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________________ धवलसेठ रयनमंजूषाके पास मोर पेषसे दंड। [१९ भी तुच्छ हैं । भिन्तु प्यारी ! केवल तुम्हारी प्रसन्नता को कमी है सो पूर्ण कर दो, बामओ, दोनों दृष्यसे मिल लेवें।" । इत्यादि नाना प्रकार से वह तुष्ट बकने लगा। । परन्तु इस समय उस सतीका दुःख नहीं जानती थी, क्योंकि शीलवती स्त्रियोंको शीलसे प्यारी बस्तु. संसार में कुछ भी नहीं हैं। वे शीलकी रक्षा करने के लिए प्राणोंको भी न्योछावर कर देती हैं। इसीसे ये वचन उसको तीक्ष्ण बाणसे भो अधिक चुभ रहे थे जब उसने देखा कि यह पापी अपनी 2 द समाये ही जा रहा हैं और किंचित भो लज्जा भय व संकोच नहीं करता, तब उसने नीति और धर्मसे संबोधन करनेका उद्यम किया । वह बोली " हे तात ! आप मेरे स्वामीके पिता और मेरे श्वसुर हो, श्वसुर और पितामें कुछ अन्तर नहीं होता। मैं आपकी पुत्री हूं। चाहे अचल सुमेरु चल जाय, पर पिता पुत्रा पर कुदृष्टि नहीं कर सकता । प्रथम तो अशुभ कर्मने मेरे भारका वियोग कराया और अब दूसरा उससे भी कई गुणा, दारण दुःख यह तुम देने को उच्चत हो रहे हो। यदि और कोई कहता तो आपसे पुकार करतो, परन्तु आपको पुकार किससे कहूं ! अपने कुल व धर्मको देखो, हाडमांस व मलमूत्रसे भरी घृणित देहको देखकर क्या प्रसन्न हो रहे हो? चमडेको चादरसे ढकी हुई हैं जिसमें दशों द्वारोंसे दुर्गन्ध निकलती है ऐसे घृणित देहपर क्यों मुग्ध हो रहे हो ? इसके अतिरिक्त आपके यहां देवांगनाओंके सदृश स्त्रियां हैं, तो उनके सम्मका बासीवान है। बरे कुलवामका धर्म है कि अपने और परकेसीलकी रक्षा करें। बच्चे, सवण व जीवनमा परस्त्रीसम मानी गरेको कम्पनर मोरनापाले गये
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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