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१४.] -श्रीमान सारित ।.. .... आपके दर्शन हुए और अतुल,सुख प्राप्त किया । यदि ये मुझे समुद्र में न गिराते तो मैं यहां तमा न बाता और न गुणमाला अंसी महिलाभूषणको विवाहला । __इस प्रकारसे राजाने श्रीपालके कहने मेट उपके सब माथियोंको छोड दिपा, तथा सादरपर्गक पंचामृत भोजर कराकर बहुत सुश्रूषा को।
धवलोठने श्रीपालजोको यह · उदारता, दयालुता तथा गंभीरता देखकर लज्जित हो नावा सिर कर लिया, और श्रीपालको बहुत स्तुति की। मन हो मन पश्चाताप करने लगा-हाय मैंने इसको इतना कष्ट दिया, परन्तु इससे मुझ पर मलाई हो को। हाय ! मुझ पापोको अब कहां ठौर मिलेगा? इस प्रकार पछना कर ज्योंही उसने - एक दोघं उन्लास लो कि उसका हाय फट गया, और तस्कान प्राणपंखेरू उड गये । और वह मरकर पापके उदयसे न चला गया। यहां श्रीपालको सेठके मरनेका वहा बुख हुमा । उन्होंने सेठानोको पास जाकर बहा शोक प्राषित किया। परत्रात उसे धर्य देकर कहने लगा
माताजी ! होनी अमिट है, तम दुःख कत करा, मैं तुम्हारा आज्ञाकारी पुत्र है, जो आज्ञा हो सो ही कई । यहां रहो तो सोत्रा करू और देश व मह पधारो सो पहुंचा हूँ, मब द्रब्ध बापहोका है, शंका मतकरो, मैं तुम्हारा पुत्र है। तब सेहाना बोली-हे पुत्र ! तम अस्पंस वयानु मौरविधी हो। जो होना पा सो हमाः मम आशा वो तो मैं पर जा। तब श्रीपालने उपको इन्काप्रमाण. बसको, मवायोग्य व्यवस्था करके विद्या किया और आप वहाँ खुबसे दोनों स्त्रियों सहित रहने लगे।