्छा-प्रमाण आज्ञा देनी पडी। श्रोपाल भौनासुन्दरी आदि आठ हजार रानिकों और बहुत संन्या सहित उज्जनमे विदा हुए । राजा पहुराल आदि बहुत से रजा 'भा उसको पहुवानेको आये, और सबने शक्ति प्रमाण बहुमूल्य बस्तुये भेंट को ।। बहुत भूप इकठे भये, : दियो भट बहु माल । कोलाहल होवत भयो, चलों राव श्रीपाल | श्रीपाल चलो मेरू हलो, जागो वासक शेष । गजघण्टा गाजहिं प्रबल, भाजहिं अरि तज देश ॥२॥ वाजे निशान अरू संन्य सब, गिनो कौनसे जाय । कलमले दश दिगपाल हो, कंपे थर हर राय ||३|| धूल उड़ी आकाशमें. लोप भयो है मान । खलबल हुई भुवि लोकमें, शब्द सुनिय नहिं कान ||४|| अन्धकार प्रगटयो तहां, जुरी सेन गंभोर । बोर कहा वाहू दिशा, छूट गयो तृण नीर ॥५॥ सांपत गिरि खाई नदो, बन थल नगर अपार । यश कर बहु नृप आइयो, चम्पापुरी मंझार ॥६॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका चंपापुर जाता ! १५७ . --- -. -..-=-==rxmmmm...श्रीपालजी इस प्रकार बड़ी विभति सहित स्वदेश घारके उद्यान में आये, और नगरके चहुं ओर डेरे डलवा दिए । मो नगर निवासी इस अपार सेन्यको देखकर हक्का-बक्कासे भुल गये, और सोचने लगे कि अचानक ही हम लोगोंका काल कहांसे उपस्थित हुआ है ? पश्चात् श्रीपाल सोचने लगे, कि इसी समय नगर में चलना चाहिये । ठाक है-बहुत दिनोंने बिछुरी हुई प्यारो प्रजाको देखने के लिए ऐसा कौन निष्ठर राजा होगा, जो अधीर न हो जाय ? सभी हो जाते हैं। तब मंत्रियों ने कहा- स्वामी ! यकायक नगर में जाना ठोक महीं है । पहिले सन्देशा भेजिये, और यदि इस पर कोदमन सरल मनसे ही आपको आकर मिले तो ही इस प्रकार चलना ठोक है अन्यथा युद्ध करना अनिवार्य होगा। क्योंकि राज्य हाथमें भा जाने पर कचित् पुरुष ही ऐसा होगा, जो चुपकेसे पीछा सौप दे। इसलिए यदि उन्हें कुछ शल्य होगी तो भी प्रकट हो जायगी।" श्रीपालको यह मंत्र अच्छा लगा, और तुरन्त दूतको बुलाकर सब बात समझाकर राय वीरदमनके पास भेजा। वह दूत शोन ही राजा वीरदमनको सभामें पहुंचा, और नमस्कार कर कहने लगा 'हे महाराज ! आज राजा श्रीपाल बहुत परिग्रह और विभव सहित आ पहुंचे हैं। सो आप चलकर शीघ्र हो उनसे मिलों। और उनका राज्य पीछा उनको सौंप दो।' यह सुनकर वीरदमन पहिले तो प्रसन्न हुआ, और श्रीपालजीकी कुशल पूछने लगा। जब बूतने सब वृत्तांत-घरसे निकलने, विदेश जाने, बाळ इजार रानियों के साथ विवाह करने और बहुत सें Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --३५८ ] श्रीपाल चरित्र । राजाओंके वश करने आदिका कुछ समाचार कह सुनाया तम बीरदमन वोला__ 'रे दूत ! द मानता हैं, कि " राय और स्त्री भो कोई किसोको मांगने से देता है ? ये घोजे तो बाहुबलसे ही प्राप्त की जाती हैं । मिस राज्यके लिए पुत्र पिताको, भाई 'भाईको, मित्र मित्रको मार डालते हैं, क्या वह राज्य विना रण में शस्त्रप्रहार किए यों ही सहज शिक्षा मांगने ले मिल सकता है ? क्या तूने नहीं सुना कि भरत चक्रवर्तीने राज्य ही के लिये तो अपने भाई वाहअलि पर चक्र चलाया था । 'विभीषणने गवण को मरवाया था. कौरवों और पांडवों में महामारत हुआ था. सो राज्य क्या, मैं यों ही दे सकता हूं? - नहों, काति महीं । यदि श्रीपालमें बल है ना रण मैदानमें आकर ले लेवे ?' यह सून कर वह दून फिर विनय सहित बोला हे राजन् ! ऐसी हट करने से कुछ लाभ नहीं है। श्रीपाल बडा पुरुषार्थी वीर कोटीभट्ट और बहुत राजाओंका मुकुटमणि महामंडलेश्वर राजा है । उसके साथ बडे२ राजा हैं, अपार दलबल है, आपको उससे मिलने ही में कुशल हैं। यदि बार उससे मिलेगे तो वह न्यायी है, आपको पिताके तुल्य हो मानेगा, अन्यथा आप बड़ी हानि उठायगे।' दूनके ऐसे बचनों से • बीरदमनको क्रोध आ गया। वे लालर आंखें दिखाकर बोले रे अधम ! तुझे लज्जा नहीं। मेरे सामने हो विदाई करता जा रहा है। तू अभो मेरे बलको नहीं जानता है। मेरे सामने इन्द्र, चन्द्र नरेन्द्र, खगेन्द्र आदिको भो कुछ सामथ्र्य नहीं है। फिर श्रोपाल तो मेरे आगे लडका ही है। उससे युद्ध हो क्या करना है ? बात की बात में उसका मान हरण करूगा । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीपालका चंपापुर जाना। तब दूत फिर बोला-'हे राजन् ! आप अपने मनका यह गिथ्याभिमान कोहली भीमाल रा का राजा है। मही. मंडलपर जितने बडे२ राजा हैं कि जिनके यहां आपके सरीखे दासत्व करते हैं उन सबने उनकी सेवा स्वोकार कर ली है। '. फिर तुम्हारी गिनती क्या है ? बनमें बहुत जानवर होते है, परंतु एक हाथी की चिंघाडमे वे कोई नहीं ठहर सकते और बसे हजारों हाथी भी एक सिंहको गजनासे दिशा विदिशाओंको माग जाते हैं। हजारों सांपोंके लिए एक गरुड़ ही बस है। इसी प्रकार तुम जैसे करो हो मजा आ जाब तो भी उस भुजबलीके एक ही प्रहार मात्रमें टिगर्व होकर शस्त्र छोड़ देंगे, अर्थात बह • एक ही बार में इसका संहार करनेको सभी हैं। तब क्रोधकर बो र दमन बोले- अरे धोठ ! तू मेरे सामनेने हल जा । मैं तुझे क्या मारू ? क्योंकि राजनीतिका यह धर्म नहीं है जो दूतका मा । जान । तुझे मारने से मेरो शोभा नहीं है । तू मेरे हो मामने निन्दा और श्रीपालकी बडाई करता है । क्या मैं 'उगे नहीं जानता हूं वह मेग ही लड़का तो है । मैंमें जम गोद में खिलाया हैं और कोही होकर वह जब घर में निकाला था, तब रोता हा गया था। सो अब कहाँका ब वान हो गया ? और उसके पास इतनी स . से आई, जो मुझसे लगने का साहस करता है ? जा जा, देख लिय' ने उसका बल ! उमरे कह दे कि, क्यों अपनी हंसी का है ? तत्र वह दुत फिर बोला देखो राजाजो ! अभिमान मा करो। भरतने अभिमान किया सो चक्रवर्ती होकर भो बाहुबलिसे