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श्रीपालका दीक्षा लेना । ११ - लोगों को क्यों छोड गये? इस्मादि मोई नछकोई गहने लगे, तब राजा धनपाल ने सबको धैर्य दिया। मैनासुन्दरो आदि आठ हजार रानियोंने जब स्वामीके बन जाने के समाचार सुने, तो वे भी साथ हो गई, और कुन्दप्रभा भी साथ हुई । और बहुत से पुरजन भी साथ होकर वनमें गये । सो जब कोटीभट्ट वन में पहुंचे, तो वहांपर महामुनिश्वर मैले देखे, उनको नमस्कार कर प्रार्थना की कि हे नाथ ! मैं अनादिकालका दुःखिया हूँ, सो अब पाकर मुझे भवसागरसे निकालिये अर्थात् जिनेश्वरी दीक्षा दीजिये ।
तब श्रीगुरुने कहा--'हे वत्स ! यह तुमने अच्छा विचार किया है । जन्म मरणकी सन्तति इसीसे शूटती है, सो तुम प्रसन्नता पूर्वक जनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करो। तब थोपालने सब जनोंसे क्षमा कराकर तया आपने भी सबको क्षमाकर दीक्षा लेने के लिए वस्त्राभूषण उतार कर श्रीगुरुको नमस्कार किया । श्रीगुरुने इन्हें दर्शन ज्ञान चात्रि तप और वीर्य, इन पंचाचारों तथा दिगम्बर मुनियोंके २८ मूल गुणों तथा अन्य सब आचरणका भेद समझाकर दीक्षा दो । सो इनके साथ सात सौ बोरोंने भो दीक्षा लो। और भी बहुत से स्त्री पुरुषोंने यथाशक्ति ब्रज लिये तब राजा कुदप्रमा और मोनासुन्दरी, रयत मंजूपा, गुणमाला, चित्र रेखादि रानियोंने भी आयिकाके