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श्रीपाल चरित्र ।
पुण्य उदधि यह जानिये, अहो तात गुण लीन । स्वर्ग मोक्ष दातार ये, प्रगट रत्न हैं तीन ।। अर्थात्-अहंत देव, दयामयी धर्म और निर्ग्रन्थ गुरुको सेवासे ही पुण्यबंध होता है । और तो क्या, इनकी सेवा अनुक्रमसे मोक्षको देनेवालो होती है । राजा पुत्रीके द्वार अपने प्रमनका उत्तर पाकर और भी प्रसन्न हुए, और बिना विचारे पुत्रीसे कहने लगे-हे पुत्री! तू अपने मनके अनुसार जो रूपवान व पराक्रमी वर तुझे पसन्द हो, सो मुझसे कह ! मैं सुरसुन्दरीके समान्द तेरा लग्न तेरी पसन्दमोसे कर दूंगा ।
यह पिताका वचन मैनासुन्दरीके हृदय में वज्रवत् प्रतीत इंशा । वह चुप ही रही, कुछ भी उत्तर मुहसे नहीं निकला । .. मन सोचने लगी ताने ऐसे वचन क्यों कहे ?
या कुलोन कन्यायें भी अपने मुहसे वर मांगती हैं ? नहीं २ शोलवान कन्यायें कभी नहीं कह सकती हैं। ___ यथार्थमें जिसने जिनेन्द्र देवको पहिचाना नहीं और निग्रंन्य गुरु दयामयी धर्म नहीं जाना है उनको यही दशा होती है । 'बिना दशलक्षण व रत्नत्रय धर्मके जाने यथार्थमें विवेक नहीं हो - सकला। इत्यादि विचारोंमें निमग्न हुई पुत्री, पृथ्वी को ओर इकटक देखती रही तो भो राजाने इसका भाव न समझा, और फिरसे कहा--पुत्री ! यह लज्जाय बात नहीं है । तूने जो कुछ विचार किया हो अर्थात् जो वर तुझे पसन्द हो सो कह ।।
इस प्रकार बारंबार राजाके पूछनेपर वह विचारली थी कि राजाको बुद्धि कहाँ चली गई ! जो निर्लज्ज हुये, इस प्रकार फिर फिरसे प्रश्न कर रहे हैं ? यदि इनने हमारे गुरुका वचन सुना! होता तो कदापि ऐसा बचन महसे नहीं निकालते । इत्यादि । परन्तु जब पिताका विशेष आग्रह देखा तब वह लाचार होकर बोली