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________________ षोपाल परित्र । लमी, और निरन्तर भोजन तैयार होनेपर श्रोमनिके आगमन कालका विचार कर ताराप्रेक्षण करती और मुनि आदि अतिथियों को भक्तिपूर्वक आहारादि दान देतो, परन्तु यदि समय निकल जाता और कोई मनि (अतिथि दृष्टि न पडते तब आत्मनिंदा करतो हई ( कि हाय ! आज मेरे कोई पूर्वोपाजित अन्तराय कर्मके उदयसे अतिथिका योग नहीं मिला इत्यादि ) एक पुरुषके भोजनके योग्य रसोई निकालकर ..किसी दिन-दु:खोको देकर करूणादानको ही भावना भाती हुई भाजनका बठतो। इसी प्रकार नित्य प्रति वह कुमारिका षटकर्म देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान में सावधान रहतो हुई सानन्द काल मेप करने लगी । =*== मैनासुन्दरोका श्रीपालसे ब्याह एक दिन राजा पहाल (मैनासुन्दरीके पिता) को अकस्पात् कोनामनदरीके उन वचनों का स्मरण आ गया । "fक पत्री कहती है कर्म हो प्रधान है" और इसलिये वह तुरन्त ही कोपयुक्त होकर मस्त्रियों के साथ पुत्रोके लिए होन वरको • खोज में निकला। चलते चलते वह उसो चंपापुरके वनमें पहंचा, जहां राजा श्रीपाल सातसौ सखाओं सहित पूर्वोपाजित कर्मका फल (कुष्ट व्याधि) भोग रहे थे । प्रोपाल राजा पहपालको आते देखकर स्वासनही उठ खडे हुये । और यथा योग्य स्वागत करके कुशल समाचार पूछे तथा अपने पास तक मानेका कारण मी पूछा । राजा महुपालके मन्त्रिपोंकों यह देखकर विस्मय हो रहा था कि
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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