अपमानित हुये । रावण ने मान किया, तो लक्ष्मणसे माग गया । दुर्योधनका मान भीमने मदन किया । जरासिंध को श्रीकृष्मने मारा, इत्यादि ब२ पुरुषोंका भी मान नहीं रहा तो तुम्हारी गिनतो ही क्या हैं ? इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि जो अपना भला चाहो तो Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोपाल चरित्र । श्रीपालको सेवा करो। क्योंकि यदि वह एक ही बीरको आज्ञा कर देगा तो वही वीर तुम का क्षण भर में संहार कर डालेगा।' तब दूत के ऐगे वचन सुनकर वो रदमन बोले-'इस दृष्ट को खाल निकलवाकर भूना भरा, अर्थात मार डालो। यह मेरे ही सामने बार मेरा निंदा करता हैं, और मन में तनिक भो शशका नहीं करता ।' तब मंत्री बोले-'महाराज दूतोपर क्रोध नहीं करना चाहिए इनका स्वभाव ही यह है। ये तो अपने स्वामोके रे ये निडर होकर कठिन से कठिन शब्द . बोलते हैं । इनको कोई नहीं मारता है। इनका साहस अपार होता है कि पर चक्र में जाकर भो निःशंक हो स्वामी के कार्य में दत्तचित्त होते हैं ये लोग अपने स्वामी के काय आगे राज भवको भी तुच्छ गिनते है । ये लोग ऐसे शूरवोर होते हैं कि दुसरेवी ममामें जहां इनका कोई सहायक नहीं है. वहां पर भी अपने स्वामोकः कोनि और परचक्रको निंदा करते हैं। . इनके मन में मदा अपने स्वामो का हित हो विद्यमान रहता है । इसलिये महार] ! इ को ऐ।। नाम देना चाहिये, . कि जिपका बखान अपने स्वामी तक करता जाय, क्योंकि जिनके कुल परम्पराम राज्य चला आ रहा हैं, वे दर्ताको । बहुत सुख देते हैं इसलिए आप भो यशक भागी होओ। यदि दूत की आप मारोगे तो अपवाद होगा, क्योंकि इन्हें कोई कभी नहीं मारता, ये चाहे जो कुछ क्यों न कहे । ये . बेचारे स्वामी बलसे गजते हैं।' तब धो रदमनने दूतका सम्मान कर उसे बहुतसा द्रव्य दिया और कहा कि तुम थापालसे जाकर कह दो, कि युद्ध में जिसकी विजय होगी वही राज्य करेगा । तब दूत नमस्कार कर वहांसे गया और जाकर भोपालसे सब वृत्तांत कह लिया कि वीरदमनने कहा है कि 'संग्राममें आकर जुटो और बल हो तो राज्य ले लो।' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका वीरदमनसे युद्ध । श्रीपालका काका वारदमनसे युद्ध श्रीपालजीको दूतमे पह समाचार सुनते ही कोध उत्तम हो उठा । ये होठ डंसते हुए बोले- क्या वोर दमनको इतना साहस हो गया है, जो मेरे राज्यपर, मेरे द्वारा दिए हुये राज्यपर, इतना गर्जता है, और मुझे मेरा ही राज्य पीछा देनेके बदले युद्ध करना चाहता हैं ? अच्छा ठीक है, अभी मैं: इसके मानको मदन कर अपना राज्य छुड़ाता हूँ। यह सोचकर उसने तुरन्त ही सनापतिको आज्ञा दी कि सैन्य तयार करो। यहां आज्ञाकी देरी धी कि सौन्य तयार हो गया। सब बडे२ सामन्त बख्त र पहिरकर कठोर हथियार बांधकर वाहनोंपर चढ़ चले। हाथी, घोडे, प्यादे रथ इत्यादिके समह यथानियम दिखाई देने लगे । शूरोंके चेहरे सूर्य के समान चमकने लगे। घोडोंकी हींस हाथियों की चिंघार: झुलोंकी झनकार, रयोंकी गडगडाहटसे आकाश गूजने लगा। धूल उड़कर बादलोंको शंका उत्पन्न करने लगी। बाजोंक मारे मेघगर्जना भी सुनाई नहीं देती थी। इस तरह चतुरङ्ग दल सजकर तैयार हुए, और नगर बाहर रंगभूमिमें आकर जम गये। एक ओर श्रीपालकी सेना और दूसरी ओर काका वीरदमनकी सेना लग रही थी। दोनों परस्पर दाव घात विचारते थे। दोनों ओर बहुत दूर तक: सिवाय मनुष्यों, घोडा, हाथी, रथ आदिके कुछ नहीं दिखाई देता था। शूरवीर रणधीर पुरुष अपने२ कुटुम्बी तथा स्त्रियोंसे क्षमा मांग२ कर और उन्हें धर्य दे देकर चले जा' रहे थे । उनकी स्त्रियां भी उनसे कहती थी-- __ 'हे स्वामिन् ! यद्यपि जी तो नहीं चाहता कि आपको Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन श्रीपाल चरित्र। 'छोड़े परन्तु नीति और धर्म कहता है कि नहीं, इस सपय चोकना पाप है। इससे स्कामोद्रोह समझा जपता है । वर्षोसे जिनका नमक खा रहे हैं, आज समय आने पर अवश्य ही साथ देना चाहिये । स२. २ का कुरा न . पण वीर पुरुषों का नाम पृथ्वीवर अमर रहता है । ___ भाप जाओ, और तन, मनसे स्वामीका साथ दो । घरको चिन्ता न करना। हम लोगों का कर्म हमारे साथ है । आप कृतकाय होने की चेष्टा करना, युद्ध में हारकर पीठ दिखाकर च पोठपर घाव खाकर पीछे घर मत आना । पोठ दिम्बाकर मुझं मुह न दिखाना । कायर की स्त्री कहलाने के बदले मुझे विधवा कहलाना अच्छा हैं । शूरवोरोंकी स्त्रियां विधया होने अर्थात् युद्ध में उनका पति मर जानेपर भी वे विधवा होती है, क्योंकि उनके पतियों का नाम सदेव जीता है। जाओ और जय प्राप्त करो। अपने घराने में स्थानोंने भी ऐसे ही नाम कमाया हैं। शरीर, स्त्री, पुत्रादि कोई काम नहीं देने । संसारमें फायरका जोना मरनेसे भी खराब हैं, क्योंकि एकदिन तो मरना है ही क्योंकि यह विनाशीक शरीर कोटि यत्न करने पर भी स्थिर नहीं रहेगा । तब बदनाम होकर बहुत जीनेते नै कमामी के साथ शीघ्र ही मरजानेमें हानि नहीं है । अपधात नहीं करना चाहिये, और जीते जी कायर भी नहीं होना चाहिये । आज हर्ष है कि आप युद्ध में जा रहे हैं । आप कृतकार्य होंगे और मैं भी अपने आपको वीर पुरुषों की पहली कहलानेका सौभाग्य प्राप्त करूगो।' शूरवीर शूर स्त्रियां इस तरह सिखायन देती थीं कि कायरोंकी कापर स्त्रियों कातो थीं-'स्वामीन ! देखो, मैं कहती थी कि इस प्रकारको नौकरी मत करो, यह मौतकी निशानी है । न मालुम कब अचानक आ वीतेगी। मेरा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालको वीरदमनसे युद्ध। १३ । "कहना न माना, उसीका फल है । तुम तो चले. अब मैं क्या करूगी ? बालबच्चोंकी रक्षा कैसे होगी ? मेरी यह तरुण अवस्था कैसे कटेगी? देखो, अभी कुछ नहीं गया है। चलो, मौका पाकर भाग चलें । वहीं जंगल में रहकर दिन बिताबेंगे। यह राज्य न सहो अन्य सही। व्यर्थ क्यों मरते हो? और हम लोगोंको हत्या शिर लेते हो । मैं तो नहीं जाने दूंगी फिर तुमको कसम है जो जाओ ! मैं तुम्हारे जाते ही मर जाऊंगी। फिर तुम लौटे भो तो किससे मिलोगे? कहांका राजा, कहांकी प्रजा ? अपना जी सुखी तो जहान सुखो।' वा नकार स्तिका सही अपने पतिको समझाने लगी। यह सुनकर काय रके दिल धड़कने लगे और शूरवीरोंके 'दिल फूलने लगे, इत्यादि । इधर दोनों ओरसे रणभेरी बजा दी गई। रणके बाजे बजने लगे, जिसको सुनकर शूरवार पतंगके समान उछलर कर प्राण समर्पण करने लगे। हायोबाले हाथीवालोंसे, घोडेवाले घोड़े वालोसे, रथ रथसे, प्यादे ध्यादोंसे इस तरह दोनों दल परस्पर भूखे सिंह के समान एक दूसरे पर टूट पड़े। तलवारोंको खनखनाहट और चमक-दमकसे बिजली मी शर्मा -जातो थी। मेघोंको शर्माने के लिए तोपोंके मोले गडगडाते हुए सूर्यको आच्छादित कर देते थे । वोरोंके शिर कट जाने पर भी कुछ समय तक हाई मार२ करता रहा था। लोहू का नदी बहने लगो, जहाँ२ ण्ड मुण्ड दिखाई देने लगे जिसे देखकर वोरोंका जोश बढ़ने लगा और कायरोंके छक्के छूटने लगे । ___ इस तरह दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ, परन्तु दोनोंमें से कोई एक भी पीछे नहीं हटता था। जब दोनों ओरके मंत्रियोंने देखा, कि इन दोनों में से कोई भी नहीं हटता, दोनों यक्ष बलवान और दोनों भुजवली है, तब यदि ये दोनों परस्पर Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .--- - १६४] श्रीपाल चरित्र । ही युद्ध करें, तो ठोक है, दोनों ओरकी सेना व्यर्थ कटे । यह विचारकर मंत्रियों ने अपनेर स्वामियोंसे कहा कि आप राजा ही युद्ध करें. व्यर्श सैन्य कटने में कुछ लाभ नहीं हैं । सो यह विचार दोनों को पसंद आया और दोनों अपनी सेनाओंको रेवाकर रस्पर हो : शुद्ध कार मिमिका का और भतीजा रणक्षेत्रमें आ इटे। बीरदमन बोले - 'आओ बेटे ! हा तुम परपर हो लड ल। सौन्यका व्यर्थ संहार क्यों किया जाय ?' तब श्रीपालजी हषित होकर बोले-व हुन टोक काकाजी ! परन्तु अब भी मैं तुम्हें समझाकर कहता हूँ, कि दूसरेका राज्य छोड़ दो, इसों में तुम्हारी मनाई है । क्योंकि मैं तुमको हमेशासे पिताके समान जानता रहा है। मो क्या मैं अपने हो हायसे तुम्हें मारू ? यह सुनकर बी र दमन क्रोधकर बोले-'अरे श्रीपाल ! तु अभी लडका है, तुझं युद्धका व्यावहार, मालूम नहीं है। जब रणक्षेत्रमें आ ही गये, तो किसका पिता और किसका पुत्र ? किसका भाई और किसका मित्र? यहां डरनेसे च सम्बन्ध बताकर कायरोसे काम नहीं चलता । इसोसे मैंने पहिले हो तुझे समझाया था, परन्तु तू न माना और लडकपन किया । सो अब क्या मेरे हाथसे तू बचकर जा सकेगा?' कभी नहीं, कभी नहीं तव कोटीभटको 'मी क्रोध आ गया । वे बोले___'रे वीरदमन ! तेरे बराबर अज्ञानी कोई नहीं है, जो पराये रामपर गर्ज रहा है । देखो कहा है कि जो परस्त्रीसे प्रोति करता है, जो मुहसे गाली निकालता है, जो पराधीन भोजन करता हैं, जो ज्ञात रहित तप करता है, जो पराये धनपर सुख भोगता है, सांपसे मित्रता करता है जो स्त्रीपर भरोसा रखता है, जो अपने मनकी बात सबसे कहता हैं, जो धनी होकर पराधीन रहता हैं, जो विना द्रव्य दानी बनता है, जो वेश्यासे Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका वीरदमनसे युद्ध । ।१६५ प्रीति करता है, जो किसी न किसी दिन बहुत धोखा खाता है, जो कुशोल होकर सेवन करता है, जो भंग पीकर बुद्धिमान बनता है, जो पतित होकर योही ठौर२ वादविवाद करता है, जो हंस मानसरोवर छोड़ देता है, जो वेश्या लज्जावती बन जाती है, जो जूवामें सच बोलता है, जो दुसरेकी संपत्तिपर ललचाता है, उससे अधिक मूख संसारमें कौन है ?' ___ बोरदमनको उक्त नोति सुनकर लज्जा तो अवश्य हुई, परंतु वह उस समय लाचार था, बीर पुरुष युद्ध में नहीं हटते इसलिए उसने धनुष उठा लिया। और ललकार कर बोला_ 'बस रहने दे तेरो चतुराई। अब कायरोके बातें बनानेका समय नहीं है। दि कुछ पाहुना है तो सानो भा।' तब तो श्रीपालसे नहीं रहा गया वे कान के पास धनुष खींचकर सन्मुख हो गये । सो जैसे अर्जुन और कर्ण, रावण और लक्ष्मण, तथा भरत और बाहुबलीका परस्पर युद्ध हुआ था, वैसा ही होने लगा। जब सामान्य हथियारोंसे बहुत युद्ध हुआ और कोई किसोको न हरा सका, तब शस्त्र छोड़कर मल्लयुद्ध करने लगे, सो बहुत समय तक योहो लिपटते तो रहे, परन्तु जब बहुत देर हो गई, तब श्रीपालने वीरदमनको दोनों पांव पकड़के उठा लिया और चाहा कि पृथ्वीपर दे मारे परन्तु दया आ गई, इसलिये धोरेसे पृथ्वोपर लिटा दिया । सब ओरसे 'जय जग' शब्द होने लगे 1 वोरोंने श्रोपालके गले में जयमाल पहिनाई और बोले राजन् ! तुम दयालु हो। एश्चात् जब श्रीपालने बीरदमनको छोड़ दिया तब वीर दमन बोले -- 'हे पुत्र ! यह ले, अपना राज्य सम्हाल । मैंने तेरा बल देखा। तू यथार्थमें महाबली है । हमारे इस वंशमें तेरे जैसे शुरवीर ही होने चाहिये।' Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल धरित्र । तब श्रोपाल बोले-'हे तात ! यह सब आपका ही प्रसाद है । आपकी आज्ञा हो सो करू ।' यह सुनकर तोरदमन बोले- लोक है, अब मेमन विचार है कि तु राज्यभार ले और मैं जिन दीक्षा लू जिससे याह भगवास मिटे ।' पश्चात आनंद भेरी बजने लगो। सबका भय दूर हुआ। जहां तहां मंगल गान होने लगे । बीरदमनने थोपालको राज्याभिषेक कराकर पुनः राज्यपद दिया और बोले हे वीरवर | अब तुम सुखसे चिरकालतक राज्य करो। और नोति न्यायपूर्वक पुत्रवतू प्रजाका पालन करो। दुःखी दरिद्रों पर दयाभाव रखों और मेरे उपर क्षमा करो। जो कुछ भी मुझसे तुम्हारे विरुद्ध हुआ हैं सो सब भूल जाओ। अब मैं जिनदीक्षारुपी नावमें बैठकर भवसागरको तिरूगा। इस तरह वोरदमन अपने भतीजे श्रीपालको राज्य देकर भाप वन में गये और वस्त्राभूषण उतारकर निज हस्तोंसे केशोंका लोंच किया। रागद्वेषादि चौदह अंतरंग और क्षेत्र, वास्तु आदि दश बाह्य ऐसे सब चौबीस प्रकार के परिग्रहको त्याग कर पंच महावत धारण किये, और घोर तपश्चरण द्वारा चार घातिया कर्मोंका नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त किया, और बहुत जीवोंको धर्मोपदेश देकर उन्हें संसारसे पार किया। पश्चात् शेष अघातियां कर्मोको भी आयुके अन्त समय निःशेष कर परमधाम-मोक्षको प्राप्त किया। धर्म बडो संसारमें, धर्म करो नरनार । धर्म योग श्रीपालजी, पाई लच्छ अपार ॥१॥ वीरदमन मुक्ति हिं गये, धर्म धारकर सार । आठ सहस रानीनकी, मैना भई पटनार ॥२॥ धर्मयोग जिय-सुख लहे, योग योग शिवसास। 'दीपचन्द' नित संग्रहो, धर्म पदारथ सार ||३|| Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका राज्य करना । श्रीपालका राज्य करना अशुभ कर्म भयो दूर सब शुभ प्रगटयो भरभू । राज्य करे विलसे विभव, श्रीपाल बलर ॥ कोनों यश भुवि लोक में, दुर्जनके उरु साल । सकल जीव रक्षा करी, महाराज श्रीपाल ॥ १६७ इस प्रकार राजा श्रीपाल आठ हजार रानियों सहित इन्द्रके समान सुखपूर्वक करल व्यतीत करने लगे । देश देश में इनकी प्रख्याति वह गई। अनेक देशों के बडेर राजा इनके आज्ञाकारी हो गये। जो राजा लोग अनेक द्वीपों और देशोंसे साथ पहुँचाने आये थे, सो सबको यथायोग्य सन्मानपूर्वक दिया और प्रजाका प्रीतिसे पुत्रवत् पालन करने लगे । नित्यप्रति चार प्रकार के संघको चारों प्रकारके दान भक्तिभाव से देने लगे । दुःखित तो कोई नगर में वुभुक्षित हो क्या राज्यभर में कठिनतासे मिलता था । इत्यादि राज्यवैभव सब कुछ था और इनको किसी जातकी कमी नहीं थी, तो भी ये सब सुखके मूल जिनधर्मको नहीं भूलते थे । नित्य नियमानुसार वर्धमान रूपसे पट् आवश्यकों, देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दानमें यथेष्ट प्रवृत्ति करते थे । . इस तरह राज्य करते हुए श्रीपालका मुख से समय जाता था। कितने दिनों बाद मैतासुन्दरीको गर्भ रहा, उसे अनेस प्रकार के शुभ दोहले उत्पन्न हुए और थोपालने उन सबको पूर्ण किये। इस तरह जब दश महिने हो गये, तब शुभ घड़ी मुहूर्तमें चन्द्रमाके समान उज्जवल कांतिका धारी पुत्र हुआ । पुत्रजन्मसे सर्व कुटुम्ब व प्रजाको अत्यानंद हुआ, और पुत्रजन्मोत्सव में बहुत द्रव्य खर्च किया गया। याचक जननिहाल कर दिये गये । पश्चात् ज्योतिषोको बुलाकर गृहादिक व्योरा पूछा, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६८ ] श्रीपाल चरित्र । तो उसने बहुत सराहना करके कहा कि यह पुत्र उत्तम लक्षणोंवाला है, इसका नाम धनपाल है । इस तरह दूसरा महीपाल तोसरा देवरथ, और चौथा महारथ में चार पुत्र मैनासुन्दरीके और हुए। रयनमंजूषाके सात पुत्र हुए, गुणमालाके पांच पुत्र हुए, और सब स्त्रियोंसे किसीके एक, किसीके दो | इस प्रकार महाबली, धोरवीर गुणवान् कुल बारह हजार पुत्र हुए। वे नित्यप्रति दोषजके चन्द्र समान बढ़ने लगे । अहा ! देखो, धर्मका प्रभाव ! इससे क्या नहीं हो सकता ! धोपालजी धर्म के प्रमादसे सुखपूर्वक काल व्यतीत करते थे । 'एक दिन श्रीपालजी सिंहासनपर बैठे थे, पास ही बांई ओर मैनासुन्दरी भी बैठी थी, बन्बोजन विरद खान कर रहे 'थे, सेवकजन चमर ढोर रहे थे, नृत्याकारिणो नृत्य कर रही यो गीत वादिय बज रहे थे, विनोद हो रहा था, कविजन पुराण पढ़ रहे थे, चारों ओर कुकुम, चंदन, कस्तूरो, कपूर आदि पदार्थों की सुगंधा फैल रही थी, अबीर गुलाल उड़ रहा था । ताम्बूल, सुपारी, इलायची, जावित्री, लोंग आदि मंट रहे थे। कहीं आम, जाम, सीताफल, नारियल, केला आदि फल और किसमिस, द्राक्ष, छुआरा, चिरोंजी, काजू, पिस्ता, अखरोट, अंगुर आदि सब बंट रहे थे। इस प्रकार राजा क्रीड़ा कर रहा था कि वनमाली आया, और वह नमस्कार कर छह ऋतुके फलफूल राजाको भेंट करके नम्र हो बोला ― 'हे स्वामिन् ! इस नगर के वनमें समीप हो श्री १००८ केवली मुनिराजका आगमन हुआ है ! जिनके ऋतुओं के फलफूल साथ ही फूले मोर फल सूखे सरोवर भर गये हैं। जाति-विरोधी जीव प्रभाव से सब आ गये हैं । परस्पर वैर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका राज्य करना । ' छोडकर विचर रहे है। गायका बच्चा सिंहनीके स्तनसे लग · जाता हैं । सांप नेवलाको खिमाता है 1 चहा बिल्लीसे क्रीड़ा करता है । चहुँ ओर शिकारियोंको शिकार भी नहीं मिलता हैं । हे नाथ ! ऐसा अतिशय हो रहा हैं।' यह सुनकर श्रीपालजी सिंहासनसे उतरे, मोर वहींसे प्रथम हो सात पद चलकर परोक्ष रीतिसे नमस्कार किया और वस्त्राभूषण जो पहिरे थे सो सब उतारकर बनमालोको दे दिए तथा और भी बहुत इनाम उसको दिया । पश्चात् नगर में आनन्दभरी वजवा दी, कि सब लोग' महामुनि वंदनाको चलें । नगरके बाहर बन में श्री महामुनि आये हैं । पश्चात् अपना चतुरंग संन्य सजाकर वे बड़े उत्साहसे प्रफुल्लित चित्त हो रनवास और स्थजन पुरजनोंको साथ लेकर बन्दनाको चले । कुछ ही समय में उद्यान में पहुँचे, जहांकी शोभा देखकर मन आनन्दित होता था । मंद सुगंधि पवन चल रही था, मानों बसन्त ऋतु ही हो।। ___ जब निकट पहुंचे तो श्रीपालजी वाहनसे उतरकर यहाँ यहां देखने लगे, तो कुछ ही दूर मन्मुख अशोक वृक्षके नीचे सब दुःखको नाश करनेवाले महामुनिराज विराजमान थे, सो देखते ही श्रोपालो हर्षको सोमा न रही। वे श्रीगुरुको नमस्कार फर तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुति करने लगेधन्य धन्य तुम थोमुनिराज, भव जल तारन तरन जहाज | एक परम पद जाने सोय, चेतन गुण अराधे जोय ॥ राग द्वेष नहिं जाके चित्त, समता केवल पाले नित्त । तोन गुप्ति पालन परमस्थ, रत्नत्रय धारण समरत्य ॥ तीन शल्य मेंटन शिवकत, ज्ञान धरण गुण वल्लभ संत । • भवजल तारपा तरण जहाज, पंच महावत धर मुनिराज ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल गरिन । मकरध्वन खंडो घर , छही प्रम भाषण सुण राव । आठ कर्म मामा मद हन. माठ सिख गुण धारण धर्म ।। पुरण ब्रह्मचर्य प्रसिपाल, दश लक्षण गुण घरन दयाल । द्वादातर धारो जिस नाहि, द्वादशांग भाषण जो आहि ।। लेग विधि चारिष प्रमाण, पाले जो प्रल धरन सुजान । सहें परोषह बाईस सोय, इनके शत्रु मित्र सम होय ।। कहां तक कहूं आप गुण माल, द्वय कर जोड नमैं श्रीपाल । इस तरह सब पुरजन और रनवास सहित श्रीपाल स्तुति करके श्रीगुरुके चरणकमल के समीप हर्षित होकर बैठे । और भी सब लोग यथायोग्य स्थानपर बैठे। पश्चात् राजा बोलेस्वामिन् ! कृपा कर मुझे ससारसे पार उतारनेवाले धर्मका उपदेश दीजिये ।' ____तब श्रीगुरु बोले-हे राजन् ! तुमने यह अच्छा प्रश्न किया। अब ध्यानसे सुनो। वस्तुका जो स्वभाव है, वही धर्म है। सो इस आत्मा का स्वभाव शुद्ध चतन्य अर्थात् अनंतदर्शन, ज्ञानस्परूप है और अमूर्तिक हैं, परन्तु यह अनादि कर्मबन्धके कारण से चतुति रूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ पर्यायबद्धि हो रहा है। इसालये इसको परपदार्थोमे भित्र अनतदर्शन, ज्ञानमयी, सच्चिदानंदस्वरूप, एक अविनाशो, अबण्ड, अक्षय, अन्याबाध, निरन्जन, स्वयं बुद्ध, परमात्म स्वरूप, . समयसार निश्चय करना, सो तो सभ्यग्दर्शन है। और न्यूनाधिकता तथा संशय विपर्यय और अनध्यवसायादि दोषोंसे रहित जो वस्तुको सूक्ष्म भेदों सहित जानना सो सम्यक्ज्ञान है, और स्वस्वरूपमें लीन हो जाना सो सम्यक्चारित्र है। इस तरह निश्चयरूपमे तो धर्मका स्वरूप यह है 1 सो व्यवहार बिना निश्चय होता नहीं। क्योंकि व्यवहार धर्म Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीपाका मारा। निश्चय धर्मका कारण है। इसलिए व्यबहारसे सप्त तत्वोंका श्रद्धान सो दर्शन, अथवा इनका जो कारण सत्यार्थ देव, गुरु और शास्त्रका श्रद्धान् सो सम्यग्दर्शन है, और पदार्थीको यथार्थ जानना सो ज्ञान है, और इनकी प्राप्तिके उपायमें तत्पर होना, सो सम्यक्चारित्र है । सो चारित्र दो प्रकार है-राबंथा त्यागरूप (मुनिका), और एकदेश त्यागसे गृहस्थका) पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरूप मुनिका पचायत तथा सप्त शीलरूप श्रावकका होता है ।। नावककी ग्यारह प्रतिमाएं है जिनमें शक्ति अनुसार उत्तरोत्तर कषायोंकी मंदतासे जसे २ त्यागभाव बढ़ता जाता है जैसी ही उपर उपरको प्रतिमाओंका पालन होता माता हैं और मुनिका व्रत बाह्य तो एक ही प्रकार है, परन्तु गुणों तथा गुणस्थानोंकी परिपाटोसे अन्तरङ्ग मावोंकी अपेक्षा अनेक प्रकार है । इस प्रकार सम्यक्त्व सहित व्रत पालं, और आयुके अन्त में दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चार आराधनाओंपूर्णक सल्लेखना मरण करें।' इस प्रकार संक्षिप्तसे धर्मोपदेश दिया जिसको सुनकर राजाको परम आनंद हुआ । पश्चात् श्रीपालजीने विनयपूर्णक पूछा-'हे परम दयालु ज्ञान सूर्य प्रभो ! कृपाकर मेरे भवान्तर कहिये, कि किस कर्मक उदयसे में कोढी हुआ ? किस पुण्यकर्मके उदयसे सिद्धचक्र व्रत लिया। किस कारण समुद्र में गिरा ? किस पुण्यसे तिरकर बाहर निकला ?: किस कर्मसे भांडोंने मेरा दिगोवा किया? किस कारणसे वह मिट गया। और किस कारण मैनासुन्दरी आदि बहुतसो रूप व गुणवती: स्त्रियां और विभूति पाई ?' इत्यादि । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] भोपाल चरित्र । श्रीपालके भवान्तर श्रो मुनि बोले-'हे राजन् ! सुनो। इस जंबुझोपके दक्षिण दिशामें भरतक्षेत्र है। उसके आय खंडमें एक रत्नसंचयपुर नामका नगर महारमणोक बन, उपवन, तडाग, नदो, कोट, खाई आदि बडे२ उत्तंग महलों से सुसज्जित था। उसके राजा श्रीकंठ विद्याधर महाबलवान और चतुरंग सैन्य का स्वामी था । उस के यहां सब रानियोंमें प्रधान पट रानो प्रोमतो थो। सो वह महारूवती, गुणवतो और धर्मपरायणता थी । नित्यप्रति चार संघको भक्तिपूर्वक आहारादिक दान देती थी । एक दिन राजा रानी सहित श्री जिनमंदिर गया और जिन देवको स्तुति वन्दना करके पीछे फिरा तो वहां परम दिगम्बर मुनिराजको विराजमान देखकर नमस्कार किया, और समीप बैठा। श्रीगुरुने धर्मवृद्धि दी और संसारसे पार उतारनेवाले जिनधर्मका उपदेश दिया। इससे राजा आदि बहुत लोगोंने ययायोग्य व्रत लिये और अपने आवास स्थानों को आये व • यथायोग्य धर्म पालने लगे । पश्चात् तोव मोहके उदयसे राजाने श्रावकके व्रतोंको छोड़ दिया। और लक्ष्मी, ऐश्वर्य, रूप, कुल, वल और तरुणावस्थाके मद में उन्मत्त होकर निथ्यात्वियों के बहकानेसे वह मिथ्यादेव, धर्म और गुरुको सेवा करने लगा, तथा जनधर्मका निन्दक हो गया । एक दिन वह राजा अपने सात सौ वीरों को साथ लेकर वनक्रीडाको गया था, सो वहां एक सफामें बाईस "परिषहरू सहनेवाले ध्यानारूढ एक मुनिराजको देखा, जिसका शरीर बहुत क्षीण (दुर्बल) हो रहा था, धूलसे भर रहा था और डांस मच्छर आदि लग रहे थे। वे एसे निश्चिल विराजमान थे कि जिनके पास सूर्यका Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल के भवान्तर । [ १७३ उजेल ! भो पहुच नहीं सकता था । सो राजाने उन महामुनिको देखकर अपशुकन माना, और 'कोढ़ी है फोड़ी है, ऐसा कहकर समुद्र में गिरवा दिया। परन्तु मुनिका मन विचित् भो चलायमान नहीं हुआ | पश्चात राजाको कुछ दर्या उत्पन्न हुई, सो फिर पानी मेसे मुनिको निकलवा लिया, और अपने घर आया पश्चात् कितने दिनों बाद गजा फिरसे वनक्रीडाको गया, और सामने एक क्षीण शरीर, धीरबीर, परम तत्वज्ञानी मुनिको आते हुए देखा। वे रत्नत्रय के धारी महामुनिराज एक साल के उपवासके अनन्तर नगरकी ओर पारणा (भिक्षा) के लिये जा रहे थे । सो राजाने क्रोधित होकर मुनिसे कहा 'अरे निर्लज्ज ! देश ! तुले जनाको सां फोट ही हैं, जो नंगा फिर रहा है ? गेला शरीर, भयावना रूप बनाकर डोलता है । 