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घोपालका दीक्षा लेना । .... राजा श्रीपालका दीक्षा लेना एक दिन राजा श्रीपाल सुखासन से बैठे हुये विशाला अवलोकन कर रहे थे कि स्कापास हुआ बिजली चमकी), उसे देखकर सोचने लगे-'अरे ! जैसे यह बिजलो चमककर नष्ट हो गई, ऐसे ही एक दिन ये सब मेरे नैभव, सन, धन, यौवनादि भी विनश जांयगे । देखो संसार में कुछ भी स्थिर नहीं है । मेरी ही कई अवस्थायें बदल गई हैं | अब अचेत रहना योग्य नहीं है। इन विषयोंके छोड़नेके पहिले ही में इन्हें छोड दूं, क्योंकि जो इन्हें न छोडूगा तो भी ये नियमसे मुझे छोड ही देंगे । तब मुझे दुःख होगा और आर्तध्यानसे कुगतिका पात्र हो जाऊंगा। इस प्रकार विचारने लमे
विश्व में ओ वस्तु उपजी, नाश तिनका होयगा । तू त्याग इनहि अनित्य, लखकर नहीं पीछे रोयगा ।
अनित्य भावना है। मृत्यु के समय मेरा कोई भी सहाई न होगा। किमरेड सारण जाऊंगा? कोई भी बचानेवाला नहीं है । देव इन्द्र नरेन्द्र खगपति, और पशुपति जानिये । आयु अन्तहि मरें सब ही, शरण किसकी हानिये ।।
अशरण भाषमा संसार दुःखरूप जन्म मरणका स्थान है।
पिता मर निम पुत्र होवे, पुत्र मर नाता सही। परिवर्तरूपी. जगतमाही, स्वांग ब.. धारे यही ।।
संसार भावना,