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धवलसेठ रयनमंजुषाके पास और देवसे दंड । [१२१ भवमें मेरे स्वामी है । और उनकी अनुपस्थितिमें संयम ही मेरा रक्षक हैं । रे निर्लज्ज ! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अब तेरी भलाई नहीं है ।" ___ वह पापी इससे भी नहीं हगा और आगेको बला । यह देख उस सतीको चेत न रहा । कुछ देरतक वह कठ-पुतली सी रह गई, परन्तु थोड़ी देर में पुनः जोरसे पुकारने लगी-हे दीनबन्धो ! दयासागर प्रभो ! मेरी रक्षा करो!
शिवनारी भर्तार प्रभु, तुम लग मेरी दौरू । जैसे काग जहाजका, सूझत और न ठौर ।। दीनबन्धु करुणानिधि, धन्य त्रिलोकीनाथ । शरणागत पाले घने, कीन्हें अनाथ सनाथ ॥ सोता, द्रोपदि, अंजनी, मनोरमादिक नास । बिपति समय सुमरी तुमहि, लीनो तिनहिं उबार ।। अबकी वार पुकार मुझे सुन लीजे महाराज । ढील न कीजे क्षणक हूँ, राखो मेरी लाज । धवलसेठ हो कामवश, लाज दई छूटकाय । आयो शील बिगाड़ने, यहां नहि कोई सहाय ।। शील नसे जो आज मुझ, तो मैं त्यागू प्राण । यामें शंक न रच हूँ, यही हमारी आन ।। इत्यादि।।
इस प्रकार वह भगवानकी स्तुति करने लगी । अहा ! जिसका कोई सहायक न हो, और वह सच्चा शीलवान, चतवान, दृढ़चारित्री हो तो उसकी रक्षा देव करते हैं । उस सत्तीके अखंड शीलको कौन खण्डन कर सकता था? एक