'मारो ! मारी ! अभी इसका सिर काट लो' ऐसा कह खड़ग लेकर उठा और मुनिको बडा उपसर्ग तथा हास्य किया । पश्चात् कुछ दया उत्पन्न हुई, तब उनको छोड़कर अपने महलको हा चला आया। ऐसे मुनिको बारंबार उपसर्ग करनेसे उसने बहुत पाप बांधा 1 एक दिन किसी पुरुषने आकर यह सब मुनियोंके उपसर्ग करनेका समाचार रानी श्रीमती से कह दिया, तो सुनते ही रानीको बडा दुःख हुआ । यह बारर सोचने लगी- 'हे प्रभो ! मेरा कैसा अशुभ कर्म उदय आया जो ऐसा पाप करनेवाला भर्तार मुझे मिला । कमको बडी विचित्र गति होती है । यह इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग कराया करता है। सो अब इसमें किसको दोष दूं? मैंने अंसा पूर्व में किया था बेसा पाया ।' 1 : इस तरह रानीने बहुत कुछ अपने कर्मोकी निंदा गह की और उदास होकर पलंगपर जा पडी । इतने में राजा आया Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकाला चरित्र और सुना जिरानो उदास पठो है। तुरन्त ही रानीकै पास आहर पूछने लगा-गये ! तुम क्यों उदास हो ? जो कुछ कारण हो सो मुझसे कहो । ऐसी कौन बात अलभ्य है जो मैं प्राप्त नहीं कर सकता हूँ?' परन्त रानोने कुछ भी उत्तर न दिया। ऐसी ही मुरझाये हुए फूल के समान रह गई । उसे कुछ भी सुध न रही । तब एक दासी बोली-'हे नरनाथ ! आपने श्रावकक प्रत छोड दिये और मुनिकी निन्दा की । उन्हें पानी में गिरवा दिया और बहुत उपसर्ग किया है सो सब .. समाजशीने र नीले मह दिये है : होमे वे दुःखित होकर मुरझाकर पड़ रही है । राजा यह बात सुन बहुत लज्जित होकर अपनी मल पर विचारने और पश्चाताप करने लगा। पश्चात मधुर वचनोंसे रानीको समझाने लगा-'हे प्रिये ! मुझसे नि:संदेह बड़ी भूल हुई। यमार्थमें मैंने मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यागुरु, देव, 'धर्मको सेवन किया, और उसीकी कुशिक्षासे सुमतिको छोड़कर कुमतिको ग्रहण किया, मैं महापाणी हूं। मैंने मिथ्या अभिमानके वश होकर बड़े र अनर्थ किये हैं। मैं अपने आप ही अधर में गिर गया । प्रिये । अब मुझं नरकपंध से बचाओ। मैं अपने लिए कर्मोकी निन्दा करता हूँ, उनपर पश्चाताप करता है, और उनसे छुदने की इच्छासे श्री जिनदेय से वार२ प्रार्थना करता हूं।' तब रानी दयावन्त हो बोली____ 'महाराज! आपने धर्मकथाको छोडकर मिथ्यात्व से वन किया, सो भला नहीं किया । आपने धर्माधर्मका पहिचान बिना किए ही मुनिराजको कष्ट दिया। देखो, धर्मशास्त्र में कहा है कि जो कोई जिनशासन व्रतोंकी, जिनमुरु, जिनर्विच च विनधर्मकी निंदा करता है सो निश्चयसे नरक जाता है। वहार मारण, ताडम लेवन, भेदन भूमा रोहणादि दुःखोंको Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालके भवान्तर । |१५५ भोगता है । बड़ा कोई शुलोपर चढ़ाते हैं, घाणीमें पेलते हैं, संडासीसे सुख फाडकर तांबां, सोशा गलाः गलाकर पिलाते हैं । लोहेको पुतली लाल२ गरमकर शरीरसे भिड़ा देले है, इत्यादि नाना प्रकारके दुःख भोगना पड़ते हैं। इसलिये हे स्वामिन् ! अव कोई पुण्यके उदयसे आपको अपने अशुभ कृत्योंसे पश्चात्ताप हुभा हैं, तो श्री मुनिके पास जाकर जिनव्रत लो, जिससे अशुभ कर्मोको निर्जरा हो ।' यह सुनकर राजा, रानीले कहे अनुसार जिन मंदिर में गया और प्रयम ही जिनदेवकी स्तुति की। पश्चात श्रीगुरुको नमस्कार करके बैठा और बोला- 'हे दीनदयाल प्रभो ! मैंने बड़ा पाप किया है । अब आपके शरणमें आया है सो मुझे . अब नरकमें गिरनेसे बचा लीजिये।' तब धीगरुने धर्मका स्वरुप समझाकर कहा-राजन् । तु सम्यग्दर्शनपूर्वक श्री सिद्धचक्रका व्रत पाल, इससे तेरे अशुभ कर्मका क्षय होगा, यह कहकर प्रतकी विधि बताई । सो राजाने मिथ्यात्वको त्यागकर सिद्धचक्र व्रत स्वीकार किया और सम्यक्त्व ग्रहण किया, तथा पंव अणुव्रत और सप्त सील तीन गुणवत पार शिक्षामतः) बंगोकार किये । फिर अपने स्थानको आया, और उसी समय कर्मध्यानमें सावधान हो बिधिपूर्वक प्रत पालने लगा । नित्य प्रति जिनेन्द देवकी अष्ट प्रकारसे पूजा करता, घ दान देता था। जब आठ वर्ष पूर्ण हो गये, तब उसनेः विधिपूर्वक भाव महित उद्यापन किया और अन्त समयमें सन्यास घरण कर स्वर्ग में जाकर देव हुआ, और सनी श्रीमती भी सम्बासमरण कर स्वगंमें देवी हुई। और भो सब यथायोग्य ब्रतके प्रभावसे मरणकर अपने२ कर्मानुसार उत्तम गतिको प्राप्त हुए। सो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र । वह (राजा धोकटका जीव) स्वर्गसे चलकर तू श्रीगल हुआ . हैं और रानी श्रीमतीका जीव चयकर यह मौनासुन्दरी हुई। . इसलिये हे राजन् ! तुने जो सातसो वीरों सहित मुनि-. राजको 'कोढीर कहकर मानि की थी. उसी के प्रमावसै त उनः । सब सखों सहित कोदो हुआ। और मुनिको पानोमें गिराया, उससे तू भी सागरमें गिरा फिर दयालु होकर निकाल लिया, इसीसे तू भी तिरकर निकल आया। तने मुनिको भ्रष्टर' कहकर निन्दा की