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________________ समुद्र पतन | (१०५ 'को। चाहे जो हो, कुसान कन्या अकुलोनसे प्रसंग कभी नहीं कर सकती है । क्योकि कहा है पहुप गुम्छ शिरपर रहे, या सूखे वन माह । तैसे कुलवंतन् सुता, अकुलोन घर नहि जाह ।। देब ! तेरी गति बिचित्र 1 तु क्या २ खेल दिखाता है । इत्यादि विचारोंमें मग्न हो गई और मुंह से कुछ भी शब्द न निकला । तब श्रापालने अपनी प्रियाको इस तरह चितित देखकर कहा प्रिये ! सन्देह छोडो। मैंने यह वचन केवल तुम्हारी परीक्षा करने के लिए ही बहे थे। सुनो, मेरा चरित्र इस प्रकार है । ऐसा कहकर आद्योपांत कुछ चरित्र कह सुनाया। तब रयनमंजूषाको सुनकर सन्तोष हुआ। और उन दोनोंका प्रेम पहिलेसे भो अधिक बढ़ गया । जहाजों के सभी स्त्री पुरुषों में इन दोनोंके पुण्यकी महिमा ही गाई जाती थी। _ ये दोनों सबको दर्शनीय हो रहे थे, परन्तु दिनके पीछे रात्रि और रात्रि के पीछे दिन होता है । ठोक इसी प्रकार शुभाशुभ कर्मोका नत्रा भो चलता रहता है। कर्मको उन दोनोंका आनन्द दौमव अच्छा नहीं लगा 1 और उसने बीचही में बाधा डाल दी, अर्थात् वह कृतघ्नी धवलसेठ जो इनको धर्मसुत बना कर और अपने लामका दशवां भाग देने का वादा करके साथ लाया था, सो रबनमंजूषाके अनुपम रूप और सौन्दर्सको देखकर उस पर मोहित हो गया, और निरंतर इसी चितामें उसका शरीर क्षोण होने लगा। एक दिन वह दुष्टमति उसे देख कर मूछित हो गिर 'पडा, जिससे सब जहाजोमें कोलाहल मच गया! तथा *श्रीपाल जो भो वोन ही वहां आये। उन्होने सेठको तुरंत
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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