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भोपाल चरित्र !
नीच संगसे नीच फल, मध्यम से मध्यम सही उत्तमसे उत्तम मिले, ऐसे श्रीजिन गुरु कही ॥
देखिये यह जीव भी इस संसार में अनादि कर्मबंधात् स्वस्वरूपको भुला हुवा पर [दुद्गला पर्यायों में आपा भाव चतुर्गति में भटकता है और उन कमौके उदयजनित फल में रागद्वेष बुद्धिकर सुख-दुःखरूप इष्टानिष्ट कल्पना करता है तथा उसमें तन्मयी होकर हर्ष विवाद करता है परंतु यह उसकी भूल है। क्योंकि जो कुछ सर्वज्ञने देखा है वह अवश्य होगा | इसलिये समताभाव रखना ही कर्तव्य है । जब कि समीचीन पुरुषको ही कर्मने नहीं छोड़ा तो हमारे जैसे शक्तिहीन मनुष्योंकी क्या बात है ।
इसलिये हे पिता ! सुरसुन्दरीका वह दोष नहीं था। वह केवल कगुरुको शिक्षाका ही फल था । माता पिताका कर्तव्य है कि वे जब अपनी कन्याओंको विवाह योग्य देखे, तब उत्तम कुलवान्, रूपवान् गुणवान्, अपने बराबरीवाला. सुयोग्य वर ढूंढ़कर उसके साथ व्याह दे । यथार्थ में वे ही कन्यायें प्रशंसनीय हैं जो गुरुजनोंके द्वारा किया हुआ संबंध सहर्ष स्वीकार कर उसीमें संतोष करती हैं। क्योंकि प्रथम तो गुरुजनोंके द्वारा कभी अपनी कन्याओंके साथ अहित होनेकी आशा ही नहीं है और कदाचित् किसी अविचारी माता-पितादि द्वारा भाग्यवश ऐसा ही हो जाय, अर्थात् योग्य बरन भी मीले तो वे उसे पूर्वोपराजित कर्मका फल जानकर उसी प्राप्त वरकी सेवा करें इसही में उनका कल्याण है । संसार में इष्टानिष्ट वस्तुओं का संयोग कर्म के अनुसार स्वयमेव हो आकर मिल जाता है, इसमें किसीका कुछ दोष नहीं होता है, इसलिये पिताजी ! आपको अधिकार है, आप चाहे जिसके साथ व्याहो । -
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