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रनमंजुषाकडाना ।
बात अवश्य है कि बाएं जैसे समीधीन पुरुषोंको प्रत्येक कार्य संदेव विचारक ही कहा है किकरना ये किं विद्याधराणाकृत
कि योगीश्वर काननं कुपितं ध्यानं घृतं केवलम् ।। कि राज्य सुरनाथतुल्य भक्तो सुरनाथतुल्यभवतो भूमंडलै विद्यते । यतिं च विवेकहीनमनि दुःख व पुसोधिकम् ॥ अर्थात, विद्याधरकी गंधर्वादि विधाएं, योगी अचल ध्यान और स्वर्ग समान समस्त पृथ्वीका विवेक विना निष्फल है ।
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का वनमें राज्य भी
राजाने लज्जासे शिर मचा कर लिया और श्रीपालकों गजारूढ कर बड़े उत्साहसे राजमहलको ले आये। नगर में घर मंगलनाद होने लगा और ह मनाया जाने लगा । श्रीपाल जब महल में आये, तो दोनों स्त्रिोंने प्रेमपूर्वक पतिकी वंदना की और परस्पर कुशल पूछकर अपना सब वृतांत कहा तथा उनको सुनंकर विसको शांत किया, और वे आनन्दसे समय बिताने लगे
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राजाने सेवकोंको भेजकर धवलसेटको पकर बुलाया, सो 'राजकीय नोकर उसे मारते पीटते तथा नही दुर्दशा करते हुए राजसभा तक लाये। तब राजाने उस समय श्रीवासजीको भी बुलाया और कहा-'देवी इस दुष्टमे अपने महोपकारी आप जैसे धर्मात्मा नररत्नको निष्कारण बहुत सताया है इसलिए अब इसका सिरछेद करना चाहिए ।" यह सुनकर और सेटको दुर्दशा किरको दुःख तु वे राजासे बोले- 'महाराज ! वह मेरा
कृमाकर झो. छोट
दजिये ।। इसने मेरे साथ जो भी अवगुण लिए तो गुण ही हो गये है। मेरे
किए है ये मेरे ही सा
न