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आराधना-कपा-कोष
गया और धूमसिहको उचित दण्ड दें अपनी स्मोको छुपा लाया। उस समय तुमको मैंने मनमानी वस्तु मांगने को कहा था, पर तुमने कुछ भी लेनेसे इन्कार किया। वह भो ठीक ही था, क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरोंकी भलाई किसी प्रकारको आशासे नहीं करते हैं। इसके बाद मैं अपने नगरको गया और कुछ वर्षों तक राज्यश्रीका खुब मानंद लूटा। बादको मात्म-कल्याणको इच्छासे पुत्रोंको राज्य सौंप मैंने दीक्षा ले ली, जो मोक्षको देनेवाली हैं। चारण ऋद्धिके प्रभावसे में यहाँ आकर तपस्या कर रहा हूं। यही कारण है कि मैं तूम्हें पहचानता हूँ।" चारुदत्त इन बातोंको सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। यहां अया हो या मुनिराजके दो पुत्र सनकी पूजा करने वहां आये। मुनिराजने चारुवत्तसे भी उनका परिचय कराया। परस्पर मिलकर इन सबको चड़ो प्रसन्नता हुई। - इसो समय एक खुबसूरत युवक वहां आया। युवकने आते ही चारुदसको प्रणाम किया । चारुदत्तने उसे ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा कि पहले तुम्हें गुरुदेवको नमस्कार करना उचित था। आगत युवकने अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं पहिले बकरा था। पापी रुद्रदत्त जब मेरा गला खाधा काट चुका था, उस समय भाग्यसे आकर आपने मुझे नमस्कार-मन्त्र सुनाया और साथ हो सन्यास दे दिया मैं शांतिसे मर कर मन्त्रके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ। इसलिये मेरे गुरु तो आप हो हैं-आपने ही मुझे सन्मार्ग बतलाया है। वह सौधर्म-देव धर्म-प्रेमसे प्रेरित हो दिव्य वस्त्राभरण चारुदत्तको भेंट कर और उसे नमस्कार कर स्वर्ग चला गया। परोपकारियोंका इस प्रकार सम्मान होना ही चाहिये।