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श्रीपाल चरित्र । श्रीपाल मुनिको केवलज्ञानकी प्राप्ति
राजा श्रीपाल दीक्षा लेकर बाईस परोषहोको सहते दुर्द्धर तप करते, तेरा प्रकार चारिअको पालते, और देश विदेशों में भव्य जीवों को संबोधन करते हुए कुछ काल तक विचरते रहे । तपसे शरीर क्षीण हो गया । कभी गिरि, कभी कंदर, कभी सरोच रके तट और कमी झाड़ के नीचे लगाते । शीत उणादि परीषह तथा चेतन अचेतन वस्तुओं कृत घोर उप-- सर्गोको सहते तपश्चरण करने लगे। सो कुछेक काल बाद घाति या कर्मीका क्षय होते हो उनको केवल ज्ञान प्रगट हुआ। उम ममय देवोंका आसन कंपायभान हुआ, सो इन्द्र की आज्ञासे कृरने आकर गंधकुटीकी रचना की और सुरनर विद्याधरोंने मिलकर प्रभुको स्तुति कर केवलज्ञानका उत्सर किया ।
इस प्रकार वे धोपालस्वामो अपने प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा लोकालोकके समस्त पदार्योंको हस्तरेखावत देखने जानने वाले बहुत काल तक भव्य जीवोंको धर्म का उपदेश करते रहे । पश्चात् आयु कम अन्त में शेष अघा तया कोका भी नाश. कर एक समय मात्रमें परम धाम (मोक्ष) को प्राप्त हुए और सम्यक्त्वादि आठ तथा अनन्त गुणोंको प्राप्त कर संसार, संतति, जन्म, जरा, मरणका नाश कर अविनाशी पद प्राप्त किया । धन्य हैं वे पुरुष, जो इस भवजलको शोषण कर पर मात्म पद प्राप्त करें। सिद्धचक्र व्रत पालकर, पंच महावत मांड । श्रीपाल मुक्तहिं गये, भव दुःख सकल बिछांड ।। सिद्धचक अत
धन पालक श्रीपाल 1 फल पायो तिन तको, 'दीप' नवावत भाल