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मेनासुन्दरो का वर्णन
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यह बात सुनकर राजा कोशित होकर बोले- बस बस पुत्री ! चुप रह सेश उपदेश बहुत हो गया। क्या तेरे गुरुने तुम यही पढाया है कि अपने उनका राजनोंके उपकारका तिरस्कार करे ? तू मेरे घर में तो नाना प्रकारके उसम भोजन करती है, वस्त्राभूषण पहनती है, और सब प्रकार सुख भोग रही है, तो भा कहती है कि मुझे ता सब मेरे कम हीसे मिलता है | यह तेरी कृतज्ञता है ।
मेनासुन्दरी ने कहा---पिताजी : कायार्थ है । आप मनमें विचार देखिये ! मेरा शुभ कर्मका ही उदय था कि आपके घर जन्म मिला और ये सब सुख भोगने में आये । यदि मेरे अशुभ कर्मका उदय होता, किसी दरिद्रीके घर जन्म लेती, जहां !क दुःख ही दुख मिलता। सो वहां तो आप कुछ, सुख देने आते ही नहीं । भला और भी संसार में अनेक प्राणी दुःखी देखे जाते है, उन्हें व नारकी आदि जोषोंका व देवादिकोंको कौन दुःख व सुख जाकर देता है ? यथार्थमें जीवको उसीका किया हुआ शुभाशुभ कर्म, सुख व दुःखका दाता है ।
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राजाको पुत्रीके ऐसे वचन सुनकर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ. और उसी समय उसने मनमें यह ठान लो कि अब इसके कर्मको परीक्षा करना चाहिए, जो इतना गबंयुक्त हो रही है। कुछ देर चुप रहा और उपरो मनसे मैनासुन्दरीकी प्रसंशा करता हुआ उठकर महलोंमें चला गया, और मेनासुन्दरी भी हर्षित होकर अपने महलमें चली गई ।
नगर के लोग पुत्री को देखकर बहुत ही आनन्दित होते थे । कोई कहते थे, यह देवा है, कोई कहते थे, विद्याधरी है, कोई कहते थे, रति है इत्यादि । सारांश यह है कि इसके रूपके समान और किसी स्त्रीका रूप नहीं था । वर्षकी कन्या वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हुई सुखपूर्वक रहने
यह षोषी (१६.
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