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________________ दूसरा भाग [ ५५: " लड़ाई होने लगी, जिसके फलस्वरूप रुद्रदश जिस थैली में था, वह चोंच से छूट पड़ी। रुद्रदत्त समुद्र में गिरकर मर गया। मरकय भी अपने पापके फलसे भोगनेके लिये उसे नरकयामी होना पड़ा । चारुदत्तकी थैलीको जो पक्षी लिये था, उसने उसे रत्नद्वीपके एक सुन्दर पर्वतपर ले जाकर रख दिया। चोंच मारते हो चारुदत्त दीख पड़ा और पक्षी डर कर भाग गया। जैसे ही चारुदत्त थैली बाहर निकला कि धूपमें ध्यान लगाये एक महात्मा दीख पडे । उन्हें कड़ी धूपमें मेरुकी तरह निश्चल देख कर चारुदत्तकी उस पर बहुत श्रद्धा हुई । मुनिराजका ध्यान पूरा होते ही उन्होंने चारों कहा--"नों चागम अच्छी तरह तो हो न ?" मुनिके मुखसे अपना नाम सुन कर चारुदत्तको बड़ी खुशी हुई कि इस अपरिचित देशमें भी उसे कोई पहचानता है, साथ ही उसे इस बात पर आश्चर्य भी हुआ। वह मुनिराज से बोला - "प्रभो । मालूम होता है कि आपने कहीं मुझे देखा हैं, बतलाइये तो भला मैं आपको कहां मिला था ?" मुनि बोले- "सुनो, मैं अमितगति विद्याधर हूं । एक दिन मैं चंपापुरीके बगीचेमें अपनी प्रिया के साथ सैर करने गया था। उसी समय धूमसिंह नामक विद्याधर वहां आया और मेरी स्त्रीको देखकर उसको नीयत खराब हो गयी । अपनी विद्याके बलसे उस कामान्ध पापीनें मुझे एक वृक्ष में कील दिया और मेरी पत्नीको विमान पर बैठा कर आकाश मार्ग से चल दिया। भाग्यवश उस समय तुम व आ गये । तुम्हें दयावान समझ मैंने वहीं रखी एक औषधिको पीस कर मेरे शरीर पर लेप करनेको कहा। तुमने वैसा ही किया. जिससे दुष्ट विद्याओं का प्रभाव नष्ट हुआ और वैसे ही छूट गया जिस प्रकार गुरु-उपदेशने जीव माया - मिध्याकी कीलसे छूट जाता है । मैं उसी समय कैलाश पर्वतपर
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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