थो, इसीसे भांड़ोंने तेरा अपवाद उड़ाया। तूने मुनिके मारने को कहा था, इसीसे तू शूलीके लिए भेजा गया, और दुःख पाया। इसलिये हे राजा ! मुनिकी तो क्या,. किसी भी जीवकी हिंसा दुःखकी देनेवाली होती है, और मुनिघातक तो सातवें नरक जाता है। तूने पूर्वजन्म में श्रावकके व्रतों सहित सिद्धचक्र प्रतका आराधन किया था, जिससे यह विभूति पाई, और पूर्वभवके संयोगसे ही श्रीमतीजोके जीव मौनासुन्दरो और इस पवित्र सिद्धचक्र मतका लाभ तुझे हुआ | ___ यह सुनकर श्रीपालने मुनि महाराजकी बहुत स्तुति वंदना की और अपने भवांतरको कथा सुनकर पापोंसे विशेष भयभीत हो धर्ममें दृढ हुआ । पश्चात् श्रागुरुको नमस्कार कर निज महलोंको आया और पुण्ययोगसे प्राप्त हुए विषयों को ' न्यायपूर्वक भोगने लगा। इस तरह बहुत दिनतक इन्द्र के समान ऐश्वर्यधारो श्रीपालने इस पृथ्वी पर नीतिपूर्णक राज्य किया । आपके राज्यमें । दीनदुःखी कोई भी नहीं मालूम होते है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोपालका दीक्षा लेना । .... राजा श्रीपालका दीक्षा लेना एक दिन राजा श्रीपाल सुखासन से बैठे हुये विशाला अवलोकन कर रहे थे कि स्कापास हुआ बिजली चमकी), उसे देखकर सोचने लगे-'अरे ! जैसे यह बिजलो चमककर नष्ट हो गई, ऐसे ही एक दिन ये सब मेरे नैभव, सन, धन, यौवनादि भी विनश जांयगे । देखो संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है । मेरी ही कई अवस्थायें बदल गई हैं | अब अचेत रहना योग्य नहीं है। इन विषयोंके छोड़नेके पहिले ही में इन्हें छोड दूं, क्योंकि जो इन्हें न छोडूगा तो भी ये नियमसे मुझे छोड ही देंगे । तब मुझे दुःख होगा और आर्तध्यानसे कुगतिका पात्र हो जाऊंगा। इस प्रकार विचारने लमे विश्व में ओ वस्तु उपजी, नाश तिनका होयगा । तू त्याग इनहि अनित्य, लखकर नहीं पीछे रोयगा । अनित्य भावना है। मृत्यु के समय मेरा कोई भी सहाई न होगा। किमरेड सारण जाऊंगा? कोई भी बचानेवाला नहीं है । देव इन्द्र नरेन्द्र खगपति, और पशुपति जानिये । आयु अन्तहि मरें सब ही, शरण किसकी हानिये ।। अशरण भाषमा संसार दुःखरूप जन्म मरणका स्थान है। पिता मर निम पुत्र होवे, पुत्र मर नाता सही। परिवर्तरूपी. जगतमाही, स्वांग ब.. धारे यही ।। संसार भावना, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोपाल चरित्र। इसमें जीव अनादिकालसे अकेला भटकता है। स्वर्ग नर्क हि एक जावे, राज इक भोगे सही । कर्मफल सुख दुःस्त्र सब ही, अन्यको बांटे नाहीं ॥ एकत्व भावना । कोई किसीका साथी नहीं है । देह जब अपना न हादे, मेव जिह नित ठानिये । तो अन्य वस्तु इन पर हैं. किन्हे निजकर, मानिये । अन्याय भावना । मिथ्यात्मके उन यसे यह इस घृणित शनीर में लोलुप हुमा विषय सेवन करता है। मलमूत्र आदि पुरीष जामें, हाड मांस मु जानिये । धिन देह गेह जु चामलपटी, महा अधि बखानिये । अशुचि भावना। और रागद्वेष करके कर्मोको उन करता हैं । मग वचन काय श्रियोग द्वारा, भाव चंचल हो रहे । तिनसे जु द्रव्यऽरु भाव आखा, होप मुनियर यों कहे " आसव भावना। यदि यह मन, वचन, काय को रोककर अपने आत्मामें लीन हो तो कर्म न बधे । योगको चंचलपन, रोके जु चतुर बनायके । तत्र कर्म भावत रुके निश्चय, यह सुनो मन लायके ।। . सवर भावना वात, तप, चारित्र धारण करे तो पूर्व सांचित कर्म भी क्षह य का । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका दीक्षा लेना । ११७९ व्रत समिति पंच अरु गुप्ति तीनों, धर्म दश उर धारके । तप तप द्वादश सहें परिषह, कर्म डारें जारके ।। निर्जरा भावना। को इस अनादि मनुष्याकार लोक जो, तीन भागों में (ऊना अघः और मध्य) विभाजित है और ३४३ धन राजूका क्षेत्रफल वाला हैं, के भ्रमणसे बच सकता है । अधो ऊरध मध्य तीनों, लोक पुरुषाकार हैं। तिनमें सुजोव अनादिसे, भरमें भरें दुःखभार हैं। लोक भावना । सार में और सब बस्तुयें मिलना सहज है और अनंतबार गिली हैं, परन्तु रत्नत्रय हो नहीं मिला है। विश्वमें सब सुलभ जानो, द्रव्य अरु पदकी सही । कह 'दोपत्रन्द्र' अनन्त भवमें, बोधिदुर्लभ है यही ॥ बोधिदुर्लभ । सो एमे रत्नत्रय धर्मको पाकर यह जीव अवश्य हा संसार भ्रमणसे बच सकता है । कल्पतरु अरु कामधेनु, रत्न चितामणि सही । यांचे विना फल देत नाहीं, धर्म हैं विन इच्छ ही ।। धर्म भावना । इस प्रकार संसारके स्वरूपका विचारकर तुरन्त ही वे अपने ज्येष्ठ पुत्र धनपालको बुलाकर कहने लगे—'हे पुत्र! अब मुझसे राज्य नहीं हो सकता, अब मैं अनादिकालसे खोई हुई असल संपत्ति (जो स्वारपलाम) प्राप्त करूगा। तुम इस राज्यको सम्हालो ।' तब पुत्र बोला--- Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८.] भोपाल चरित्र 1 'हे पिता ! मैं अभी बालक हूँ। मैंने निश्चित होकर अपना काल खेलने में ही बिताया है। राज्यकार्य मुझे कुछ भो अनुभव नहीं है । सो यह इतना बड़ा कार्य में कैसे करूंगा? आपके बिना मुझसे कुछ न हो सकेगा?' तर नाना जोले- तुम ! मागे पनी नोति चली आई है कि पिताको राज्य पुत्र हो करता हैं, सो तू सब लायक है। फिर क्यों चिता करता है ? राज्य ले और प्रेमपूर्भक नीतिसे प्रजाको पाल ।' जब पुत्र धनपाल ने आज्ञाप्रमाण राज्य करना स्वीकार किया तब श्रीपालजीने कुवर धनपालको राक्यपट्ट देकर तिलक कर दिया, और भले प्रकार शिक्षा देकर कहा हे पुत्र ! अब तुम राजा हुए। यह प्रजा तुम्हारे पुत्रके समान है । 