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________________ १६ ] भोपाल परित्र। अन्त नहीं हुला। डाक लोग कुछ दूरतक. आकर पुनः इकठ्ठ हुये और स्वस्थचित हो परस्पर सलाह कर निश्चय किया कि एक बार फिर धावा मारना चाहिये । बस, उन लोगोंने पुनः आकर रंगमें भंग डाल दी, और भूले सिंहको तरह सेठके अहाजों पर लूट पडे । इस समय । डाकूओंकी बाजी रह गई और वे लोग बातको कातमें. धवलसेठको जीता ही बांधकर ले गये । यह देख सेठकी सारी सेनामें कोलाहल मच गपा । यहांतक सो श्रोपालजी चुपचाप बैठे हुये यह सब कौतुक देख रहे थे, सो ठोक है, क्योंकि धीरवीर पुरुष छोटोर बातों पर ध्यान नहीं देते हैं, सुन पुरुषों पर उनका क्रोध नहीं होता है, चाहे कोई इस तरहका कितना ही उपद्रव क्यों न करे । जैसे हाथीके उपर बहससी मक्खियां भिनभिनाया करती है. परन्तु उसे कुछ नुकशान नहीं पहुंचा सकती हैं, ऐसा समझकर हायो उनको कुछ भो परवाह नहीं करता। क्योंकि वह जानता है कि मेरे केवल कानके हिला देने से हो सब दिशा विदिशाओंकी शरण लेने लगेंगी-भाग जादंगी बेसे ही वीरवीरोंको अपने बलका भरोसा रहता है । कहा भी है " गोदड़ आये गोद, सिंह नहि हाथ पसारे । महामत गजराज, देवकर कुम्भ विदारे ।। . तसे ही सामन्त, लडे नहि कायर जनसे । देख चली परचण्ड, भग नहिं कबहू रणसे ।। प्रबल मत्र मद परिहरें, तो लधुको क्या बात । '. रेणके दिवे, के बन की विपात ॥
SR No.090465
Book TitleShripal Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherShailesh Dahyabhai Kapadia
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
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