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श्रीपाल चरित्र।
इसलिए पिताजी ! आप अपने स्थान पर जाओ, और मुझ दोनको व्यर्थ ही सताफर दुःखी मत करो। मुझ असहाया पर कृपा करो और यहांसे पधारो । परन्तु जैसे पित्तज्वरचालेका मिठाई भी कडवी लगतो है उसी तरह कामज्वरचालेको धर्मवचन कहां रुच सकते हैं ?
वह दृष्ट बोला-"प्राणवल्लभे ! यह चतुराई रहने दो। ये सब ना तो मैं हूँ। यह विचार बूढ़े पुरुषों को जिनके शरीर में पौरुष नहीं हैं, करना चाहिए। हम तुम दोनों तरुण हैं। भला, अग्निके पास घी बिना पिघले फैसे रह सकता है ? सो इस व्यर्थको बातोंसे क्या होगा? आयो, मिललो, नहीं तो ये प्राण तुम्हारे न्योछावर हैं। अब भी वो कृपा न करोगो, तो मेरी हत्या तुम्हारे सिर होगी। अब तुम्हारी इच्छा ! मारो चाहे बचाओ।"
ऐसा कहकर उस पापीने अपना माथा भूमिपर रख दिया। जब उस सतीने देखा कि यह दुष्ट नीतिसे नहीं मानता । और अवश्य ही बलात्कार कर मेरा शरीर स्पर्श करेगा, तब उसने क्रोधसे भयंकर रूप धारण कर कहा- रे दुष्ट पापी निलज्ज ! तेरी जीभ क्यों गल नहीं जाती ? बरे नीच दुर्बुद्धि निशाबर ! तुझे ऐसे घृणित शब्दोंको कहते शर्म नहीं आती है ? रे धोठ अधम क्रूर ! पशुसे भी महान पशु है । तेरी क्या शक्ति है जो शोल धुरंधर स्त्रोका शोल. हरण कर सके ? . . "यह पतिव्रता अपने प्राणोंको जाते हुए भी अपने शोलको रक्षा करेगी। तू मेरे प्राण हरण तो कर सकता है, परन्तु मेरे शीलको नहीं बिगाड़ सकता | एक वे (श्रीपाल) हो इस