'यथा राजा तथा प्रजा' होती है, इसलिये मिथ्या. त्वका सेवन नहीं करना । परधन और परस्त्रियोंपर दृष्टि नहीं डालना। अपना समय व्यर्थ विकथामों में नहीं बिताना । इन्द्रियों को न्यायविरुद्ध प्रवर्तन करनेसे रोकना, परोपकारमें दत्तचित्त रहना।' इत्यादि वचन कहकर आप बनकी ओर चले गये । आपके जाते ही प्रजामें हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे कि अब 'चंपापुरकी शोभा गई । अहा ! ये महाबली दयावंत प्रजापालक महाराजा कहां चले गये, जिनके राज्यमें हम लोगोंने शांतिपूर्भक जीवनका आनंद भोगा । महाराज क्यों चले गये ? क्या हम लोगोंसे उनकी सेवा बुद्र कमी हो गई ? या और कोई कारण हुआ ? राजा हम Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालका दीक्षा लेना । ११ - लोगों को क्यों छोड गये? इस्मादि मोई नछकोई गहने लगे, तब राजा धनपाल ने सबको धैर्य दिया। मैनासुन्दरो आदि आठ हजार रानियोंने जब स्वामीके बन जाने के समाचार सुने, तो वे भी साथ हो गई, और कुन्दप्रभा भी साथ हुई । और बहुत से पुरजन भी साथ होकर वनमें गये । सो जब कोटीभट्ट वन में पहुंचे, तो वहांपर महामुनिश्वर मैले देखे, उनको नमस्कार कर प्रार्थना की कि हे नाथ ! मैं अनादिकालका दुःखिया हूँ, सो अब पाकर मुझे भवसागरसे निकालिये अर्थात् जिनेश्वरी दीक्षा दीजिये । तब श्रीगुरुने कहा--'हे वत्स ! यह तुमने अच्छा विचार किया है । जन्म मरणकी सन्तति इसीसे शूटती है, सो तुम प्रसन्नता पूर्वक जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करो। तब थोपालने सब जनोंसे क्षमा कराकर तया आपने भी सबको क्षमाकर दीक्षा लेने के लिए वस्त्राभूषण उतार कर श्रीगुरुको नमस्कार किया । श्रीगुरुने इन्हें दर्शन ज्ञान चात्रि तप और वीर्य, इन पंचाचारों तथा दिगम्बर मुनियोंके २८ मूल गुणों तथा अन्य सब आचरणका भेद समझाकर दीक्षा दो । सो इनके साथ सात सौ बोरोंने भो दीक्षा लो। और भी बहुत से स्त्री पुरुषोंने यथाशक्ति ब्रज लिये तब राजा कुदप्रमा और मोनासुन्दरी, रयत मंजूपा, गुणमाला, चित्र रेखादि रानियोंने भी आयिकाके Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] श्रीपाल चरित्र । श्रीपाल मुनिको केवलज्ञानकी प्राप्ति राजा श्रीपाल दीक्षा लेकर बाईस परोषहोको सहते दुर्द्धर तप करते, तेरा प्रकार चारिअको पालते, और देश विदेशों में भव्य जीवों को संबोधन करते हुए कुछ काल तक विचरते रहे । तपसे शरीर क्षीण हो गया । कभी गिरि, कभी कंदर, कभी सरोच रके तट और कमी झाड़ के नीचे लगाते । शीत उणादि परीषह तथा चेतन अचेतन वस्तुओं कृत घोर उप-- सर्गोको सहते तपश्चरण करने लगे। सो कुछेक काल बाद घाति या कर्मीका क्षय होते हो उनको केवल ज्ञान प्रगट हुआ। उम ममय देवोंका आसन कंपायभान हुआ, सो इन्द्र की आज्ञासे कृरने आकर गंधकुटीकी रचना की और सुरनर विद्याधरोंने मिलकर प्रभुको स्तुति कर केवलज्ञानका उत्सर किया । इस प्रकार वे धोपालस्वामो अपने प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा लोकालोकके समस्त पदार्योंको हस्तरेखावत देखने जानने वाले बहुत काल तक भव्य जीवोंको धर्म का उपदेश करते रहे । पश्चात् आयु कम अन्त में शेष अघा तया कोका भी नाश. कर एक समय मात्रमें परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हुए और सम्यक्त्वादि आठ तथा अनन्त गुणोंको प्राप्त कर संसार, संतति, जन्म, जरा, मरणका नाश कर अविनाशी पद प्राप्त किया । धन्य हैं वे पुरुष, जो इस भवजलको शोषण कर पर मात्म पद प्राप्त करें। सिद्धचक्र व्रत पालकर, पंच महावत मांड । श्रीपाल मुक्तहिं गये, भव दुःख सकल बिछांड ।। सिद्धचक अत धन पालक श्रीपाल 1 फल पायो तिन तको, 'दीप' नवावत भाल Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपालको केवल ज्ञान । [१८३ और मैनासुन्दरो आयिकाने भी घोर तप किया । सो अन्त में सन्यास मरण कर सोलहवें स्वर्ग में स्त्रीलिंग छेदकर बाईस सागर आयुका धारी देव हुआ। वहांसे चय मोझ जावेगा । कुनप्रभा रानीने भी नपके योगसे सन्यास-मरण कर सोलहमें स्वर्गमें देव पर्याय पाई तथा रयनमंजूषा आदि अन्य स्त्री तथा पुरुषोंने भी जैसार तर किया उसकेर स्वर्गादि शुभ गतिको प्राप्त हुये। इस प्रकार हे राजा श्रेणक : श्रीपालजीका चरित्र और सिद्धचक्र व्रतका फल आरसे कहा। रामा श्री गौसमस्त्रामों के मुख में सिद्धचत्र वनका मा (श्रोताल परित्र) सुनकर संपूर्ण मनाको अत्यानंद' हुआ देखो, जिनधर्म और इस व्रतकी महिमा कि कहां तो कोटो भोपाल और कहाँ आत दिन को दूर होकर काप्रक्षेत्र में समान रूप होगा, और सागर तिरना, लक्ष चारों को बांधना तथा और भी बहेर अश्वयं जैसे कार्य करना, आठ हजार रानियों और इन्द्र के समान बड़ी विभूतिका स्वामी होना व इस प्रकार मनुष्य भवमें यश, कीति और सुखोंको भोगकर अन्त में साल कर्मोका नाशकर अविनाशी पदका प्राप्त होना । इसलिए जो कोई भव्य जोव 'जिनधर्मको धारण कर मन, वचन, कायसे व्रतोंको पालन करते हैं वे भी इस प्रकार उत्तम पतिको प्रात होते हैं। सर्व धर्मको सार है, सम्यक् दर्शन शान । अरु सम्यक् चारित्र मिल, यही मोक्षमग जान ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपाल चरित्र / कर त्रिशुद्ध पा मग लगे, जो नर चतुर सुजान / सो सुरनर सुख भोगके, अन्त लहें निर्वान / / जो नर वांचे भावसे, सुने सुनावे सार / मन बांछिप्त सुख सो लहे, अरु पावें भव पार // पंच परम पद२ प्रण मि, सरस्वती उर धार | सरल देश-भाषा यही, पद्य ग्रन्थ अनुसार // तीर्थकर भज शल्य तज, ज्ञेय पदार्थ विचार / ज्येष्ठ कृष्ण ग्यारस करी, कथा पूर्ण सुखकार || शब्द भेद जानो नहीं, पढ़ो न शास्त्र पुरान / न्यूनाधिकता होय जो, क्षमा करो बुधवान / / नरसिंहपुर है जन्म थल जाति जेन परमार | 'वीपचन्द' वर्णी करी, भाषा बुद्धिः अनुसार / ' है समाप्त