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________________ १०४] श्रोपाल चरित्र । समुद्र-पतन श्रीपाल रयन मंजूषाको लेकर जच धवलसेठके साथ जलयात्राको मिकले, तर सद्वीपके लोगोंको, इनके वियोगसे बहुत दुःख हुआ, परन्तु वे विचारे कर हो क्या सकते थे? परदेशी की प्राति त्यों, ज्या वालको भोत । ये नहिं टिके बहुत दिवस, निश्चय समझो मौत ।। श्रीपालको श्वसुरके छोड़नेका तथा रयनमंजषाको भो माता-पिता को छोयोका उतना ही रंज हुआ, जितना कि उनको अपनो पुत्रो और जंवाईके छोड़ने में हुआ था, परन्तु ज्यों २ दूर निकलते गये, और दिन भी अधिक २ होते गये, त्यों २ परस्परको याद भूलने से दु:ख भी कम होता गया। -ठीक है__ नयन उधार सब लखे, नयन झनै कछु नांहि । नयन बिछोहो होते हो, सुख बुध कानुन रहाहि ॥ __ वे दम्पति सुखपूर्वक काल व्यतीत करते और सर्ग संघके मनोंको रंजायमान करते हुए चले जा रहे थे कि एक दिन विनोदार्थ श्रोपालजोने रयन मंजषासे कहा-हे पिये ! देखो, तुम्हारे पिताने बिना विचारे और बिना कुछ पुछे, अर्थात् मेरा कुल आदि जाने बिना हो मुझ परदेशीके साथ तुम्हारा ब्याह कर दिया, मो यह बात उचित नहीं की। रयनमंजूषा पतिके ये वचन मुनकर एकदम सहम गई, मानों पद्मिनी चन्द्र के अस्त होते ही मुरझा गई हो। यह नीची दृष्टि कर बड़े विचारमें पड़ गई कि देव ! यह क्या चरित्र है ? यथार्थ में क्या यह बात ऐसी ही है ? कुछ समझमें रही बाता । जो यह बात सत्य है तो लिताने बडो भूल
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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