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मनासुन्दरीका वर्णन ।
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हे पिता ! कुलवन्ती कुमारियां अपने मुहसे वर नहीं मांगती। माता पितादि स्वजन वा गुरुजन जिसके साथ ब्याह देते हैं, उनके लिये वहीं वर कामदेव के सत्य होता है । चाहे वह अंधा, खुला, काना, बहरा, पांगुला, कोडी रोगी, राव, रंक, बाल, वृद्ध, रूपवान, कुरूप, मूर्ख, पंडित, निर्दया, निलंज्ज हो अथवा सर्वगुण सम्पन्न हो, परन्तु उन कुमारियोंके लिए वहीं वर उपादेय (ग्रह योग्य) है । कन्याओंका भला बुरा विचारना माता पिताके आधीन है । वे चाहे सो करें। ____ मैंने श्री गुरुके महसे ऐसा ही सुना है, और शास्त्रोंमें भी वही कथा प्रसिद्ध है कि कच्छ सुकच्छ राजाको कन्यायें यशस्वी और सुनन्दा भी जब तरुण हमीं तो उनके पिताने
श्री आदीश्वर (ऋषभनाथ) स्वामीको परणाई थी और आदि. नाथको दो कन्यायें ब्राह्मी और सुन्दरी जाब तरुण हुयीं और उनके लग्नका विचार नहीं किया गया तो वे कुमारिकायें समस्त इन्द्रियोंको तुच्छ और दु.स्वरूप समझकर जिनदीक्षा लेकर इस पराधीन स्त्रापर्याय से सदाके लिए छूट गयौं, अर्थात् के स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्गमें देव हुयीं ।
इसलिये हे पिता ! अपने मुंह से वर मांगना अनुचित वा लोक विरुद्ध है । बहिन सुरसुन्दरीने जो वर मांग लिया, सों यह उनको चतुराई नहीं है, परन्तु वे बेचारी क्या करें ? खोटे गुरु (कगुरू) की शिक्षा स्वभाव ही ऐसा है । संगतिका :प्रभाव अवश्य ही होता है । देखो कहा है--
तपे तवापर आय स्वाती जल बद विनट्ठी । कमल पत्रपर सङ्ग वहीं मोती सम दिट्ठी ।। सागर समीप मई मुक्ताफल सोई । “संगतिका प्रभाव प्रगट देखो सब कोई ।।